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ग्लैमर नहीं, अब अदाकारी दिखाओ

हाल के दौर में बेहद आम चेहरे-मोहरे वाली हीरोइन की सफलता ने बदला बॉलीवुड का नजारा, सितारों की पांत में पहुंची नई जमात
अभिनय की छापः भूमि पेडणेकर के साथ आयुष्मान खुराना

आजकल बालीवुड में भूमि पेडणेकर के जलवे आसमान पर हैं। लगातार तीन हिट फिल्मों से उनकी चर्चा हर ओर है। 28 साल की इस मुंबईकर बाला ने दो साल पहले दम लगा के हइशा में पहली बार फिल्मों में कदम रखते ही अपनी अदाकारी से सभी प्रमुख पुरस्कार झटक लिए और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पिछले साल अपनी अगली दो फिल्मों टायलेटः एक प्रेम कथा और शुभ मंगल सावधान से तो वे पहली पांत की हीरोइनों में शुमार हो गई हैं। भूमि की यह कामयाबी एक मायने में उन ‘आम औरत’ की स्‍थापना का भी संकेत है, जिनकी जमात हाल के दौर में अचानक मायानगरी की चमकदमक की दुनिया में अपना दबदबा कायम करती दिखती है। खूबसूरती और सेक्‍स अपील की तलाश में रहने वाले फिल्मोद्योग में इस जमात के पास वह चेहरा नहीं है, जिससे बीच सड़क में ट्राफिक जाम लग जाए, लेकिन इनमें गजब की प्रतिभा है। ये बेहद सामान्य पृष्ठभूमि से उभर कर आई हैं और अपनी अदाकारी की प्रतिभा के बूते बॉलीवुड की ग्लैमर वाली हीरोइनों को टक्कर दे रही हैं। यानी अब बॉलीवुड में अदाकरी का जलवा जमता जा रहा है।

भूमि ने अपनी पहली फिल्म में एक मोटी गृहिणी का रोल किया और अगली फिल्म में वे सामान्य लड़की की भूमिका निभाती नजर आईं। वे उन सक्षम युवा अभिनेत्रियों में शामिल हैं जो व्यावसायिक और समानांतर फिल्मों में एक समान अपनी छाप छोड़ती हैं और इससे जरा भर विचलित नहीं होतीं कि वे मुख्यधारा की ग्लैमरस हीरोइनों जैसी नहीं हैं। भूमि, राधिका आप्टे, कल्कि केकलां, ऋचा चड्ढा और हुमा कुरैशी जैसी हीरोइनें अपने-अपने तरीके से सुंदर हैं। इनकी कामयाबियों ने साबित किया है कि सिर्फ ग्लैमर ही काफी नहीं है।

अक्षय कुमार के साथ पैडमैन में काम करने वाली आप्टे की इस साल पांच फिल्में रिलीज होने वाली हैं। 32 साल की इस हीरोइन ने पार्च्ड (2015), मांझीः द माउंटेनमैन (2015) और रजनीकांत के साथ कबाली (2016) में जानदार अभिनय से अपनी जगह बना ली है। सिनेमा का यह नया दौर अंजलि पाटिल (न्यूटन / 2017), बिदिता बेग (बाबू मोशाय बंदूकबाज / 2017) और जोया हुसैन (मुक्काबाज / 2018) जैसी हीरोइनों के आगमन का गवाह बना।

वैसे, इनकी कामयाबी का श्रेय दर्शकों के तेजी से बदलते रुझान और नई समझ और संवेदना वाले दर्शकों की आमद को भी दिया जा सकता है। नामी निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी का मानना है कि दर्शकों के लिए एक्टर की जगह कैरेक्टर ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। वे कहती हैं, “जब दर्शकों को कहानी में रमने को प्रेरित किया जाता है और पात्र उनकी दुनिया से संबंधित हो तो ग्लैमर का हिस्सा महत्वपूर्ण नहीं रह जाता।”

बिदिता बेग

स्वरा भास्कर अभिनीत निल बटे सन्नाटा (2016) से प्रभावशाली शुरुआत करने के बाद और फिर साधारण-सी दिखने वाली कृति सेनन को लेकर बरेली की बरफी (2017) जैसी हिट फिल्म बनाने वाली अय्यर तिवारी मानती हैं कि कहानी ही सब कुछ है। वे कहती हैं, “कहानी अभिनय करने वालों से क्या मांग करती है? अगर कहानी वास्तविक जीवन से जुड़ी हो तो अभिनय करने वाला ग्लैमरस नहीं हो सकता। इंटरनेट के युग में दर्शकों के सामने अच्छी फिल्मों का भंडार है। ऐसे में हम सिने प्रेमियों की संवेदनशीलता को हल्के में नहीं ले सकते।”

ट्रेड विशेषज्ञ और कंप्लीट सिनेमा के संपादक अतुल मोहन का मानना है कि सदी का दर्शक गेम चेंजर है। वे कहते हैं, “आज का दर्शक परदे पर बनावटीपन को बिलकुल पचा नहीं पाता है। वह दौर अब जा चुका है जब कहानी तय होने से पहले ही किसी बड़े स्टार को साइन कर लिया जाता था। अब, कहानी पहले तय की जाती है और हर रोल के लिए दो से तीन एक्टर पर विचार किया जाता है।”

कल्कि केकलां को लेकर पिछले साल रिबन बनाने वाली राखी शांडिल्य का भी यही मानना है। वे कहती हैं, “अब असली बदलाव आया है। अगर कोई एक्टर फिट नहीं है तो उसे रोल नहीं मिलेगा।” शांडिल्य दावा करती हैं, “तथाकथित ग्लैमरहीन हीरोइनें आज सफल हो रही हैं क्योंकि वे नए सिनेमा को अपनी लुक और एक्टिंग के प्रति संवेदनशीलता से मजबूती दे रही हैं। रोल के प्रति अपनी समझ की वजह से ताजगी और अंतर ला रही हैं। यही वजह है कि दर्शक बार्बी डॉल सरीखी अल्ट्रा ग्लैमरस हीरोइनों की तुलना में उनसे ज्यादा जुड़ रहे हैं।” शांडिल्य ने बताया कि उन्होंने रिबन के लिए कल्कि को केवल इसलिए चुना क्योंकि वह इस रोल के लिए उपयुक्त थी। वे कहती हैं, “मेरे कैरेक्टर की मांग ऐसी महिला की थी जो एक साथ मजबूत और कमजोर दोनों पक्षों को दिखा सके।”

लेकिन क्या इसका मतलब यह हुआ कि कैरेक्टर पूरी तरह सितारों पर भारी पड़ गया है? स्वरा भास्कर को लेकर अनारकली ऑफ आरा (2017) से निर्देशन की दुनिया में कदम रखने वाले अविनाश दास का मानना है कि फिल्म उद्योग ने सिनेमा में खूबसूरती की परंपरागत सोच को ठुकरा दिया है। वे कहते हैं, “अब, कहानी की खूबसूरती केवल कैरेक्टर की खूबसूरती से जुड़ी हुई है। एक समय था जब परदे पर सुंदरता का पैमाना कुछ और था। हमारे लिए मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन सभी सुंदर थीं। वैश्वीकरण के बाद के युग में बनावटी ‘ब्यूटी बूम’ के कारण अवधारणा बदल गई। यह मिस यूनिवर्स से शुरू हुआ और देश के सबसे छोटे शहरों तक पहुंचा जिसे 1990 के दशक में सिनेमा ने अच्छे से भुनाया। लेकिन डिजिटल युग में जिस तरह की फिल्में बनेंगी वही तय करेगा कि इसमें कैसे एक्टर काम करेंगे।”

आम चेहरे-मोहरे वाली हीरोइनों का व्यावसायिक फिल्मों में आना नया नहीं है। 1980 के दशक में शबाना आजमी और स्मिता पाटिल ने अमिताभ बच्चन और फारुख शेख के साथ काम किया। नई सदी में विद्या बालन और कंगना रणौत के आने से ऐसी हीरोइनों की पहचान बढ़ी। इन दोनों ने डर्टी पिक्चर (2011), कहानी (2012), क्वीन (2014) और तनु वेड्स मनु (2011) जैसी फिल्मों में लीड रोल किया।

फिल्म लेखक विनोद अनुपम इसे मौलिक बदलाव के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं, “एनआरआइ आधारित कहानियों की जगह पिछले कुछ साल से बरेली, पटना, आरा और रांची जैसे छोटे शहरों के इर्द-गिर्द की कहानियों का चलन बढ़ा है। इन जगहों की कहानी में भला वे दीपिका पादुकोण को कैसे दिखाएंगे? तमिलनाडु के छोटे शहर के पैडमैन की पत्नी की किरदार के लिए राधिका आप्टे जैसी ही सही रहेंगी, दीपिका नहीं।” 

अवार्ड विजेता लेखक मानते हैं कि मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति बढ़ने से भी सिनेमा को बढ़ावा मिला है। सिनेमा देखने वालों का यह वर्ग यथार्थवादी कैरेक्टर को देखना चाहता है। विनोद अनुपम कहते हैं, “मध्यम वर्ग छोटे शहरों तक के मल्टीप्लेक्स में 250 रुपये खर्च करने में पीछे नहीं रहता। अब सुभाष घई बिहार के लिए फिल्म बनाने से इनकार नहीं कर सकते क्योंकि छोटे शहर भी आसानी से दस

करोड़ रुपये तक का रिटर्न दे रहे हैं। और जब इस तरह का बाजार उभरा है तो फिल्म निर्माताओं को दर्शकों की भावना और संवेदनशीलता को समझना और पूरा करना होगा।”

 

 

राधिका आप्टे


“मुख्यधारा सिनेमा भी अब यकीनन प्रयोग कर रहा”

राधिका आप्टे ने अपनी हर नई फिल्म और नए रोल से दर्शकों को चौंकाया है। छोटी फिल्मों से लेकर रजनीकांत के साथ व्यावसायिक सिनेमा में काम किया। प्राची पिंगले-प्लंबर ने उनसे उनकी पंसद और अब तक की यात्रा पर बातचीत की।

 -आपने कुछ साल में काफी विविधता वाली फिल्मों में काम किया है, इन प्रोजेक्ट को चुनने में निर्णायक फैक्टर क्या होता है?

हर प्रोजेक्ट में यह एक जैसा नहीं होता है। हर के लिए फैक्टर बदलते रहते हैं। हर प्रोजेक्ट पर अलग चीजें लागू होती हैं। कभी ऐसे लोग भी होते हैं जिनके साथ आप काम करना चाहते हैं। कभी स्क्रिप्ट अच्छी होती है या रोल बहुत रोमांचक होता है। और कभी प्रोडक्शन हाउस बहुत अच्छा होता है। व्यावसायिक व्यावहारिकता, आर्थिक पहलू...ये सभी विचार वहां रहते हैं। अगर ये रोमांचित करते हैं या चुनौती देते हैं तो मैं उन्हें स्वीकार करती हूं।

-आपकी फिल्म पैडमैन एक इनोवेटर-एक्टिविस्ट के बारे में है, जिसकी भूमिका अक्षय कुमार ने निभाई है। क्या आप महसूस करती हैं कि मुख्यधारा का सिनेमा विषयों के साथ तेजी से प्रयोग कर रहा है?

हां, निश्चित रूप से। मैं यह नहीं जानती कि मार्केट कैसे काम करता है पर ऐसा निश्चित रूप से हो रहा है। लोग एक ही तरह की कहानी से ऊब चुके हैं। वे एक ही कहानी को बार-बार देखना पसंद नहीं करते...सभी लोग बदलाव का स्वागत करते हैं। पैडमैन पूरी तरह से मनोरंजन करने वाला है और इसका कंटेंट भी बहुत अच्छा है। इसमें कुछ संवेदनशील कंटेंट भी है जिसे बौद्धिक और मनोरंजक ढंग से रखा गया है।

-डिजिटल प्लेटफॉर्म को अगले बड़े उभार के रूप में देखा जा रहा है। इस माध्यम के बारे में आप क्या सोचती हैं?

मैंने काफी डिजिटल फिल्में देखी हैं। यह हाल के दिनों में हुई बड़ी चीजों में से एक है। लेकिन मैं बड़े स्क्रीन पर फिल्में देखना भी पसंद करती हूं। चीजों में बदलाव इस आधार पर होता है कि आप जिस स्क्रीन पर काम रहे हैं वह छोटा है या बड़ा। कुछ चीजें छोटे स्क्रीन के लिए नहीं बनाई गई हैं, ऐसे में कुछ बदलाव तो निश्चित रूप से होगा। मुझे दोनों में काम करने में मजा आता है।

-भारतीय सिनेमा ने काफी ऊंचाई हासिल कर ली है पर छोटे बजट के कारण डिस्‍ट्रीब्यूशन  में चुनौतियां हैं। क्या आप इसकी चिंता करती हैं कि आपकी फिल्में लोगों तक पहुंच पाएंगी?

नहीं, मैं इसकी चिंता नहीं करती क्योंकि मेरा काम तभी खत्म हो जाता है जब फिल्म की शूटिंग पूरी हो जाती है। लेकिन मैं नि‌श्चित रूप से यह चाहती हूं कि यह लोगों तक पहुंचे क्योंकि अगर यह अच्छा काम है तो इसे लोगों तक पहुंचना चाहिए। इस मायने में डिजिटल प्लेटफॉर्म वास्तव में अच्छा काम कर रहा है क्योंकि किसी ऑफबीट फिल्म के लिए सिनेमाघरों तक अधिक दर्शकों को आक‌र्षित करना थोड़ा मुश्किल है।

-इस साल आपकी पांच फिल्में आने वाली हैं। क्या आप रोमांचित हैं?

प्रोमोशन के लिए तो रोमांचित नहीं हूं लेकिन इस बात से खुश हूं कि ये फिल्में आ रही हैं।

-आपको कौन-सी बात प्रेरणा देती है, जिससे आप आगे बढ़ती हैं?

अलग तरह के कार्यक्रम, नाटक, फिल्म, कला प्रेरणा देते हैं। इसके बाद अपने आसपास प्रतिभाशाली, रचनात्मक और कठिन मेहनत करने वाले लोगों से प्रेरणा मिलती है। सेट पर कुछ नया करने, सीखने और कुछ तैयार करने से भी मुझे प्रेरणा मिलती है।

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