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नाम भर का थिएटर ओलंपिक्स

रंगमंच की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय हस्तियों और नाटकों के जुटान के बावजूद फीका रहा यह उत्सव
आठ अप्रैल तक चलेगा रंगमंच का अंतरराष्ट्रीय महोत्सव

भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने 17 फरवरी 2018 की शाम लाल किले के सामने जिस थिएटर ओलंपिक्स का भव्य उद्घाटन किया उस समारोह का लगभग एक तिहाई भाग पूरा हो चुका है। 51 दिनों तक चलने वाला यह महोत्सव आठ अप्रैल 2018 को खत्म होगा। दिल्‍ली के अलावा देश के 16 अन्य शहर भी इस आयोजन में भागीदारी कर रहे हैं। इनमें चेन्नै और तिरुवनंतपुरम की हिस्सेदारी खत्म हो चुकी है, भुवनेश्वर में प्रस्तुतियां लगभग समाप्ति पर हैं, पटना में भी मार्च मध्य तक प्रस्तुतियां समाप्त हो जाएंगी।

थिएटर ओलंपिक्स में 450 नाटक, 600 एबियंस परफॉर्मेंस और 250 यूथ फोरम शो आयोजित हो रहे हैं, जिनमें दुनिया भर के 25,000 कलाकार भागीदारी कर रहे हैं। अब तक यूनान, जापान, रूस, तुर्की, दक्षिण कोरिया, चीन और पोलैंड में सात थिएटर ओलंपिक्स हो चुके हैं। किसी भी थिएटर ओलंपिक्स में अब तक ज्यादा से ज्यादा 97 प्रस्तुतियां मंचित की गई हैं। पहली बार भारत में ही मंचनों की संख्या इतनी ज्यादा है। ऐसा क्यों है, यह समझ से परे है। यदि भारत में आयोजित होने वाले पहले थिएटर ओलंपिक्स को बड़ा और भव्य होना चाहिए तो फिर उसके लिए समय और आवश्यक तैयारी भी होनी चाहिए। इस थिएटर ओलंपिक्स की चर्चा 2014 से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व अध्यक्ष रतन थियम (जो अंतरराष्ट्रीय थिएटर ओलंपिक्स कमेटी के एक सदस्य भी हैं) और मौजूदा निदेशक सभाओं, सेमिनारों और संगोष्ठियों में घोषणा करते आ रहे थे, लेकिन इसकी प्रक्रिया मात्र छह महीने पहले ही शुरू हुई।

दुनिया भर में जितने भी अंतरराष्ट्रीय नाट्य समारोह किए जाते हैं, उनकी प्रक्रिया दो-तीन साल पहले शुरू हो जाती है। हर नाट्य समारोह का कला निदेशक होता है जो अलग-अलग देशों में घूम-घूमकर प्रस्तुतियों का चुनाव करता है। रतन थियम नाट‍्य समारोह के कला निदेशक हैं लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। इसलिए चयन समितियों के सामने से गुजर कर इतनी बड़ी संख्या में हमारे सामने जो है, उनके चयन के पीछे वह दृष्टि नजर नहीं आती जिससे महसूस हो कि हम देश के दर्शकों को सर्वश्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं। कुछ प्रस्तुतियां तो ऐसी हैं जो पहली बार यहीं मंचित हो रही हैं। कुछ ऐसे निर्देशक भी शिरकत कर रहे हैं, जिन्होंने शायद आज तक एक भी नाटक निर्देशित नहीं किया है। 

दिल्‍ली में मंचित हुए या होने वाले नाटकों पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि 18 फरवरी से 15 मार्च तक घोषित कार्यक्रम के अनुसार कुल 87 नाटकों की सूची में हिंदी के मात्र आठ नाटक हैं। यानि कुल संख्या का दस प्रतिशत भी नहीं। इसका नतीजा सामने है, दर्शकों की संख्या बहुत कम है। कभी-कभार किसी विदेशी नाटक में दर्शक जुटे हों तो अलग बात है लेकिन भारतीय भाषाओं के नाटकों में उपस्थिति कम ही है। मैं स्वयं एक मराठी नाटक की प्रस्तुति में उपस्थित था, लगभग 350 दर्शकों वाले सभागार में 20 से ज्यादा दर्शक नहीं थे। दर्शकों में बड़ी संख्या तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मराठी भाषी छात्रों की थी। इसी तरह की प्रतिक्रियाएं चेन्नै और तिरुवनंतपुरम से भी मिली हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि किस शहर में कौन सी भाषा की प्रस्तुति भेजी जानी चाहिए, इसको लेकर सोच-विचार नहीं किया गया।

केवल पटना ही अलग उदाहरण है, जहां दर्शकों की भागीदारी शत-प्रतिशत है। पता चला वहां समारोह के लिए टिकट नहीं लगाया गया है। इसके चलते विचार हो रहा है कि सभी जगहों पर दर्शकों का प्रवेश निःशुल्क कर दिया जाए। यदि यही निर्णय समारोह से पहले कर लिया जाता तो अच्छा रहता। थिएटर ओलंपिक्स की 51 दिनों की समय सीमा भी असफलता का बड़ा कारण है। इससे पहले 1999 से 2017 तक चले ‘भारत रंग महोत्सव’ की अवधि पंद्रह-बीस दिनों से ज्यादा कभी नहीं रही। जाहिर है, इतने दिनों तक तो दर्शकों और काम करने वालों का उत्साह-ऊर्जा बनी रहती है। सबसे बड़ी बात जो शायद किसी के ध्यान में नहीं आई वह है 17 फरवरी से आठ अप्रैल की समय अवधि। मार्च-अप्रैल लगभग सभी राज्यों में दसवीं-बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं का समय है। ऐसे में अभिभावक बच्चों की परीक्षा की तैयारी के चलते नाटकों की दुनिया से दूर रहेंगे। इससे पहले ‘भारत रंग महोत्सव’ जनवरी और बाद में धुंध और कोहरे के कारण फरवरी में होता रहा है। थिएटर ओलंपिक्स फरवरी में ही होना चाहिए था और इसकी अवधि अधिक से अधिक बीस दिनों की होनी चाहिए। साथ ही दूसरे शहरों में एक दिन के अंतराल पर दस दिनों का समारोह रखा जा सकता था।

अभी किसी शहर में दस, किसी में पंद्रह किसी में बीस दिन मंचन के लिए निश्चित किए गए हैं। यानी कार्यक्रम में कोई एकरूपता नहीं है। यही हाल टिकट दर का भी है। दिल्‍ली में टिकट 200, 250, 100 और 50 रुपये के रखे गए हैं तो कोलकाता, बेंगलूरू और वाराणसी में भी टिकट की कीमत 50 रुपये है। एकाध अपवाद छोड़ दें तो, जब दिल्‍ली में सभागार नहीं भर पा रहे तब बाकी जगहों पर क्या हाल हो रहा होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। नौ सौ लोगों की क्षमता वाले कोलकाता के एक सभागार में मात्र 50 दर्शक आए। जबकि वहां शेक्सपीयर का बहुत प्रसिद्ध और जाना पहचाना नाटक मिडसमर नाइट्स ड्रीम के राजस्‍थानी रूपांतर का मंचन था।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यही है कि जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय 1999 से लगातार हर वर्ष ‘भारत रंग महोत्सव’ आयोजित करता आ रहा था तो इस बार थिएटर ओलंपिक्स आयोजित करने की जरूरत ‌क्यों आन पड़ी? क्या भारत रंग महोत्सव अंतरराष्ट्रीय नाट्य समारोह नहीं था? जबसे ‘भारत रंग महोत्सव’ की शुरुआत हुई, तभी से विदेशी नाटक उसमें शिरकत करते रहे हैं। पहले रंग महोत्सव में यदि चार विदेशी नाटक थे तो उन्नीसवें महोत्सव तक आते-आते उनकी संख्या बीस-पच्चीस तक पहुंच गई थी। अब अगर वर्तमान थिएटर ओलंपिक्स में उनकी संख्या चालीस है तो उसे लेकर क्या बात की जाए? ‘भारत रंग महोत्सव’ की जब भी बड़ी स्मारिका प्रकाशित हुई, उसके ऊपर लिखा जाता रहा, ‘भारत का अंतरराष्ट्रीय समारोह’। ऐसे में थिएटर ओलंपिक्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर का पहला महोत्सव घोषित करने क्या तुक? जाहिर है, यह विचार अकेले रतन थियम के मन में पैदा हुआ और उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का अध्यक्ष बनते ही इसकी सारी जिम्मेदारी विद्यालय के निदेशक वामन केंद्रे पर डाल दी। इससे पहले जिन भी देशों में थिएटर ओलंपिक्स हुए उनमें वहां की सरकारों की कोई भागीदारी नहीं थी। लेकिन हम लोग सरकार पर इतने आश्रित हो गए हैं कि पहल करने को तैयार नहीं हैं।

इस अवसर पर होने वाले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों, गोष्ठियों और संगोष्ठियों में नाट्य लेखन पर संवाद हो और उसमें वरिष्ठ नाट‍्य लेखक गिरीश कर्नाड का नाम न हो तो अजीब लगता है। दिल्‍ली के अलावा जिन भी राज्यों में थिएटर ओलंपिक हो रहा है वह उन राज्यों की राजधानी में हो रहा है। लखनऊ को इससे वंचित रखा गया है।

इस सारी पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में कुछ सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित किया जाना भी जरूरी है। दिल्‍ली में बहावलपुर हाउस परिसर में 18 फरवरी से पांच मार्च के बीच विश्वविद्यालयों से आए छात्रों का नुक्कड़ नाट्य समारोह। हर रोज चार-पांच नाटक हुए और बाद में उन पर जमकर बहस भी। इसी परिसर में बना फूड बाजार, जहां देश के अलग-अलग हिस्सों से आए रंगकर्मियों से मेल-मुलाकात, विचार-विमर्श वाद-विवाद और संवाद भी, तो दर्शक दीर्घा में युवा पीढ़ी की लगातार बढ़ती उपस्थिति भी।

(लेखक प्रसिद्ध रंगकर्मी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक हैं) 

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