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ईज ऑफ डूइंग बिजनेस!

पीएनबी के 2011 से अभी तक के सभी चेयरमैन और ऑडिटरों को इसके लिए जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए? फिर, बैंकिंग सेक्टर का रेग्यूलेटर आरबीआइ इस जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है
मुंबई में पीएनबी की ब्रैडी हाउस ब्रांच

कारोबार करने की सहूलियत यानी ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सीखना हो तो पंजाब नेशनल बैंक से सीखना चाहिए, जिसने हीरा कारोबारी नीरव मोदी को ग्यारह हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का घोटाला करने का भरपूर मौका दिया। यह देश में बैंकिंग सेक्टर का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है। यह गजब की सहूलियत ही तो है जिसे जानकर नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक को चिट्ठी लिखी है कि बैंक ने जल्दबाजी में उसके कारोबार को ध्वस्त कर दिया और अब वह बैंक का कर्ज वापस करने की स्थिति में नहीं है। यहां नीरव मोदी एक हद तक तो सही है। उसने डायमंड ऑर्नामेंट्स का एक ग्लोबल ब्रांड बनाया, जिसके मुरीद बालीवुड और हालीवुड तक के सितारों से लेकर बड़े कॉपोरेट जगत के लोग भी रहे हैं। दुनिया के बड़े शहरों की हाई स्ट्रीट पर उसने शो-रूम खोले। उन सबकी कुछ तो कीमत होगी। ब्रांड की भी बड़ी वैल्यू होगी लेकिन यह भी सच है कि यह सब ओवर वैल्यूड भी होगा। यानी उसके कारोबार की वास्तविक कीमत बताई जा रही कीमत से काफी कम हो सकती है। असल में यह हमारे देश में कॉरपोरेट, बैंकिंग और सत्ता के गलियारों के गठजोड़ का लंबे समय से आजमाया हुआ फार्मूला है। कारोबारी अपने प्रोजेक्ट या उत्पाद की ऊंची कीमत दिखाकर बैंक से कर्ज लेते हैं। सरकारी बैंकों से लिया जाने वाला कर्ज इसमें ज्यादा होता है। इसके लिए राजनैतिक रिश्तों को भुनाया जाता है और उसके बदले में राजनीति करने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं क्योंकि राजनीतिक दलों को चलाने और चुनावों में जो खर्च होता है उसका अधिकांश हिस्सा अभी भी पारदर्शी नहीं है। इसका फायदा उठाकर कॉरपोरेट हित साधता है।

 लेकिन दिक्कत यह है कि जब पीएनबी जैसे घोटाले सामने आते हैं तो जनता जवाब भी राजनैतिक लोगों से ही मांगती है क्योंकि सरकार तो वही चलाते हैं। यही वजह है कि जैसे ही पीएनबी घोटाला खुला, देश की तमाम एजेंसियां नीरव के पीछे लग गई हैं। उसके शो-रूम और मैन्यूफैक्चरिंग इकाइयों पर छापे और जब्ती का सिलसिला चल रहा है। अचानक देश की हर बड़ी एजेंसी इनकम टैक्स, एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट, रेवेन्यू इंटेलीजेंस, सीबीआइ, सीवीसी और आरबीआइ ओवर एक्टिव हो गई। लगने लगा कि कितनी मुस्तैदी है और घोटाले में गए पैसे और नीरव मोदी तथा दूसरे गुनहगारों को जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा। यही क्यों, मीडिया भी बहुत मुस्तैद है। उसने बिना कुछ जांचे-परखे खुलासे के एक दिन बाद ही छापे और जब्ती में घोटाले की आधी रकम के बराबर हीरे-जवाहरात जब्त होने की खबर को बड़ी सुर्खी बना दी।

यह भला किसी भी समझदार आदमी के गले कैसे उतर सकता है कि सात साल से ज्यादा से जारी घोटाला केवल बैंक के अदने कर्मचारियों के चलते हो रहा था। बैंक में इंटरनल और एक्सटर्नल ऑडिट होता है। रिजर्व बैंक भी बैंकों से सारी जानकारी लेता है। सफाई दी जा रही है कि नीरव मोदी की कंपनी के लिए जारी हो रहे लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) को कोर बैंकिंग सिस्टम (सीबीएस) से बाहर रखा गया। इसके लिए बैंक की मुंबई स्थित ब्रैडी हाउस शाखा के कर्मचारी जिम्मेदार हैं। लेकिन, इतने बड़े पैमाने पर दी जा रही सुविधा क्या बैंक के बड़े अफसरों की जानकारी में ही नहीं थी? क्या अफसर इससे बेखबर थे कि नीरव मोदी के साथ उनके बैंक का बड़ा कारोबारी रिश्ता है? फिर, जिन बैंकों की विदेशी शाखाओं ने इन एलओयू के आधार पर पीएनबी के ‘नोस्‍ट्रो’ खाते में विदेशी मुद्रा का क्रेडिट दिया क्या उनका भी कोई ऑडिट नहीं होता है? स्विफ्ट व्यवस्था तो बहुत सुरक्षित और कारगर मानी जाती है। क्या यहां भी पीएनबी के बड़े अधिकारियों की कोई निगाह नहीं रहती? अगर ऐसा है तो फिर तो इससे बड़े घोटाले सामने आ सकते हैं।

जाहिर है, बैंक के बड़े अफसरों को पल्ला झाड़ने का उतना ही मौका मिलता रहा है जितना नीरव मोदी को, जो कह रहा है कि बैंक ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा इसलिए अब पैसा नहीं लौटा सकता है। घोटाला सामने आने के करीब एक सप्ताह बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली का सधा-सा बयान आया कि बैंक प्रबंधन और ऑडिटरों की लापरवाही के चलते यह घोटाला हुआ और हम उन्हें सबक सिखाएंगे। लेकिन बैंक प्रबंधन के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई मंत्रालय की ओर से नहीं हुई। 2011 से अभी तक के पीएनबी के सभी चेयरमैन और ऑडिटरों को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए?

फिर, बैंकिंग सेक्टर का रेग्यूलेटर आरबीआइ इस जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है। अभी भी बात केवल नीरव मोदी तक रुकती नहीं दिख रही है। उसके मामा मेहुल चौकसी की कंपनी गीतांजलि जेम्स का भी इसी तरह का घोटाला है तो रोटोमैक पैन बनाने वाली कानपुर की कंपनी में 3,600 करोड़ रुपये के लोन की हेराफेरी का मामला सामने आ रहा है।

सरकारी बैंक करीब आठ लाख करोड़ रुपये के एनपीए से जूझ रहे हैं। इन बैंकों की कर्ज देने की क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा देने वाली है। बड़े कॉरपोरेट के पास लाखों करोड़ डुबाने वाले ये बैंक आम ग्राहक के खाते में न्यूनतम बैलेंस न होने पर पेनाल्टी लगाकर सैकड़ों करोड़ कमा रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि सरकारी बैंकों के निजीकरण का राग अलापने वालों के दावे में भी दम नहीं है क्योंकि 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट निजी बैंकों के चलते ही आया था और उस समय देश का एक सबसे बड़ा निजी बैंक भी डूबने वाला था जिसे रातोरात सरकारी दखल से एक सरकारी बैंक के पैसे से बचाया गया था।

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