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मिथक ज्ञान मेघ

साहित्य अकादेमी सम्मान से नवाजे गए हैं परम विद्वान, सुकवि डॉ. रमेश कुंतल मेघ
डॉ. रमेश कुंतल मेघ

डॉ. रमेश कुंतल मेघ को 2017 का साहित्य अकादेमी सम्मान मिला है, जानकर परम प्रसन्नता हुई। इसलिए तो हुई ही कि वे परम विद्वान, सुकवि और सुधी आलोचक हैं, वे मेरे गुरुभाई और आत्मीय मित्र हैं इसलिए भी। मुझे उनका गहरा स्नेह मिला है। तब मैं बीएचयू से पीएचडी कर रहा था। गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी शांति निकेतन से बीएचयू आ गए थे। शैक्षिक साहित्यिक वातावरण में अद्‍भुत उल्लास था। उन्हीं दिनों मेघ जी इलाहाबाद से वाराणसी आ गए थे-गुरुदेव द्विवेदी जी के निर्देशन में पीएचडी करने के लिए। उनके बड़े-बड़े बालों की अद्‍भुत छटा थी। उन बालों से उनका कुंतल मेघ नाम सार्थक होता था। वे अपनी विद्वत्ता के कारण भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए थे।

मुझे वे लेखक बहुत अच्छे लगते हैं जो अपनी विद्वत्ता या उच्च सर्जनात्मकता में निरभिमान होते हैं। छोटे से छोटे लोगों को स्नेह से गले लगाते हैं और अपने लेखन में अपने द्वारा चित्रित मूल्यों को स्वयं जीने का प्रयास करते हैं। कुंतल मेघ जी में ये विशेषताएं दीप्त रही हैं अतः वे मुझे और तमाम लोगों को अपने लगते रहे हैं। वे प्रारंभ से ही मुझे अपना मानते रहे। उन्हीं के शब्दों में “रामदरश मिश्र ने ही सर्वप्रथम मुझे एक गोष्ठी में आमंत्रित किया था। मैंने ‘रुक जा मथुरा के खंभों की नग्न यक्षिणी’ पढ़ी जिस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। सरिता में मेरी एक प्रारंभिक रोमांटिक कविता छपी थी-‘जिस रात तुम्हारी आंखों का काजल गाढ़ा हो जाता उस रात गगन के हो जाते हैं काले सभी सितारे’ सो एक दिन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर पान की एक दुकान पर संध्यावार्ता के समय उन्होंने (रामदरश ने) कविता की यही पंक्ति सुनाकर मेरा उत्साह बढ़ाया।”

मैं 1956 में प्रवक्ता बनकर गुजरात चला गया और मेघ जी आए। कालांतर में जब द्विवेदी जी बीएचयू से चंडीगढ़ चले गए तब वे भी चंडीगढ़ आ गए। अहमदाबाद में मेरी नौकरी संकट में पड़ गई थी अतः गुरुदेव द्विवेदी जी से मिलने चंडीगढ़ गया था। वहां दो-तीन दिन रहा और महसूस किया कि भाई कुंतल मेघ मेरी परेशानी से चिंतित हो गए थे। उन दिनों उनका पूर्ववत स्नेह तो मिला ही, उन्होंने दिलासा भी दी और मेरे भविष्य के प्रति शुभकामनाएं बरसाईं।

मेरे प्रति उनका यह अपनत्व भाव लगातार सघन होता गया। 1964 में मैं दिल्ली आ गया और वे गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर चले गए थे। अब उन्हीं के शब्दों में सुनिए- “तब वे (रामदरश मिश्र) यदा-कदा विभाग के कामों से आते रहे। एक बार मेरा परिवार बाहर गया था। रामदरश आ गए। हम दोनों ने मिलकर अपने-अपने स्वपाकी होने के अभ्यास किए और सफल रहे। दोनों ने मिलकर संयुक्त पाक का भोग लगाया। उन्हीं में से एक दिन मेरा नया फ्रिज भी आ गया। तब तो हमलोगों ने जगन्नाथपुरी वाला आनंदोत्सव मनाया।” मुझे वह दिन भी याद आ रहा है जब डॉ. मेघ मेरे घर आए थे और उस समय परिवार गोरखपुर गया हुआ था तब मैंने खिचड़ी बनाई थी और प्रसन्न मन से उसका स्वाद लिया था। डॉ. मेघ उस खिचड़ी की भी प्रायः चर्चा करते हैं।

हां, डॉ. मेघ मुझे विश्वविद्यालय के काम से बुलाते रहे-कभी अमृतसर, कभी जालंधर। अमृतसर में उन्हीं के यहां ठहरता था और पूरे परिवार की गहरी आत्मीयता प्राप्त करता था। कह चुका हूं कि डॉ. मेघ बहुत विद्वान व्यक्ति हैं। साहित्य, सौंदर्यशास्‍त्र तथा अन्य कई ज्ञान-क्षेत्रों में उनकी गहरी पैठ है। सब पर जमकर लिखा है। इन संदर्भों में उनकी कई पुस्तकें हिंदी साहित्य की मूल्यवान निधि बन गई हैं। मैं तो अपने को बहुत सीमित ज्ञान का छात्र मानता हूं लेकिन डॉ. मेघ मुझे कभी यह एहसास नहीं कराते कि वे अधिक जानते हैं और मैं कम जानता हूं। उन्होंने आलोचना पर आधारित मेरे शोध प्रबंध की खूब प्रशंसा की है-बार-बार की है। हां, उन्हें अध्यापकीय जड़ता पर रूष्ट होते हुए कई बार देखा है। इसका एक विशेष अनुभव जालंधर में पीएचडी की एक मौखिकी (वाइवा) के समय किया। उन्होंने बाहर की प्रतिभाओं को भी विभाग में नियुक्त कराया। डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। शीतांशु जी से मेरा बहुत गहरा आत्मीय और पारिवारिक संबंध जुड़ा, इसका श्रेय भी डॉ. मेघ को ही जाता है। वे मार्क्सवादी हैं लेकिन खुले हुए मार्क्सवादी। उन्होंने एक ओर कुमार विकल तथा अन्य मार्क्सवादी लेखकों को सराहा तो दूसरी ओर अमार्क्सवादी लेखकों की उत्तम कृतियों की प्रशंसा की। उनके द्वारा संपादित पत्रिका अभिव्यक्ति में यह स्थिति देखी जा सकती है।

डॉ. मेघ बहुत स्वस्‍थ और सुंदर काया के स्वामी रहे हैं। उनकी शारीरिक मानसिक ऊर्जा दर्शनीय रही है। ईश्वर भी क्या-क्या करता रहता है उसने उनके पांव की लय आहत कर दी। अब वे छड़ी के सहारे चलते हैं। इधर बहुत दिनों बाद उनसे वाणी प्रकाशन में भेंट हो गई। तब साहित्य अकादेमी से सद्यः सम्मानित उनकी पुस्तक विश्व मिथक सरित सागर छप रही थी। मुझे कितना अच्छा लग रहा है कि उनकी इस महान पुस्तक के प्रकाशित होने के क्रम में उनसे भेंट हुई थी। यह पुस्तक साहित्य अकादेमी से सम्मानित हुई, यह तो बहुत अच्छी बात है लेकिन यह पुस्तक स्वयं में अपना सम्मान है। विश्व मिथक का अध्ययन और उस पर लेखन साधारण प्रतिभा और जीवट का काम नहीं है। इस पुस्तक से पहले उनकी जो महत्वपूर्ण कृतियां आई हैं उनमें से कुछ के नाम हैं-मिथक और स्वप्न, कामायनी की मनस्सौन्दर्य सामाजिक भूमिका, आधुनिक बोध और आधुनिकीकरण, मध्यकालीन रस-दर्शन और समकालीन सौन्दर्य बोध, तुलसी आधुनिक वातायन से, कलाशास्‍त्र और मध्यकालीन भाषिकी क्रांतियां, सौन्दर्य मूल्य और मूल्यांकन, क्योंकि समय एक शब्द है, अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा, साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक। डॉ. मेघ ने मिथक पर बहुत व्यापक और गहन विचार किया है। विश्व मिथक सरित सागर उनके मिथक-चिंतन की चरम परिणति है।

(लेखक मूर्धन्य कथाकार, कवि और आलोचक हैं)

 

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