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आखिरी कलाम की गूंज-अनुगूंज

दूधनाथ सिंह के विदा होने से कुछ और सूनी हो गई साहित्य की दुनिया पर बहुत अरसे तक दिलो-दिमाग में बसी रहेगी उनकी आवाज की अनुगूंज, सालती रहेगी अनुपस्थिति
दूधनाथ सिंहः अक्टूबर 1936-जनवरी 2018

दूधनाथ सिंह से पहला परिचय तब हुआ जब किशोरावस्था के उत्तरार्ध में मैंने उनकी रचनाएं पढ़नी शुरू कीं। आज भी एक कविता पंक्ति दिमाग में कौंधती रहती है हालांकि याद नहीं कि यह उनकी किस कविता में थी---‘लिफ्ट के अंधेरे में ब्रेन हैमरेज हो रहे हैं।’ तारीफ करने में कंजूस उपेंद्रनाथ अश्क उन्हें उनकी पीढ़ी का सर्वाधिक प्रतिभाशाली लेखक यूं ही नहीं मानते थे। 1973-74 में उनसे मुलाकात भी हो गई और मुलाकातों का यह सिलसिला पिछले साल तक चला जब अचानक इलाहाबाद के कॉफी हाउस में वे मिल गए। इन मुलाकातों के बीच लंबा अंतराल होने के बावजूद उनकी गर्मजोशी, आत्मीयता और स्नेह में कोई कमी नहीं आई। उनके बारे में अनेक लोगों की अनेक किस्म की राय होगी, लेकिन मैंने उन्हें हमेशा आम जन के पक्ष में खड़े लेखक के रूप में पाया-जीवन में भी और लेखन में भी। यह अकारण ही नहीं है कि इलाहाबाद में उनकी अंतिम यात्रा में समाज के विभिन्न तबकों से जुड़े हजारों लोगों ने भाग लिया।

दूधनाथ सिंह ने विभिन्न तेवरों के साथ बहुत-सी कविताएं लिखीं। लोहियावादी साहित्यकार श्रीकांत वर्मा को लक्ष्य करके लिखी गई उनकी कविता ‘कृष्णकांत की दिल्ली यात्रा’, जो शायद ‘उत्तरार्द्ध’ में इमरजेंसी के आस-पास छपी थी, आज भी मुझे याद है। लेकिन उनकी साहित्यिक छवि एक कथाकार के रूप में ही बनी और उन्हें प्रसिद्धि भी मुख्यतः अपनी कहानियों और उपन्यासों के आधार पर ही मिली। 1967 में राजेंद्र यादव के अक्षर प्रकाशन से उनका कहानी संग्रह सपाट चेहरे वाला आदमी प्रकाशित हुआ और हिंदी जगत ने चौंक कर इस नई प्रतिभा के विस्फोट को देखा। इस संग्रह की अधिकांश कहानियां-रीछ, रक्तपात, आइसबर्ग, प्रतिशोध और सपाट चेहरे वाला आदमी-आज भी पढ़ने पर झकझोर देती हैं।

संग्रह प्रकाशित होने के कुछ ही महीने बाद दूधनाथ सिंह के समवयस्क कहानीकार और बाद में आलोचक के रूप में भी प्रचुर ख्याति प्राप्त करने वाले विजयमोहन सिंह ने इसकी समीक्षा लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘सामयिकता की रूढ़ियों से अलग’। उनका सुचिंतित आकलन था कि “दूधनाथ एक सीमा तक ऐसे संस्कारशील कहानीकार हैं जिन्होंने कहानी में ‘कहानीपन’ की परंपरा को बड़ी सतर्कता, कौशल और कारीगरी के साथ ग्रहण किया है।....यह दूधनाथ की विशेषता ही कही जाएगी कि पुराने-सड़े प्रतीकों को, जिन्हें सामयिकता बेजान और बेकार समझकर घूरे पर डाल चुकी है, वे उठा लेते हैं और उन्हें जानदार-चमकदार बना देते हैं-आज के ‘संदर्भो’ से पूरी तरह जोड़ते हुए।” जिस विशेषता को विजयमोहन सिंह ने 1967 में रेखांकित किया था, वह अंत तक दूधनाथ सिंह के लेखन से जुड़ी रही और वे निरंतर सामयिकता को पुनर्परिभाषित करते हुए प्रासंगिक बने रहे। 

1960 के दशक के शुरुआती वर्षों में ही स्पष्ट होने लगा था कि ‘नई कहानी’ अपना प्रभाव खोती जा रही है। देवीशंकर अवस्थी जैसे पैनी नजर वाले आलोचक उसमें कुछ ‘नया’ नहीं देख पा रहे थे और एक तरह के ‘बासीपन’ का एहसास करने लगे थे। इसी समय नवोदित कहानीकारों ने अपनी कहानी को ‘साठोत्तरी’ का नाम दिया और महेंद्र भल्ला, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया और विजयमोहन सिंह इसके प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में स्वीकृत हुए। जहां ‘नई कहानी’ की भाषा अनुभवों से अलग किसी चमत्कार या अलंकार की तरह थी, वहीं ‘साठोत्तरी कहानी’ के कहानीकारों ने बिलकुल नई किस्म की निजी कथा-भाषा निर्मित की जिसमें अनुभव ही पारदर्शी होकर भाषा के रूप में ढल रहे थे। इन सभी कहानीकारों की एक विशेषता यह भी थी कि न केवल सबका कथ्य अलग था, बल्कि उसे कहानी में रूपांतरित करने वाली भाषा भी अलग-अलग थी। यही कारण था कि यह कथा-प्रवृत्ति वास्तविक अर्थों में पाठकों को नएपन का एहसास करा सकी। 1972 में लोकभारती प्रकाशन ने उनकी आलोचना पुस्तक निराला: आत्महंता आस्था प्रकाशित की और इसी के साथ दूधनाथ सिंह एक आलोचक के रूप में भी स्थापित हो गए। यह पुस्तक भी आलोचना की सामयिक रूढ़ियां तोड़ने वाली थी और प्रचलित अकादमिक आलोचना से एकदम अलग तरह की आलोचना प्रस्तुत करती थी। यह मूलतः एक लेखक का अपने-से वरिष्ठ लेखक के साथ आत्मीय संवाद था और उस प्रक्रिया का उद्‍घाटन था जिससे एक लेखक दूसरे लेखक को समझने के क्रम में गुजरता है।

कहीं लोगों को यह गलतफहमी न हो जाए कि उन्होंने निराला को ‘आत्महंता’ बता दिया है, इसलिए दूधनाथ सिंह ने पुस्तक की प्रस्तावना में स्पष्ट किया कि उन्होंने निराला को किस अर्थ में आत्महंता कहा है: “कला-रचना के प्रति यह अनंत आस्था एक प्रकार के आत्महनन का पर्याय होती है, जिससे किसी मौलिक रचनाकार की मुक्ति नहीं है। जो जितना ही अपने को खाता जाता है-बाहर उतना ही रचता जाता है। लेकिन दुनियावी तौर पर वह धीरे-धीरे विनष्ट, समाप्त, तिरोहित तो होता ही चलता है। महान और मौलिक सर्जना के लिए आत्म-बलि शायद अनिवार्य है। इन्हीं अर्थों में मैंने निराला के सम्पूर्ण रचना-जीवन को ‘आत्महंता आस्था’ की संज्ञा दी है।” इन वर्षों के भीतर दूधनाथ सिंह की राजनीतिक चेतना में भी लगातार विकास हो रहा था और वे लगभग मार्क्सवादी बन गए थे। उन्होंने अपना पक्ष चुन लिया था और वह था समाज के वंचितों, दबे-कुचले लोगों, मजदूर-किसानों के हितों के लिए संघर्ष करने का पक्ष। 1975 में जब देश की राजनीति में निर्याणक मोड़ आ रहा था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हर प्रकार के विरोध को दबाने पर तुली थीं, दूधनाथ सिंह ने एक अनियतकालीन पत्रिका का संपादन शुरू किया और उसका बेहद सार्थक नाम रखा ‘पक्षधर’। इस तरह की प्रतिबद्ध पत्रिकाओं में से कुछेक को ही दीर्घ जीवन का सुख मिलता है। अधिकांश कुछ समय बाद बंद हो जाती हैं। इस पत्रिका के साथ भी ऐसा ही हुआ लेकिन इसने दूधनाथ सिंह का पक्ष पूरी तरह से निर्धारित कर दिया। अंतिम सांस तक वे इस पक्ष पर डटे रहे और उनकी पक्षधरता ने उनके हजारों साहित्यिक-गैर साहित्यिक प्रशंसक पैदा किए। अभी तीन साल पहले राजकमल प्रकाशन से उनकी 71 प्रेम कविताओं का संकलन तुम्हारे लिए प्रकाशित हुआ और उनके पाठकों को आश्वस्ति हुई कि कथाकार के भीतर छुपा कवि अभी भी सक्रिय है और जीवन के प्रति उसकी तीव्र आसक्ति एवं प्रेम की लालसा कम नहीं हुई है। उनके तीन उपन्यास नमो अंधकारम, निष्कासन और आखिरी कलाम, नाटक यमगाथा तथा कहानी संग्रह माई का शोकगीत पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए हैं। आखिरी कलाम 1990 के दशक के बाद विकसित हुई राजनीति पर एक रचनाकार की प्रतिक्रिया है और इसमें बाबरी मस्जिद का ध्वंस, कारसेवकों की कारगुजारियों आदि का भरपूर  इस्तेमाल किया गया है।

सुधी आलोचकों ने इसे “एक ऐतिहासिक दुःस्वप्न का रचनात्मक रूपांतरण” बताया है। मुझे दूधनाथ सिंह के संस्मरणों ने विशेष रूप से प्रभावित किया है। उनकी अधिकांश पुस्तकें लोकभारती, राधाकृष्ण और राजकमल प्रकाशन से छपी हैं और संस्मरणों की यह किताब लौट आ, ओ धार राधाकृष्ण ने प्रकाशित की है। आज जब गुरुओं का प्रशस्तिगान या मूर्तिभंजन संस्मरणों का स्थायी भाव बन गया था, तब इन्हें पढ़ना एक बेहद प्रीतिकर अनुभव है। अपने गुरु धीरेंद्र वर्मा का और महाकवि सुमित्रानंदन पंत का जैसा अविस्मरणीय चित्र दूधनाथ सिंह ने इन संस्मरणों में उकेरा है, वैसा बहुत कम देखने में आता है। गुरु के प्रति पूरा आदर-सम्मान होते हुए भी नितांत तटस्थ और निर्लिप्त भाव से सभी खूबियों-कमजोरियों के साथ उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को सामने लाने के दुस्साध्य काम को सफलतापूर्वक अंजाम देना उन्हीं के बस की बात थी। धीरेंद्र वर्मा वाले संस्मरण से ही मुझे पता चला कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में ‘हिंदी-उर्दू साहित्य का इतिहास’ भी पढ़ाया जाता था। इस पुस्तक में शमशेर, नागार्जुन, भुवनेश्वर, वाचस्पति पाठक, ज्ञानरंजन सभी से भेंट होती है। दूधनाथ सिंह ने भुवनेश्वर समग्र का संपादन भी किया है। इन संस्मरणों में भी उनका आलोचक शांत नहीं बैठा है। केवल दूधनाथ सिंह ही ज्ञानरंजन और सुमित्रानंदन पंत की रचना प्रक्रिया में ‘अनेक समानताएं’ देख सकते थे। दूधनाथ सिंह के हम से हमेशा के लिए जुदा होने से आम आदमी के हक में उठने वाली एक और आवाज छिन गई है। क्योंकि यह आवाज किसी राजनीतिक नेता की नहीं बल्कि एक ऊंचे दर्जे के साहित्यकार की थी, इसलिए उसकी अनुपस्थिति बहुत लंबे समय तक महसूस की जाती रहेगी। साहित्य की दुनिया कुछ और सूनी हो गई है। अंधेरा कुछ और कालापन लिए है। लेकिन उनकी आवाज की अनुगूंज बहुत अरसे तक हमारे दिलो-दिमाग में बसी रहेगी।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं) 

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