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खुदकशी क्यों इतनी

अचानक आत्महत्या की वारदातें ऐसी हदें लांघने लगीं जिनसे खतरे की आशंकाएं बढ़ीं और मौजूदा विकास तथा सामाजिक-आर्थिक तनावों के नए आयाम खुलने लगे
रोजाना आत्महत्या की खबरें ऐसे नमूदार हो रही हैं मानो कोई महामारी उतर आई हो

“आत्महत्या इस दौर की सबसे बड़ी राजनैतिक सच्चाई और विरोध की अभिव्यक्ति के रूप में उभर रही है।”

-इतालवी सिद्धांतकार फ्रैंको ‘बिफो’ बरदी

वह पश्चिम बंगाल के हावड़ा में बैंक मैनेजर था। उस पर पुराने नोटों को बदलने का आरोप लगा। रेललाइन पर कूद कर जान दे दी। बाद में आरोप बेमानी निकला। कहते हैं, वह बदनामी और ईएमआइ अदा करने की दुश्चिंता से खुदकशी कर बैठा। उसने सोशल मीडिया पर साथियों को अपने फैसले से आगाह भी ‌किया था मगर कोई मदद को नहीं आया। वह अपने पीछे पत्नी और छोटी बच्ची को छोड़ गया। झारखंड में जमशेदपुर के विजया गार्डन निवासी टाटा स्टील में ठेकेदारी करने वाले 39 वर्षीय इंजीनियर ने अपनी पत्नी और छह साल के बेटे को चॉकलेट में जहर दे दिया और खुद फांसी लगाकर जान दे दी। पुलिस ने चार पेज का सुसाइड नोट बरामद किया जिसमें बिजनेस में घाटे को आत्महत्या की वजह बताई गई है।

गाजियाबाद के कविनगर में महागुनपुरम में एक मां-बेटी ने आर्थिक तंगी से परेशान होकर खुदकशी की। 11 साल की किशोरी ने फांसी लगाकर जान दे दी, जबकि मां ने दोनों हाथों की नसें काट लीं। पहले पति से तलाक और दो साल पहले नौकरी छूटने के बाद परेशानी से निजात पाने को मां-बेटी को यही उपाय सूझा।

बिहार के बेगूसराय के विष्णुपुर चौक निवासी दिलीप कुमार गुप्ता की 18 वर्षीय पुत्री ने आत्महत्या कर ली। वह इंटरमीडिएट बायोलॉजी की छात्रा थी। इंटरमीडिएट की परीक्षा में फेल हो गई थी। इस बार दोबारा परीक्षा दी लेकिन पेपर अच्छा नहीं गया।

बिहार के आरा में आर्थिक तंगी और घरेलू कलह से परेशान महिला ने धारदार हथियार से चार साल के बेटे का गला रेता, फिर साल भर के छोटे बेटे का गला रेता और उसके बाद उसने खुद का भी गला काट लिया। छोटा बेटा गंभीर रूप से घायल अवस्‍था में बच गया।

बिहार के जहानाबाद में 15 फरवरी को छेड़खानी से तंग आकर एक 16 वर्षीय युवती ने खुदकशी कर ली। इंटर में पढ़ने वाली लड़की को गांव के ही दो मनचले अक्सर छेड़छाड़ कर परेशान किया करते थे।

पश्चिम बंगाल के बैरकपुर में आर्थिक तंगी और दांपत्य कलह से परेशान 42 साल के शख्स ने पत्नी की गला दबाकर हत्या की और फिर ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी।

दिल्ली के गोविंदपुरी में बहू ने सास को वाट्सऐप मैसेज दिया और फिर पति-पत्नी ने सुसाइड कर लिया। पति की बेरोजगारी से पारिवारिक कलह चरम पर पहुंच गई थी।

दिल्ली के तिमारपुर में प्रॉपर्टी डीलर ने कार में खुद को गोली मारकर जान दे दी। इससे पहले वाट्सऐप का स्टेटस बदला और लिखा अलविदा भाइयों और गोली मार ली। बेटा ऑस्ट्रेलिया में पढ़ता है। घाटे को आत्महत्या की वजह माना जा रहा है।

अखबार की सुर्खियों और टीवी चैनलों में लगभग रोजाना ही खुदकशी की वारदातें चीख-चीखकर मानो हमें किसी खतरे से आगाह कर रही हैं। पिछले दो महीने में ही देश भर से लगभग रोजाना आत्महत्या की खबरें ऐसे नमूदार हो रही हैं मानो कोई महामारी उतर आई हो। दिल्ली और एनसीआर के हिस्सों, बेंगलूरू, हैदराबाद, मुंबई, कोलकाता, चेन्नै जैसे महानगरों से ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों से भी आत्महत्या की खबरें लगातार परेशान करने की हद तक आती जा रही हैं। इस मामले में देश का कोई हिस्सा अपवाद नहीं रह गया है। कहीं कोई स्‍त्री अपने बच्चों के साथ तो पति अपने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है या उसकी कोशिश करता है। छात्र-छात्राएं भी परीक्षा या दूसरे तनावों से जूझने के बदले अपनी जान देना ही बेहतर समझ लेते हैं।

कुछ दशक पहले तक ऐसी मजबूरियां विरले ही देखने को मिलती थीं। कोई सिर्फ असह्य बीमारी-हारी की हालत में ही खुदकशी को प्रेरित होता था, वह भी बेहद अकेलेपन की हालत में। वरना उसकी ओर समाज और परिवार, दोस्तों-परिजनों के हाथ बढ़ आते थे। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि अब मदद के हाथ नहीं बढ़ते या फिर मदद मुमकिन नहीं हो पाती। जो भी हो, हालात बेहद गंभीर हैं और किसी और व्याख्या की मांग करते हैं।

आंकड़े और भयावह तस्वीर खींचते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 2015 के दौरान देश में कुल एक लाख 33 हजार 623 लोगों ने अलग-अलग कारणों से अपनी जान दे दी। यह तादाद 2014 के मुकाबले डेढ़ फीसदी ज्यादा है। इन आंकड़ों के मुताबिक 2014 में आत्महत्या करने वालों में 18 से 30 आयुवर्ग के युवाओं की तादाद सबसे ज्यादा 44,870 थी। 14-18 वर्ष के 9,230 किशोर भी इसमें शामिल थे। यहीं नहीं, आत्महत्या करने में दैनिक मजदूरी करने वालों की तादाद में सबसे ज्यादा 51 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई है। 2014 में आत्महत्या करने वालों में 17.8 फीसदी मजदूर थे। उनके बाद महिलाओं का नंबर है।

गौरतलब है कि अमूमन मेहनत-मजदूरी करने वालों को आत्महत्या की प्रवृत्ति से अछूता माना जाता रहा है, लेकिन यह दौर इतना मजबूर कर रहा है कि उनमें भी यह प्रवृत्ति घर करती जा रही है। इससे यह सवाल बरबस परेशान करता है कि आखिर वह क्या है जो मजबूरियों से लड़ने के बदले आत्महत्या का विकल्प चुनने को प्रेरित कर रहा है? 

वही क्यों, लगातार देश के कई हिस्सों से आ रही किसानों की आत्महत्या की खबरें तो अब आम हो गई हैं। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला तो करीब दो दशक से लगातार जारी है और हर साल अमूमन उसमें इजाफा होता जाता है। उसके दायरे भी बढ़ते जाते हैं। यह उन क्षेत्रों में भी फैलता रहा है, जहां आत्महत्या की घटनाएं विरले ही सुनी जाती थीं। मसलन, उत्तर प्रदेश और बिहार में खुदकशी विरले ही सुनने को मिलती थी। अब उन इलाकों से भी किसान आत्महत्या की खबरें आने लगी हैं।

किसानों की आत्महत्या राजनैतिक खबर भी बनी और यूपीए से लेकर एनडीए सरकारों तक ने कर्जमाफी से लेकर फसल बीमा तथा समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसे उपायों की घोषणा भी की लेकिन उससे संकट दूर होता नहीं लगता है। सवाल यह भी है कि किसान अपने संकट सामूहिक आंदोलन के रूप में क्यों नहीं प्रकट कर पा रहा है, क्यों वह आत्महत्या को ही आखिरी विकल्प समझ ले रहा है? जबकि महानगरीय और शहरी जीवन के एकाकीपन से तो वह दूर है। इसका मतलब है कि गांवों में भी वह सामाजिक आधार कमजोर होता जा रहा है जो तनाव को जज्ब कर लेता था।

किसान आत्महत्या के मामले में चर्चित हो चुके विदर्भ क्षेत्र की वजह से आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र (16,970) में सबसे अधिक रहे हैं, उसके बाद तमिलनाडु (15,777) और पश्चिम बंगाल (14,602) का नंबर आता है। इस तरह देखें तो देश में होने वाली आत्महत्या की कुल घटनाओं में 51.2 फीसदी सिर्फ पांच राज्यों यानी महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हुईं। हाल के वर्षों में आत्महत्या की वारदातों में सबसे तेज वृद्धि (129.5 फीसदी) उत्तराखंड में दर्ज की गई। उसके बाद मेघालय (73.7 फीसदी), नगालैंड (61.5 फीसदी) और जम्मू-कश्मीर (44.2 फीसदी) का नंबर आता है। आबादी के अनुपात में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं पुदुच्चेरी और सिक्किम में होती हैं। पुदुच्चेरी में प्रति 10 लाख लोगों में से औसतन 432 लोग आत्महत्या करते हैं जबकि सिक्किम के मामले में यह आंकड़ा 375 है।

यानी आत्महत्याओं में देश भर में इजाफा हो रहा है। सच्चाई यह भी है कि आत्महत्या की वारदातें दुनिया भर में बढ़ रही हैं लेकिन भारत अगली कतारों में शुमार होता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की बीते साल जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में सालाना आत्महत्या के लगभग आठ लाख मामलों में 21 फीसदी भारत में ही होते हैं। रिपोर्ट में इस बात पर हैरत जताई गई थी कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है।

इन युवाओं में परिवार की आकांक्षाओं के अनुरूप परीक्षा में नंबर न ला पाने से लेकर, प्रेम में निराशा, पति-पत्नी और परिवार में कलह, आर्थिक तंगियां, कर्ज का बोझ, नौकरी छूटने, परिवार का भरण-पोषण करने में परेशानी जैसे तमाम तरह के तनावों से खुदकशी की प्रवृत्ति उभर रही है। लेकिन इस हताशा की ऐसी विचित्र कहानियां भी हैं जो आपको दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दें। 2015 में गणतंत्र दिवस पर बुंदेलखंड में एक गांव में एक किसान की आत्महत्या की खबर आई तो पूरा इलाका मायूसी में डूबा था। वहां एक युवा 30 वर्षीय सूरज यादव उसकी आत्महत्या पर रोष भी जाहिर कर रहा था लेकिन अगले दिन लोगों ने पाया कि सूरज ने भी अपने गले में फंदा लगा लिया। तो, क्या आत्महत्या विरोध का कोई वाजिब उपाय भी मानी जाने लगी है?

इसका संकेत अपेक्षाकृत कम उम्र वालों की आत्महत्या की घटनाओं में भारी इजाफे में भी मिलता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 15 से 29 वर्ष आयुवर्ग के लोगों की आत्महत्या की घटनाएं 2004 के 35 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 41 प्रतिशत हो गईं। इन्हीं से पता चलता है कि देश में हर आयुवर्ग में आत्महत्या करने की दर 2004 में प्रति लाख आबादी 10.5 से बढ़कर 2014 में 10.6 हो गई। इस तरह पता चलता है कि हर लाख भारतीयों में 10 से 11 लोग लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं। इस मामले में किसानों के अलावा आत्महत्या करने वाले सबसे अधिक छात्र, युवा और महिलाएं हैं। 2004 में देश में हुई आत्महत्या की वारदातों में छात्रों का प्रतिशत 4.9 था, जो 2014 में बढ़कर 6.1 प्रतिशत हो गया। छात्रों के अलावा दूसरे वर्गों में यह इजाफा तो 2004 के 13 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 31 प्रतिशत पर पहुंच गया।

हालांकि आत्महत्याएं हमारे देश में ही नहीं, दुनिया भर में बढ़ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1970 के बाद से आत्महत्या की दर में 60 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा हुआ है। इसलिए अब यह भी सोचा जाने लगा है कि मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्‍था में ही कुछ ऐसा है, जो लोगों को आत्महत्या की ओर प्रेरित कर रहा है।

इतालवी राजनीतिशास्‍त्री फ्रैंको ‘बिफो’ बरदी के मुताबिक ये घटनाएं इतने बड़े पैमाने पर हो रही हैं कि इन्हें अपवाद मानकर खारिज नहीं किया जा सकता. अपनी नई किताब ‘हीरोज: मास मर्डर ऐंड सुसाइड’ में ‘बिफो’ कहते हैं, “ये अब मानसिक असंतुलन की अपवाद या हाशिए की घटनाएं नहीं रह गई हैं, बल्कि ये हमारे दौर के राजनैतिक इतिहास का बड़ी सच्चाई बनकर उभर रही है.” उनके मुताबिक, ये “नव-उदारवादी वित्तीय पूंजीवाद की विनाशकारी व्यवस्था और उसकी आत्मघाती प्रवृत्तियों” की बेहद चिंताजनक सच्चाइयों का खुलासा करती हैं, “जो लोगों को घबराहट और हिंसक प्रवृत्तियों की ओर ले जा रही हैं।”

बिफो इसे “नाखुशी और नाराजगी की महामारी” बताते हैं. उनके मुताबिक, भूमंडलीकरण, वित्तीय पूंजीवाद वगैरह के जरिए भीषण होड़ और निपट व्यक्तिवाद की नव-उदारवादी संस्कृति जैसे-जैसे अपने पांव पसार रही है, सामुदायिक संबंधों और सामाजिक सुरक्षा के सूत्र तथा मानवीय संबंध टूटते जा रहे हैं। इससे हिंसक और आत्महत्या की प्रवृत्तियों में भारी इजाफा हो रहा है और इसमें अधिक इजाफे की ही आशंका अधिक है।

अमूमन विरोध की सामाजिक और सामूहिक अभिव्यक्तियां अतिरेकी भावनाओं को जज्ब कर लेती हैं और लोगों को नाउम्मीद होकर अपराध या आत्महत्या की ओर प्रवृत्त होने से रोकती हैं। लेकिन अपने देश में ही नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद से राजनैतिक विरोध की अभिव्यक्तियों में भारी कमी आई है। मोटे तौर पर सभी राजनैतिक दल मौजूदा व्यवस्था को विकल्पहीन मानने लगे हैं। उनके पास दूसरी आर्थिक नीतियां नहीं रह गई हैं। दूसरी ओर इससे भयंकर गैर-बराबरी बढ़ी है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गई हैं। छोटे उद्योग-धंधे ठप होते जा रहे हैं।

लेकिन व्यवस्था से उपजते अन्याय के प्रति विरोध को आवाज मिलती भी है तो उसका कोई हल नहीं निकल पाता। किसान आंदोलन हुए भी तो कोई खास नतीजा नहीं निकला। शिक्षा महंगी और पहुंच के दायरे से बाहर होती जा रही है मगर ऐसे छात्र आंदोलन अब विरले ही होते हैं। ऐसे में विरोध का साधन यही बचता है कि आप अपराधी हो जाएं या अपनी जान दे दें। यह प्रवृत्ति  सामूहिक हत्याओं वाले फिदायीन हमलों में भी देखी जा सकती है और माओवादी हिंसा में भी।

बिफो अपनी किताब में लिखते हैं, “ऐसे लोग मौजूदा नारकीय व्यवस्था से निकलने और अपने हालात की ओर ध्यान खींचने का अपना तरीका निकाल लेते हैं।” बिफो इन्हें “आज के वित्तीय पूंजीवादी नकारवाद के दौर में प्रतिरोध के नायक मानते हैं।” उनके मुताबिक, “यह जानते हुए कि जीतना संभव नहीं है, विजयी होने का एहसास (कुछ पलों के लिए ही सही) का तरीका यही है कि अपनी जान दे दी जाए या दूसरों की जिंदगियां तबाह कर दी जाएं।”

हमारे देश में कई मंचों पर समाज में बढ़ते अलगाव के लिए तेजी से बढ़ते शहरीकरण को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्‍था में संकट के कारण शहरों की ओर पलायन बढ़ा है जहां अजनबीपन व्यक्ति को अकेला कर देता है। यह अकेलापन भी सामाजिक सुरक्षा के दायरे को घटाता जा रहा है। इस तरह विकास की जो असंतुलित धारा चल रही है, वह लोगों को अतिरेकी कदम उठाने पर मजबूर कर रही है। जाहिर है, मौजूदा व्यवस्था में सामाजिक सुरक्षा और विरोध की सामूहिक अभिव्यक्तियों के दायरे जितने संकुचित होते जाएंगे, अपराध और आत्महत्याओं में उतनी ही बढ़ोतरी की आशंका है।

 

आत्महत्या के देश में

संजीव

स्विट्जरलैंड में वन्दना...। इंटरलोकन से बासल तक की एक यात्रा के दरम्यान ट्रेन की कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से आल्‍प्स की पर्वत शृंखला पर नजर गड़ी हुई थी उसकी, कहीं हरा कोट तो कहीं काला, कत्‍थई रंग का ओवर कोट पहने आल्‍प्‍स। कहीं पहाड़ के सीने से फूटते झरने, तो कहीं सैलानियों को पहाड़ाें पर ले जाते फोनी कूलर, कितना सुंदर है आल्‍प्स, ऊपर चोटी बर्फ के ढकी हुई जैसे चांदी का मोर मुकुट हो। ऊपर से गिरते झरने, छोटे-छोटे नन्हे फूलों की घाटी। सब कुछ इतना मोहक था कि समय को जैसे पंख लग गये हों। वह खुलकर हंसी, पहली बार यह भी अहसास हुआ कि कितना जरूरी था उसके लिए खुलकर हंसना। वह सोचने लगी, क्यों नहीं हंस पाती वह अपने घर में, बासल में। इस खूबसूरत शहर इंटरलोकन की खूबसूरती ने उसे इतना स्वस्‍थ कर दिया था कि अब वह तनिक तटस्‍थ भाव से सोच सकती थी, भारत में मरते किसानों और स्विट्जरलैंड में बढ़ती आत्महत्याओं पर। स्विट्जरलैंड के बीच क्यों बीच-बीच में उभर आता है भारत?

इस अपूर्व खूबसूरती के बीच भी भला कोई सोचता है मौत के बारे में? नहीं, वह मौत के बारे में नहीं, जिंदगी के बारे में सोचेगी।

अब वह इस देश को आत्महत्या का देश कहती है। उसका भारतीय दोस्त संजीव इसे ‘खामोश परिन्दों’ का देश कहता है। भारत से आने के बाद यहां की इतनी गहरी खामोशी उसे भी अजीब लगती है, कई बार उसे डर भी लगता है इस खामोशी से। गहराती शाम के समय इंटरलोकन में तो लगता ही नहीं कि यहां लोग भी रहते हैं। लगता, जैसे यहां सिर्फ चमकती सड़कें, जगह-जगह झूलते फूल और बिना दुकानदारों की सजी दुकानें और छोटे-छोटे ढलुआ छतों वाले घर रहते हैं। यहां घर को लेकर भी लोगों के दिमाग में कैसी अजीब धारणा है। भारत में थी तो हर कोई उसे अपने घर में आमंत्रित करता, कितनी आत्मीयता है वहां, जबकि यहां स्विट्जरलैंड में घर बुलाना मतलब किसी को अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में दखल दिलाने जैसा।

अकेला घर और दीवारें जीवन की उदासी और मनहूसियत को कितना बढ़ा देती हैं। उसकी लैंड लेडी, नहीं-नहीं तो भी 90 के आसपास होगी। मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं पर होंठ रंगे हुए, चेहरा पुता हुआ, बाहर सब टिप-टॉप। यही विद्रूपता खासियत है इस देश की-मूल मन्‍त्र है यहां का-कमजोर नहीं दिखना। दुखी नहीं दिखना। असफल नहीं दिखना। एक अति में लुढ़कता जीवन!

अन्तस में सारी कालिमा छुपाये रखना। बाहर प्रसन्‍नता का प्रदर्शन!

स्विस बैंकों में पता नहीं किस-किस देश का छिपा होगा काला धन! मगर परसों जब जमायका की एक महिला बस में चढ़ी तो सारे लोग उतर गये। रेशियल डिस्क्रिमिनेशन या किसी को अपनी प्राइवेसी में दखल एलाउ न करना। बंद समाज! एक मुखौटे, एक बुरके में सिमटा समाज... दम नहीं घुटता होगा? नहीं? नहीं घुटता यह अकेलापन भी एक अति है। वह अकेलापन का कोई पर्यायवाची ढूंढ़ना चाहती है।

तनहाई!

उमड़ती भीड़ भी अकेला करती है। दमघोंटू निस्संगता। जब सन्नाटा अहरह दस्तक देते-देते थक जाए पर वह वज्र कपाट न खुले, न टूटे।

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यह दुनिया का ऐसा देश जहां आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। एक ऐसा देश जहां कानूनी रूप से दया मृत्यु मान्य है। एक ऐसा देश जहां पिछले 800 साल में कोई युद्ध नहीं हुआ, दूसरे विश्व युद्ध के समय यूरोप के लगभग सभी देशों पर बम गिरे पर स्विट्जरलैंड इससे अछूता रहा, अटकल है कि स्विस सरकार ने अनधिकृत तौर पर हिटलर को मदद भिजवायी थी।

बहरहाल, दुनिया के सबसे खूबसूरत और अमीर देश में आत्महत्या इतनी अधिक क्यों? जहां ईमानदारी मूल्य नहीं, लोगों की आदत है। जहां आज की तारीख में भी नियम लोकसभा में नहीं वरन रायशुमारी से बनते हैं। जहां के लोग इतने शांतिप्रिय और बंद हैं कि रात 10 बजे से सुबह छह बजे के बीच आप कोई हल्ला-गुल्ला नहीं कर सकते, यहां तक कि आपकी रसोई से कूकर की सीटी भी बजे और आपके पड़ोसी शिकायत करें तो पुलिस आपके घर आ आपको फाइन कर देगी। जहां परिवार लगभग नहीं है। विवाह आउटडेटेड है। ‘लिव इन’ प्रचलन में है। एक समय बाद ‘लिव इन’ भी टूट जाता है। हर व्यक्ति अकेला, कोई उसके अकेलेपन में खलल न डाले! कई बार यह भी देखा गया कि दो स्पाउज में कोई व्यक्ति भी मर गया तो दूसरा आत्महत्या कर लेता है।

परिवार सुख का सबसे बड़ा स्रोत होता है। अकेलापन आज वहां सबसे बड़ी समस्या है। लोग जब इसे झेल नहीं पाते हैं तो मर्सी किलिंग के लिए आवेदन देते हैं, कोर्ट के द्वारा आदेश मिल जाने पर आप ऐसी किसी भी संस्‍था में दाखिला ले सकते हैं। वे आपको मेनू देंगे कि किस प्रकार आप मरना पसंद करेंगे। यदि आपकी कोई च्वायस नहीं है तो वे आपको ड्रग देंगे, पहले आप तीन दिनों तक नहीं उठेंगे, वे फिर ड्रग की मात्रा बढ़ा देंगे, फिर आप सात दिन बाद नहीं उठेंगे, फिर एक समय ऐसा आएगा कि आप कभी भी नहीं उठेंगे।

(किसान आत्महत्या पर केंद्रित चर्चित उपन्यास फांस से साभार)

 

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