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सिंधिया का दांव कमलनाथ का पेच

ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा प्रवेश और उनके खेमे के 22 विधायकों की पाला बदल की कोशिश से कमलनाथ सरकार संकट में
सत्ता का खेलः राज्यपाल लालजी टंडन के साथ कमलनाथ

भोपाल में बस एक ही सवाल घुमड़ रहा है, कमलनाथ सरकार रहेगी या जाएगी? फिलहाल 26 मार्च तक विधानसभा का सत्र टल गया है। अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर हैं। मध्य प्रदेश में होली और रंगपंचमी जबर्दस्त तरीके से मनाई जाती है। इन दो त्योहारों के बीच कांग्रेस और भाजपा ने रंग-गुलाल की जगह राजनैतिक दांव-पेंच की ऐसी पिचकारियां चलाईं कि राज्य में संवैधानिक संकट खड़ा हो गया और प्रमुख संस्थाओं में टकराव भी देखने को मिले। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से 18 साल का रिश्ता तोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया तो 15 महीने की कमलनाथ सरकार लड़खड़ाने लगी। उनके खेमे के छह मंत्रियों समेत 22 विधायकों को बेंगलूरू पहुंचा दिया गया। वहीं से उन्होंने इस्तीफे भेजे। छह मंत्रियों को सरकार ने बर्खास्त कर दिया और विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति ने उनका विधानसभा से इस्तीफा भी मंजूर कर लिया।

इस बीच राज्यपाल लालजी टंडन ने 16 मार्च को विधानसभा में शक्ति-परीक्षण का आदेश दिया। लेकिन राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी 73 साल के कमलनाथ ने ऐसा दांव चला कि भाजपा के नेता लाठियां ही भांजते रह गए। विधानसभा अध्यक्ष ने राज्यपाल के अभिभाषण के बाद कोरोना वायरस के बहाने सदन की कार्यवाही 26 मार्च तक स्थगित कर दी। भाजपा के विधायक राजभवन में परेड करने के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। कांग्रेस भी पीछे नहीं रही, वह भी सुप्रीम कोर्ट चली गई। कहा यह भी जा रहा है कि सरकार के संपर्क में भाजपा के पांच विधायक हैं। ऐसे में लग रहा है खेल रोमांचक होने वाला है।

ठीक होली के दिन 10 मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। उस दिन ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया की 75वीं जयंती भी थी। कहा जाता है कि ज्योतिरादित्य इस मौके पर ग्वालियर जाने वाले थे, लेकिन वे दिल्ली के लोधी होटल गए और भाजपा प्रवक्ता जफर इस्लाम से मिलकर चाय पर चर्चा की। इसके बाद दोनों नेता होटल से कौटिल्य मार्ग स्थित गुजरात भवन पहुंचे। वहां से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की कार में बैठकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने 7, लोक कल्याण मार्ग पहुंचे। कुछ देर बाद ज्योतिरादित्य के कांग्रेस से इस्तीफे की खबर आई, फिर कांग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया।

ज्योतिरादित्य मध्य प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में लगातार उपेक्षा से दुखी बताए जाते थे। 2018 के विधानसभा चुनाव में स्टार प्रचारक रहे ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री की दौड़ में पिछड़े तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद मांगा, पर वह भी नहीं मिला। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनकी पूछ-परख और घट गई। भाजपा शासन में उन्हें भोपाल में सरकारी मकान नहीं मिला था, जो कांग्रेस राज में भी नहीं मिला। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी सिंधिया पर भारी पड़ी। पिछले महीने टीकमगढ़ में अतिथि शिक्षकों की सभा में वचन पत्र पूरा न होने पर सिंधिया के सड़क पर उतरने की बात पर मुख्यमंत्री कमलनाथ के जवाब ने आग में घी का काम किया। कमलनाथ ने कह दिया था कि “तो सड़क पर उत्तर जाएं।”

सिंधिया समर्थक एक नेता का कहना है, “कमलनाथ से ज्यादा दिग्विजय सिंह उन्हें आगे बढ़ने से रोक रहे थे।” दिग्विजय का सिंधिया परिवार से पुराना झगड़ा बताया जाता है। कहा जाता है कि 1816 में सिंधिया घराने के दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ के राजा जयसिंह को युद्ध में हरा दिया था। राघोगढ़ को तब ग्वालियर राज के अधीन होना पड़ा था। दिग्विजय सिंह राघोगढ़ से हैं। 1993 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए दिग्विजय सिंह और माधव राव सिंधिया का नाम शीर्ष पर था, लेकिन  मुख्यमंत्री बने दिग्विजय सिंह। 2018 में राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा मध्य प्रदेश की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपना चाहते थे, लेकिन दिग्विजय सिंह की आपत्ति से मामला टल गया। तब दिग्विजय ने तर्क दिया था कि ज्योतिरादित्य तो अभी 48 साल के हैं, उनके पास अवसर है। इसके बाद कमलनाथ को मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले अध्यक्ष बनाने का मतलब साफ था कि सरकार बनने पर मुख्यमंत्री वही बनेंगे। इसके पहले राज्य में कांग्रेस चार विधानसभा उपचुनाव जीत भी चुकी थी। सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री और अध्यक्ष, दोनों पद कमलनाथ के पास है।

सिंधिया के एक करीबी का कहना है कि दिग्विजय सिंह के कारण ही उन्हें कांग्रेस छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। कमलनाथ तो सिंधिया को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद देने पर सहमत थे। सोनिया गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की बातों को नहीं सुना। राहुल गांधी ने उन्हें मुख्यमंत्री कमलनाथ से बात कर मतभेद सुलझाने की सलाह दी। मध्य प्रदेश में भले कमलनाथ मुख्यमंत्री हैं, लेकिन मंत्रिमंडल के गठन से लेकर प्रशासनिक अफसरों की नियुक्ति-पोस्टिंग दिग्विजय की पसंद से होती रही है। मुख्य सचिव और डीजीपी भी उन्होंने अपनी पसंद का बनवाया। सरकार में हस्तक्षेप को लेकर मंत्री उमंग सिंघार ने खुला विरोध भी किया था। दिग्विजय के हावी होने का बड़ा कारण राज्य की राजनीति में कमलनाथ की पकड़ न होने को माना जा रहा है। यह भी कहा जाता है कि चुनाव से पहले  दिग्विजय की नर्मदा यात्रा से कांग्रेस के पक्ष में माहौल बना। दिग्विजय ने दो बार के विधायक अपने पुत्र और रिश्तेदार को कैबिनेट मंत्री बनवा दिया, लेकिन बिसाहूलाल सिंह, एदलसिंह कंसाना जैसे वरिष्ठ विधायकों को नजरअंदाज कर दिया गया।

नए पाले मेंः अमित शाह के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया

मध्य प्रदेश में सरकार बनने के तत्काल बाद कांग्रेस में मनमुटाव शुरू हो गए थे। बसपा-सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से चल रही कमलनाथ सरकार के मत्रियों को लेकर विधायक नाराज थे। कमलनाथ भी विधायकों से ज्यादा मेल-मुलाकत नहीं करते थे। यही वजह रहा कि सिंधिया समर्थक विधायकों के साथ दूसरे विधायक भी बागी हो गए।

सिंधिया ने 10 मार्च को कांग्रेस छोड़ी, लेकिन नींव तो पांच मार्च को ही पड़ गई थी, जब मंदसौर जिले के सुवासरा के विधायक हरदीप सिंह डंग ने इस्तीफा दे दिया था। इसके पहले कुछ कांग्रेस और निर्दलीय विधायक गुड़गांव के एक होटल में लाए गए थे। यह टूट-फूट की शुरुआत थी। विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप-प्रत्यारोप भी चले।

कहा जाता है कि सिंधिया को भाजपा में लाने में बड़ौदा राजघराने की शुभांगिनी देवी गायकवाड़ और भाजपा प्रवक्ता जफर इस्लाम की प्रमुख भूमिका रही। ज्योतिरादित्य की पत्नी प्रियदर्शनी वडोदरा के गायकवाड़ राजघराने से हैं। शुभांगिनी एक बार भाजपा से चुनाव लड़ चुकी हैं और 2014 में वडोदरा से लोकसभा नामांकन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावक थीं। उन्होंने सिंधिया और भाजपा नेतृत्व के बीच बातचीत का रास्ता तैयार किया। दूसरी कड़ी रहे जफर इस्लाम। सिंधिया राजनीति में आने से पहले मॉर्गन स्टैनली में इन्वेस्टमेंट बैंकर थे। सैयद जफर इस्लाम भी ड्यूश बैंक के पूर्व इंवेस्टमेंट बैंकर हैं। सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ने से पहले कई बार अपने समर्थक मंत्रियों-विधायकों से चर्चा की।

सिंधिया के कांग्रेस को अलविदा कहने की पटकथा लिखने की शुरुआत तो छह महीने पहले हो गई थी, राज्यसभा टिकट ने नाटक को रोमांचक बना दिया। अप्रैल में मध्य प्रदेश में राज्यसभा की खाली हो रही तीन सीटों में से दो कांग्रेस के खाते में आनी हैं। दिग्विजय सिंह अप्रैल में रिटायर हो रहे हैं, वे फिर राज्यसभा जाना चाहते हैं। सिंधिया भी इच्छुक थे। कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी सिंधिया को राज्यसभा भेजकर राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत नहीं करना चाहती थी। कमलनाथ समर्थक मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने मध्य प्रदेश के कोटे से प्रियंका गांधी को राज्यसभा भेजने की मांग कर दी। सिंधिया कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और नागरिकता कानून पर मोदी सरकार का समर्थन कर कांग्रेस आलाकमान की नजरों में बुरे बन चुके थे। उन्हें लगा कि राज्यसभा की राह आसान नहीं है।

भाजपा लोकसभा चुनाव के वक्त से ही कमलनाथ सरकार के तख्तापलट के लिए मौके की तलाश में थी। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा नेता अफसरों को संदेश देते थे कि मोदी सरकार आई और कमलनाथ सरकार गई। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेंद्र प्रधान, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और भाजपा के अन्य नेताओं ने सिंधिया के भाजपा में प्रवेश के एक हफ्ते पहले से दिल्ली में रणनीति बनाना शुरू कर दिया था।

230 सदस्यीय विधानसभा में अभी दो सीटें खाली हैं। कांग्रेस के 114 विधायक रहे हैं। उन छह विधायकों के इस्तीफे मंजूर हो चुके हैं, जो मंत्री पद से बर्खास्त हो गए थे। अब 16 विधायकों के इस्तीफे का मामला लटका है। 22 विधायकों के इस्तीफे से कांग्रेस की संख्या घटकर 92 रह जाएगी। चार निर्दलीय और सपा-बसपा के तीन विधायकों का उसे समर्थन है। भाजपा के 107 विधायक हैं। राज्यपाल के सामने परेड में 106 विधायक उपस्थित हुए।

बहरहाल, छत्तीसगढ़ विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव और मध्य प्रदेश विधानसभा में काम कर चुके देवेंद्र वर्मा कहते हैं, “अल्पमत की सरकार का अभिभाषण पढ़ने राज्यपाल विधानसभा गए क्यों? विधानसभा 26 मार्च तक स्थगित कर दी गई है तो उसके पहले अध्यक्ष भी सत्र आहूत नहीं कर सकते। शक्ति-परीक्षण के लिए सदन की कार्यवाही स्थगित, निलंबित और विलंबित न करने के गवर्नर के निर्देश के बाद भी कार्यवाही टालना साफ बताता है कि स्पीकर, सरकार और गवर्नर में टकराव जैसा माहौल है।” जाहिर है, संवैधानिक संकट भी दिखाई पड़ रहा है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर नजर है। उधर, 15 महीने तक सुस्त रही कमलनाथ की सरकार तेजी से राज्य में राजनैतिक नियुक्तियां और फैसले कर रही है। कमलनाथ सरकार के भविष्य के लिए अभी कुछ दिन तो इंतजार करना होगा।

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दशकों बाद एक पार्टी के बैनर में

कहते हैं, इतिहास अपने आपको दोहराता है। ग्वालियर के सिंधिया राजघराने का कांग्रेस के साथ रिश्ता इसकी नजीर बन गया है। आजादी के बाद तीसरी बार किसी सिंधिया ने कांग्रेस का दामन छोड़ा है। ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक, सबने अपने राजनैतिक कदम से सबको चौंकाया है। 1967 में मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह की संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार बनाने और पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र के तख्तापलट में विजयाराजे सिंधिया की भूमिका को आज भी याद किया जाता है। विधानसभा सत्र के बीच में विजयाराजे के इशारे पर 36 विधायकों के साथ गोविंद नारायण सिंह ने पाला बदल लिया और द्वारिका प्रसाद की सरकार गिर गई। विजयाराजे 1967 में कांग्रेस छोड़ कर जनसंघ में शामिल हो गईं।

ज्योतिरादित्य के पिता और विजयाराजे के बेटे माधवराव सिंधिया इंग्लैंड से पढ़ाई करके वापस आए तो 1971 में पहला लोकसभा चुनाव गुना से जनसंघ के टिकट पर लड़ा और कांग्रेस प्रत्याशी सरदार डी.के. जाधव को शिकस्त दी। इमरजेंसी में विजयाराजे समेत जनसंघ के कई नेता जेल चले गए। माधवराव सिंधिया नेपाल में रहे। 1977 में वे निर्दलीय चुनाव लड़कर संसद पहुंचे। इस दौरान वे संजय गांधी के माध्यम से इंदिरा गांधी के संपर्क में आए और 1980 में कांग्रेस में आ गए।

कहा जाता है कि इमरजेंसी के बाद मां-बेटे के बीच दूरियां बढ़ गईं। मां-बेटे के बीच यह तनाव जीवनभर चलता रहा। इसी का नतीजा था कि विजयाराजे ने अपनी वसीयत में बेटे को अपने ही घर में किरायेदार बनने पर मजबूर कर दिया। 1984 में माधवराव ने ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी  को चुनाव हरा दिया तो केंद्र में रेल मंत्री बनाए गए। फिर, पी.वी. नरसिंह राव की सरकार में भी वे कई मंत्री पदों पर रहे। बाद में जैन-हवाला डायरी में नाम आने के बाद माधवराव ने कांग्रेस से अलग होकर मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस पार्टी बना ली।  बाद में विकास कांग्रेस का कांग्रेस में विलय हो गया।

30 सितंबर 2001 को विमान हादसे में माधवराव के निधन के बाद विदेश से लौटे ज्योतिरादित्य 2002 में पहली बार पारंपरिक गुना सीट से लोकसभा में पहुंचे। 2004, 2009, 2014 में भी वे जीते, लेकिन 2019 में हार गए। यूपीए सरकार में मंत्री भी रहे। अब वे भाजपा में आ गए हैं। उनकी दो बुआ वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भी भाजपा में हैं। दशकों बाद सिंधिया खानदान एक पार्टी में आ गया है। 

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