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उभरे फिजा बदलने के संकेत

राजस्थान में उपचुनाव के नतीजों ने बढ़ाईं विपक्ष की उम्मीदें, हिंदुत्व कार्ड फेल होना भाजपा के लिए खतरे की घंटी
विजयपर्वः जीत का जश्न मनाते राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट

सतह पर कहीं कोई विरोध दिखाई नहीं देता था न विपक्ष बीते चार साल में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर पाया। मगर जब राजस्थान में दो लोकसभा सीटों अलवर और अजमेर तथा भीलवाड़ा में मांडलगढ़ विधानसभा सीट के उपचुनाव हुए तो सत्तारूढ़ भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। इन चुनावों में न हिंदुत्व और न ही संगठन कौशल भाजपा की कोई मदद कर पाया। इससे दिल्ली की चिंता बढ़ गई है। क्योंकि राजस्थान में लोकसभा की पचीस सीट है। इन चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मतदाता ने न केवल राज्य की सरकार के प्रति नाराजगी दिखाई है बल्कि केंद्र सरकार के प्रति भी यही भाव व्यक्त किया है।

इन चुनाव परिणामों ने विपक्ष में वक्त काट रही कांग्रेस में उत्साह का संचार कर दिया। भाजपा इन नतीजों से स्तब्ध है लेकिन बाकी किसी को भी इन नतीजों से हैरानी नहीं हुई। जानकारों के मुताबिक बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था की दुर्दशा, भ्रष्टाचार, विकास कार्यों की अनदेखी और सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के व्यवहार में अहंकार ने कांग्रेस की जीत का मार्ग सुगम कर दिया। राज्य भाजपा के प्रवक्ता मुकेश चेलावत कहते हैं, “हम हार के कारणों की समीक्षा कर रहे हैं। सरकार ने विकास में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अब हम विधानसभा चुनावों में मजबूती और नई तैयारी के साथ मैदान में उतरेंगे।”

भाजपा को अलवर में सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। अलवर में कांग्रेस के डॉ. करण सिंह यादव ने राज्य सरकार के मंत्री और भाजपा उम्मीदवार जसवंत यादव को एक लाख 96 हजार वोटों के अंतर से पटखनी दी। अलवर पर सबकी निगाहें थीं। अलवर भाजपा के मानचित्र पर हिंदुत्व की प्रयोगशाला के रूप में उभर रहा था। यह पूरा क्षेत्र पहलू खान की कथित हत्या और गोरक्षकों की गतिविधियों के कारण खासा चर्चा में रहा था। भाजपा ने सबसे ज्यादा जोर भी अलवर में ही लगाया था। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा प्रत्याशी जसवंत यादव ने हिंदुत्व के नाम से खुलकर वोट भी मांगे। मगर मतदाता ने भाजपा को खाली हाथ लौटा दिया। अलवर ऐसा लोकसभा क्षेत्र है जहां अन्य पिछड़ा वर्ग की सभी प्रमुख जातियां अच्छी तादाद में मौजूद हैं। इसके साथ ही मुसलमानों की मेव बिरादरी की मौजूदगी इस क्षेत्र को विशिष्ट बनाती है। अलवर में वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र भारद्वाज कहते हैं, “सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया कि लोग उसे वोट देते। जो विकास योजनाएं पिछली सरकार ने शुरू की थीं, उन्हें इस सरकार ने ठप कर दिया और नई कोई विकास योजना शुरू नहीं की। लोग सत्तारूढ़ दल के नेताओं के बर्ताव से भी खफा थे।”

मध्य राजस्थान के अजमेर लोकसभा क्षेत्र में भाजपा ने पूर्व मंत्री सांवरमल जाट के निधन पर सहानुभूति कार्ड का सहारा लिया और उनके पुत्र रामस्वरूप पर दांव खेला। मगर यहां भी कांग्रेस उम्मीदवार रघु शर्मा ने भाजपा को 84 हजार वोटों के रिकॉर्ड अंतर से हरा दिया। अजमेर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के लिए प्रतिष्ठा की सीट थी। वे इसमें कामयाब रहे। ऐसे ही भाजपा को अपनी मांडलगढ़ विधानसभा सीट भी खोनी पड़ी। यहां तिकोने मुकाबले में कांग्रेस के विवेक धाकड़ ने 18 हजार वोटों से जीत दर्ज की। मांडलगढ़ से कांग्रेस से बगावत कर चुनाव लड़े गोपाल मालवीय ने भी अच्छे वोट बटोरे। इसके बावजूद मांडलगढ़ में भाजपा अपने किले को ध्वस्त होने से नहीं बचा सकी।

सत्तारूढ़ भाजपा में प्रचार और रणनीति की कमान खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने हाथ में ले रखी थी। चुनाव की तारीखें घोषित होने से पहले ही राजे कई-कई बार इन क्षेत्रों में घूमीं और लोगों से रूबरू हुईं। मुख्यमंत्री के साथ पूरा लाव-लस्कर होता था और मौके पर लोगों के सुख-दुख सुन कर राहत देने का प्रयास किया गया। मगर लोगों ने इस पर भरोसा नहीं किया। वोट डालते समय लोगों ने पिछले चार साल के काम को ध्यान में रखा। मुख्यमंत्री ने अवाम से अपने रिश्तों की दुहाई दी और इसे भावनात्मक पुट देने का प्रयास किया। राजे ने अपने इस काम में एक नया प्रयोग किया। वे लोगों से जातिवार मिलीं। इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस पर निशाना साधा और कहा, “एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जातिवाद खत्म करने की बात करते हैं, दूसरी तरफ मुख्यमंत्री जनता से जातिवार मिल कर नई शुरुआत कर रही हैं।”

इन चुनावों में भाजपा की समस्या तब और बढ़ गई जब फिल्म पद्मावत को लेकर उसका पारंपरिक वोट बैंक राजपूत समाज विरोध का झंडा लेकर खड़ा हो गया। करणी सेना के अध्यक्ष महिपाल सिंह मकराना कहते हैं, “पहले चाहे रामराज्य परिषद हो या जनसंघ, हमने हमेशा उन्हें ही वोट दिए हैं। यह पहला मौका था जब राजपूत समाज ने कांग्रेस को वोट डाले। क्योंकि राजपूत समाज कुछ घटनाओं से आहत महसूस कर रहा था। सांस्कृतिक रूप से राजपूत समाज के निकट समझे जाने वाले रावणा राजपूत और चारण समाज भी भाजपा से दूर रहा। शुरू में भाजपा को अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के मुकाबले इन सीटों पर जीत आसान लग रही थी। क्योंकि अलवर से कांग्रेस नेता भंवर जितेंद्र और अजमेर से पायलट ने खुद चुनाव लड़ने में रुचि नहीं दिखाई।” इस पर राज्य भाजपा के प्रभारी अविनाश खन्ना ने तुरंत कहा, “कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व मैदान छोड़ भागा। मगर परिणाम आए तो भाजपा अवाक् रह गई।” कांग्रेस ने इन चुनावों में नेतृत्व की सामूहिकता का प्रदर्शन किया। अपने प्रत्याशियों का पर्चा दाखिल कराने के लिए पायलट, गहलोत और सीपी जोशी एक साथ दिखाई दिए और अभियान में भाग लिया। मांडलगढ़ में जब विद्रोही उम्मीदवार की मौजूदगी से कांग्रेस कमजोर पड़ती दिखी, गहलोत ने वहां ज्यादा वक्त दिया। इन परिणामों पर गहलोत कहते हैं, “दरअसल इसकी शुरुआत गुजरात से ही हो गई थी। यह गुजरात में बनी फिजा का ही विस्तार है।” पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं, “भाजपा को 163 सीटों का बहुमत मिला था। मगर कांग्रेस राज की सारी योजनाओं को या तो ठप कर दिया या उनका हुलिया बिगाड़ दिया। वो चाहे मुफ्त दवा योजना हो या मेट्रो रेल।” पायलट कहते हैं कि सरकार के विरुद्ध जबरदस्त रुझान है।

चुनाव के वक्त ही बाड़मेर में प्रधानमंत्री मोदी ने आयल रिफायनरी के कार्य शुभारंभ समारोह में शिरकत की और मुख्यमंत्री के कामकाज की सराहना की। मगर इससे भाजपा को कोई मदद नहीं मिली। उलटे मोदी के संबोधन में उल्लेखित नामों पर राजपूत और प्रभावशाली जाट समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हुई। मोदी ने अपने भाषण में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत  सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत भैरों सिंह शेखावत को याद किया। मगर राजपूत समाज के नेताओं ने कहा, “जसवंत सिंह का टिकट काट दिया गया और शेखावत की पत्नी पर सरकारी मकान खाली कराने के लिए दबाव डाला गया, ऐसे में अब उनको याद करने का क्या औचित्य है।” जाट समाज के लोगों को पीड़ा थी कि प्रधानमंत्री ने उनके समाज की किसी विभूति का नाम नहीं लिया।

विश्लेषक ईश मधु तलवार कहते हैं, “हार के कारण बहुत साफ हैं। सरकार के हक में कोई भी बात उभर कर सामने नहीं आती है। रोजगार मांग रही युवा पीढ़ी बहुत मायूसी में है। जबकि इस सरकार ने बहुत वादे किए थे। जयपुर में सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है, जनता से संवाद टूटा हुआ है। लोगों की फरियाद नहीं सुनी जा रही है। भाजपा अपने कामों से खुद ही हारी है। इसमें विपक्ष का भी कोई योगदान नहीं है।” कुछ प्रेक्षक कहते हैं कि चिकित्सा, शिक्षा और पर्यटन में बढ़ते निजीकरण ने कर्मचारी वर्ग को नाराज कर दिया। कहां तो पिछली सरकार ने मुफ्त दवा योजना शुरू की थी। कहां अब स्वास्थ्य केद्रों को पीपीपी मॉडल पर निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।

प्रेक्षक कहते हैं कि जिस प्रचंड बहुमत से भाजपा सत्ता में आई थी, उसके लिए काम करने के लिए खुला मैदान था। क्योंकि विपक्ष कोई प्रभावी भूमिका में नहीं था और मीडिया के बड़े हिस्से ने सरकार के प्रति पूरे समय सकारात्मक रवैया रखा। केंद्र की मोदी सरकार के राज्य सरकार को पूरे समर्थन के बावजूद यहां भाजपा ने यह अवसर गंवा दिया। उप चुनावों में जीत से खुश कांग्रेस को अब लग रहा है कि उसका राजतिलक कोई नहीं रोक सकता। मगर उप चुनावों में शानदार जीत से कांग्रेस में आंतरिक संघर्ष तेज होने के आसार बढ़े हैं क्योंकि जब जीत आसान हो तो कुर्सी के दावेदारों की हसरतें बढ़ना स्वाभिक है। यह चुनाव परिणामों में श्रेय की होड़ में साफ दिखता है।

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