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बंगबंधु जयंती पर रिश्तों की गांठ

भारत और बांग्लादेश अपनी मौजूदा चिंताओं को दूर कर आगे की राह तय करें, शेख मुजीबुर्रहमान को यही होगी सच्ची श्रद्धांजलि
वे ‌दिनः बांग्लादेश निर्माण के बाद इंदिरा गांधी और बंगबंधु मुजीबुर्रहमान

 

दिसंबर 2019 में मैं बांग्लादेश के ‘बिजॉय दिवस’ का साक्षी रहा। यह क्षण मेरे लिए गंभीर दुख का कारण बना। यह वही दिन है जब 1971 में भारत और बांग्लादेश की संयुक्त सेना ने पाकिस्तान से समर्पण करा लिया था। इस यात्रा के दौरान मैं बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के घर भी गया, जहां 15 अगस्त, 1975 को परिवार के 20 सदस्यों के साथ नए राष्ट्र के संस्थापक की हत्या कर दी गई थी।

14-15 अगस्त की उस दरम्यानी रात, सुनियोजित साजिश के तहत बांग्लादेश सेना के मौजूदा और सेवानिवृत्त अधिकारियों का एक दल टैंक और सशस्‍त्र जवान धानमंडी आवासीय क्षेत्र के घर में घुस आए। पहले मुजीब की पत्नी, उनके तीन बेटों और दो बहुओं, जिनमें एक गर्भवती थी, और अन्य लोगों को मारने के बाद वे मुजीब से मुखातिब हुए, जो दूसरी मंजिल के बेडरूम से उतर रहे थे। उनसे इस्तीफा देने को कहा गया। उन्होंने इनकार किया तो फौरन गोलियों से भून दिया गया। आज भी गोलियों के निशान उस हत्याकांड की गवाही देते हैं। वहां बिखरीं गुलाब की पंखुड़ियां उस क्षण की याद दिलाती हैं, जहां मुजीब रक्तरंजित हो कर गिर गए थे।

तब मैं ढाका में एक पत्रकार की हैसियत से पदस्थ था और सुबह उस दर्दनाक वारदात की रिपोर्ट लिखी थी। अब मैंने विजिटर्स बुक में हस्ताक्षर किए तो मेरे आंसू छलक आए। उस घटना को लगभग 45 साल बीत गए हैं लेकिन यादों का सिलसिला मेरी संवेदनाओं से धूमिल नहीं हुआ।

एक अन्य महत्वपूर्ण घटना की याद उस वक्त की है जब, मुजीब ने 25 मार्च, 1971 को रेडियो प्रसारण में स्वतंत्रता की घोषणा की थी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद पूर्वी पाकिस्तान के अधिकारियों ने ऐसा कत्लेआम शुरू किया, जिसकी दुनिया में दूसरी मिसालें नहीं मिलतीं। फौजी हुक्मरान जनरल याह्या खान का आदेश था, “साफ कर दो।” मुजीब को पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में भेजा गया।

लेकिन, उन्होंने आजादी की जो चिंगारी जलाई, वह जलती रही। उनके जाने के बाद जैसा बांग्लादेश बनना था, वैसा नहीं बना लेकिन कोई दूसरा उनकी जगह नहीं ले सकता। वे वहां के राष्‍ट्रपिता हैं। उनके कटु आलोचकों ने भी कभी उनकी भूमिका पर सवाल नहीं उठाया। वैसे, बांग्लादेश दो परस्पर विरोधी विरासतों में बंटा हुआ है। एक मुजीब की अवामी लीग है, जिसके वे संस्थापकों में एक थे और फिलहाल उनकी बेटी, शेख हसीना वहां प्रधानमंत्री हैं।

दूसरी विरासत जनरल जियाउर्रहमान की है, जिन्होंने स्वतंत्रता की घोषणा वाले उस रेडियो प्रसारण का इंतजाम किया था। जियाउर्रहमान 1975 में मुजीब के खिलाफ साजिश में सीधे जुड़े नहीं थे मगर उन्हें उसके बारे में पता होना चाहिए था। नई सरकार ने उन्हें फौरन सेना प्रमुख बना दिया, तो उन पर लगा आरोप दमदार लगने लगा।

हालांकि जियाउर्रहमान को भी राजनैतिक खेमेबंदियों में बंटी सेना के कुछ हलकों से तख्तापलट की कई कोशिशों से बचना पड़ा और आखिर में वे निर्वाचित राष्ट्रपति बने। लेकिन मुजीब की हत्या के पांच साल बाद मई 1981 में उनकी भी वही नियति हुई। सेना के अधिकारियों ने उन्हें गोली मार दी।

उनकी पत्नी, बेगम खालिदा जिया दस साल बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं। भारत के साथ उनके संबंध हमेशा टकराव के रहे। 1971 और उसके बाद ‘बांग्लादेशी राष्‍ट्रवाद’ के अपने संस्करण को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने भारत की भूमिका को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस्लामी ताकतों को उकसाया और भारत विरोधी उग्र बागियों को पनाह दी। भारत ने इसे न भुलाया, न माफ किया।

यहां कुछ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दोबारा याद करने की जरूरत है। 1947 के विभाजन के ठीक बाद पश्चिम में पाकिस्तान भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय बना रहा और जम्मू-कश्मीर पर कई सीधी टकराहटें हुईं। उधर, पूर्वी पाकिस्तान पश्चिम पाकिस्तान का लगभग ‘उपनिवेश’ की तरह बन गया था। इससे सांवले और कमजोर काया के बंगालियों में पंजाबियों और पठानों के खिलाफ असंतोष पनपने लगा। मुजीब ने बंगालियों में राजनैतिक महत्वाकांक्षा जगाई। उनकी पार्टी ने बांग्ला भाषा और अस्मिता का सवाल उठाया। इससे मुजीब पर भारत प्रायोजित ‘षड्‍यंत्र’ में शामिल होने का आरोप लगा और तब उन पर चर्चित  ‘अगरतला षड्‍यंत्र मामले’ का आरोप मढ़ा गया।

लेकिन 1971 के चुनावों में अवामी लीग ने अधिकांश सीटे जीत लीं और लोकतांत्रिक तरीके से पाकिस्तान के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व हासिल किया। लेकिन फौज और जुल्फिकार अली भुट्टो दोनों ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया जिससे पाकिस्तान विभाजन की नींव पड़ी।

फिर, 1971 में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अहम भूमिका अदा की। उनकी सरकार ने दस लाख शरणार्थियों को पनाह दी, जो पूर्वी पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़ कर भाग आए थे। उन्होंने पाकिस्तान फौज द्वारा सामूहिक हत्याओं को दुनिया के सामने लाने के लिए राजनयिक मोर्चे पर भी काफी सक्रियता दिखाई। उन्होंने अमेरिकी सिनेटर एडवर्ड कनेडी, अंतरराष्‍ट्रीय मीडिया, और वायलिन वादक येहुदी मेनहन तथा फ्रांस के दार्शनिक एंड्रई मालरां का समर्थन हासिल किया। लेकिन वे अमेरिका के राष्‍ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके ताकतवर सहयोगी हेनरी किसिंजर को नहीं मना सकीं।

इंदिरा गांधी ने तब तत्कालीन सोवियत संघ के साथ मैत्री और शांति संधि पर हस्ताक्षर किए और दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग में करारा जवाब दिया। दो हफ्ते बाद 93,000 सैनिकों के साथ पाकिस्तानी फौज के समर्पण के बाद युद्ध खत्म हुआ। ठीक तीन महीने बाद, भारतीय सेना हट गई और बांग्लादेश दुनिया के नक्‍शे पर आ गया। यह शेख मुजीब की वजह से संभव हुआ था।

लेकिन शीत युद्ध के दौर में अमेरिका ने इसे सोवियत संघ की जीत माना। बांग्लादेश को पश्चिम या इस्लामी दुनिया ने लंबे समय तक मान्यता नहीं दी। किसिंजर ने मुजीब को, ‘इतिहास का अहमक’ कहा।

इसका नतीजा जल्द ही आ गया। मुजीब हत्याकांड और तख्तापलट में अमेरिका की सीआइए की साजिश कभी साबित नहीं हुई, लेकिन अमेरिकी पत्रकार लॉरेंस लाइफस्कुल्ट्ज ने अपनी पुस्तक बांग्लादेश: एन अनफिनिश्ड रेवोल्यूशन में इसका विवरण दिया। उन्होंने लिखा, “ढाका में सीआइए स्टेशन प्रमुख, फिलिप चेरी, राष्ट्रपिता-बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या में सक्रिय रूप से शामिल थे।” जाहिर है, चेरी ने इसका खंडन किया। चेरी की सहायता करने वाली महिला मेजर शरीफुल हक दलिम की राजनयिक दोस्त थी।

तख्तापलट से महज दस दिन पहले ही एक पाकिस्तानी व्यापार प्रतिनिधिमंडल ढाका पहुंचा था। इसके बाद ही तख्तापलट को अंतिम रूप दिया गया। प्रतिनिधिमंडल में एक सेवानिवृत्त पाकिस्तानी फौज प्रमुख शामिल थे। आधिकारिक यात्रा कार्यक्रम के अनुसार, प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन वाणिज्य मंत्री मुश्ताक अहमद से मिला था। 15 अगस्त को, मुजीब की हत्या के कुछ घंटों के भीतर ही, मुश्ताक ने राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ली। मुश्ताक ने बांग्लादेश के राष्‍ट्रीय नारे ‘जय बांग्ला’ को बदल कर ‘बांग्लादेश जिंदाबाद’ कर दिया। ‘हत्यारों’ के खिलाफ कार्रवाई रोकने वाले अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने के ठीक एक साल बाद मुश्ताक को नवंबर में हटा दिया गया। दो दशक बाद जब शेख हसीना ने कार्यभार संभाला तो नेशनल असेंबली ने अध्यादेश को निरस्त किया।

अब वर्तमान में लौटें। नरेंद्र मोदी और शेख हसीना सरकारों ने संयुक्त रूप से निर्णय लिया है कि 17 मार्च से शुरू होने वाले मुजीब जन्मशताब्दी वर्ष को बांग्लादेश विजय के रूप में मनाया जाएगा। हालांकि कोरोना संक्रमण के कारण मोदी की ढाका यात्रा स्थगित हो गई है। अब टेली कॉन्फ्रेंसिंग होनी है।

दक्षिण एशिया में लगातार बदलती स्थिति में भी, बांग्लादेश भारत का सबसे करीबी दोस्त बना हुआ है। लगता नहीं कि सीएए और एनआरसी बांग्लादेश की चिंता का विषय हैं। मोदी की यात्रा को लेकर वहां कुछ विरोध प्रदर्शन जरूर हुए, लेकिन हम आने वाले हफ्तों, महीनों और वर्षों में जानेंगे कि भारत कैसे इन चिंताओं का जवाब देता है और कैसे दो करीबी पड़ोसी इस मुद्दे को हल करते हैं। यही शेख मुजीबुर्रहमान को सर्वश्रेष्‍ठ श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और 1974-76 के दौरान ढाका में यूएनआई के ब्यूरो चीफ थे)

 

 

नरेंद्र मोदी और शेख हसीना सरकारों ने संयुक्त निर्णय लिया है कि 17 मार्च से शुरू मुजीब जन्मशताब्दी  वर्ष को बांग्लादेश विजय के रूप में मनाया जाएगा

 

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