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लोकतंत्र का मखौल

दलबदलू विधायकों को छह साल के लिए अयोग्य ठहराया जाना चाहिए, ताकि वे दोबारा चुनाव न लड़ सकें
बेंगलुरू में धरना देते कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह

देश इन दिनों दो संकटों से एक साथ जूझ रहा है, कोविड-19 वायरस और अवसरवादी राजनैतिक दलबदल। पहला संकट देश के लोगों के जीवन के लिए खतरा है, तो दूसरा हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है। लेकिन कोरोना वायरस और दलबदल के बीच एक बड़ा अंतर है। कोरोना ने भारत में हाल ही अपने पांव पसारे हैं, जबकि दलबदल कई साल से हमारे राजनैतिक परिदृश्य की नींव को खोखला कर रहा है।

फिलहाल, मध्य प्रदेश में दलबदल का जो मॉडल सामने आया है, वह कुछ नया तो कुछ पुराना है। मध्य प्रदेश में कभी कांग्रेस का लोकप्रिय चेहरा रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद, पार्टी के 22 विधायकों के इस्तीफे की सुनामी आ गई। उनके इस्तीफे अभी विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित हैं। हालांकि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्यपाल से अपनी कैबिनेट के छह बागी मंत्रियों को हटाने का अनुरोध किया। वे मंत्री पद से तो हटाए ही गए, विधानसभा अध्यक्ष ने उनके इस्तीफे भी मंजूर कर लिए हैं।

यह ड्रामा शुरू हुआ तो किसी पुरानी घटना की पुनरावृत्ति ही लग रहा था- वही दावे करती पार्टियां, अज्ञात जगह जाती विधायकों से भरी बस, अपनी पार्टी के प्रति खुलकर अविश्वास का इजहार करते नेताओं के वही दृश्य। मध्य प्रदेश के मौजूदा मामले में पार्टी के बाकी विधायकों को बगावत से दूर रखने के लिए राजस्थान (वहां कांग्रेस की सरकार है) ले जाया गया। बागी विधायकों को भी भाजपा की सरकार वाले राज्य कर्नाटक के एक लग्जरी रिसॉर्ट में पुलिस सुरक्षा के बीच रखा गया, ताकि कांग्रेस को उनसे सुलह का कोई मौका न मिले। विधायकों ने बड़ी बेशर्मी के साथ पार्टी की विचारधारा और जनभावना को पीछे रखते हुए अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पा लिया। भारतीय लोकतंत्र संभवतः दुनिया का एकमात्र ऐसा लोकतंत्र होगा, जिसने अपने विधायकों को मुफ्त में लग्जरी बस की सवारी और शानदार छुट्टियों की पेशकश करना शुरू कर दिया है।

पहले कभी-कभार होने वाली ऐसी घटनाएं अब आम हो गई हैं। इतिहास देखें, तो पाएंगे कि 1967 में हरियाणा के निर्दलीय विधायक गया लाल के कारण दलबदल चर्चा का विषय बना था। गया लाल ने नौ घंटे में दो बार अपनी वफादारी बदली थी। पहले कांग्रेस और फिर विपक्षी पार्टी के गठबंधन संयुक्त विधायक दल को अपना समर्थन दिया। अंततः तीसरी बार फिर दलबदल कर उन्होंने राव बीरेंद्र सिंह को अपना समर्थन दे दिया था। इस घटना के बाद दलबदल के लिए ‘आया राम-गया राम’ चर्चित मुहावरा बन गया।

जब ऐसी घटनाएं लगातार होने लगीं तो इस पर अंकुश लगाने के लिए 1985 में केंद्र सरकार दलबदल विरोधी कानून लेकर आई, जो संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में प्रचलित है। इस कानून में सदन की सदस्यता से अयोग्य ठहराने के तीन आधार रखे गए- पार्टी की सदस्यता से स्वैच्छिक इस्तीफा, पार्टी व्हिप की अवहेलना और सदन में मतदान के दौरान अनुपस्थित रहना।

जैसा कि हाल के वर्षों में कर्नाटक में देखा गया, मध्य प्रदेश के बागी विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। दलबदल कानून में इस खामी का कोई समाधान नहीं है। कुछ विधायकों के इस्तीफे से सदन में विधायकों की कुल संख्या कम हो जाती है, और इस तरह सरकार बनाने के लिए कम विधायकों की जरूरत पड़ती है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि 16 बागी विधायकों के इस्तीफे अभी मध्य प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित हैं।

दलबदल विरोधी कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष चाहे तो विधायकों का इस्तीफा स्वीकार कर सकता है या उपरोक्त तीन शर्तों में से किसी एक का भी उल्लंघन करने पर उन्हें अयोग्य घोषित कर सकता है। लेकिन ऐसा करने के लिए उस पर समय की कोई पाबंदी नहीं है। पिछले उदाहरणों को देखकर यह लगभग निश्चित लगता है कि मध्य प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय को अंततः सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हु और अन्य (1991) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्पीकर के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। न्यायालय ने कहा था कि स्पीकर के पास विवेकाधीन शक्तियां होती हैं। वह ट्रिब्यूनल के रूप में काम करता है, इसलिए कानूनन उसका निर्णय न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आता है।

इसी फैसले के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने श्रीमंत बालासाहेब पटेल और अन्य बनाम कर्नाटक विधानसभा के स्पीकर के मामले (2019) में 17 बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने के कर्नाटक के तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन 2023 तक चुनाव लड़ने पर रोक के उनके फैसले को रद्द कर दिया। निश्चित रूप से, 1991 का फैसला स्पीकर के लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने वाला साबित हुआ, क्योंकि स्पीकर संवैधानिक तटस्थता प्रदर्शित करने के बजाय राजनैतिक व्यक्ति बन गया है।

किसी पार्टी के अलग-अलग धड़ों के बीच वैचारिक मतभेद हो सकते हैं। इसलिए दलबदल विरोधी कानून में पार्टी के भीतर ‘विभाजन’ की अनुमति दी गई, बशर्ते कम से कम एक-तिहाई विधायक या सांसद अलग होकर नई पार्टी बना रहे हों। हालांकि 2003 में संविधान के 91वें संशोधन के जरिए इस छूट को खत्म कर दिया गया। बागी सदस्य किसी दूसरी पार्टी में तभी शामिल हो सकते हैं जब कम से कम दो-तिहाई सदस्य उनके साथ हों। इसी प्रावधान के चलते राजस्थान विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सभी छह विधायक अयोग्य ठहराए जाने से बचते हुए कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए।

91वें संशोधन में एक और प्रावधान किया गया, जिसके मुताबिक दलबदल करने वाले विधायक/सांसद उन्हें अयोग्य ठहराए जाने की अवधि पूरी होने तक या दोबारा चुने जाने तक (इनमें जो भी पहले हो), मंत्री नहीं बन सकेंगे। हालांकि यह प्रावधान बेमतलब हो गया है, क्योंकि दलबदलू और अयोग्य ठहराए गए विधायक दोबारा चुनकर विधानसभा में आ जाते हैं। बल्कि, दूसरी बार उन्हें मंत्री पद भी मिल जाता है। दलबदल के लिए उन्हें करोड़ों रुपये मिलते हैं, सो अलग। मैंने कभी इस बात की सिर्फ संभावना जताई थी, लेकिन कर्नाटक में वह वास्तविकता में बदल गई। वहां बागी विधायकों में से जो 11 दोबारा चुनकर आए, उनमें से दस को येदियुरप्पा सरकार के हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में मंत्री पद से पुरस्कृत किया गया।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा सीट का तोहफा मिला है। उनके 22 वफादार विधायकों को कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने पर क्या मिलेगा, वह भी जल्द ही जनता के सामने आ जाएगा।

यह पूरा वाकया इस बात का सबूत है कि कोई भी बात हमारे चुने हुए नेताओं को दलबदल करने से नहीं रोक सकती, अंतरात्मा की आवाज तो छोड़ ही दीजिए। एक नेता में क्या गुण होने चाहिए, इसके लिए डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में बुद्ध को उद्धृत करते हुए कहा था, “व्यक्ति में दो चीजें होनी चाहिए- ज्ञान और शील। बिना शील के ज्ञान बहुत खतरनाक होता है। ज्ञान के साथ शील का होना आवश्यक है। यहां शील का मतलब चरित्र, नैतिक साहस, किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आने और अपने आदर्शों के प्रति निष्ठा रखने से है।” लेकिन यह दुखद है कि हमारे नेता इनका पालन करने में विफल रहे हैं।

इस खामी को दूर करने के लिए मैंने एक उपाय का जिक्र कई बार किया है, जिससे हमारी पवित्र विधानसभाएं अयोग्य ठहराए गए दलबदलुओं से बची रह सकें। उपाय यह है कि विधायकों को कम से कम छह साल के लिए अयोग्य ठहराया जाना चाहिए ताकि वे दलबदलू तत्काल दोबारा चुनाव न लड़ सकें या मंत्री/चेयरमैन का पद न पा सकें। आम तौर पर चुनाव पांच साल बाद होते हैं, इसलिए छह साल का प्रतिबंध लगने से वे कम से कम एक चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। हालांकि निर्वाचित सरकार को गिराने के लिए जो मोटी रकम मिलती है, उसे देखते हुए किसी को पूरी जिंदगी घर बैठने में भी एतराज नहीं होगा। दलबदल अब नियमित घटना बन गई है और हर पार्टी ने कभी न कभी इस बुराई का सामना किया है। लोकसभा में अपने 303 सांसद होने के बावजूद सरकार को सिर्फ एक ही बात भारतीय चुनावी परिदृश्य को साफ-सुथरा बनाने और धनबल से मुक्त करने से रोक रही है, और वह है राजनीतिक इच्छाशक्ति।

(लेखक भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त और एन अनडॉक्यूमेंटेड वंडर- द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शनके लेखक हैं)

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भारत दुनिया का ऐसा इकलौता लोकतंत्र होगा, जिसने विधायकों को मुफ्त में लग्जरी बस की सवारी और छुट्टियां मनाने की छूट दे दी है

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निर्वाचित सरकार को गिराने के लिए जो मोटी रकम मिलती है, उसे देखते हुए किसी को पूरी जिंदगी घर बैठने में भी ऐतराज नहीं होगा

 

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