Advertisement

आधार की उलटबांसी

जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो माना गया कि वह भ्रष्टाचार और शिकायतों के निपटारे के लिए एक मजबूत योजना बनाएगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ
सवाल : सरकारी योजनाओं के लिए आधार है अनिवार्य

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सात फरवरी, 2017 को संसद में एक बयान दिया कि ढाई साल में उनकी सरकार ने 3.95 करोड़ यानी लगभग चार करोड़ फर्जी राशन कार्ड का पता लगाया और इसकी वजह से 14,000 करोड़ रुपये की बचत हुई। हालांकि, प्रधानमंत्री ने उन ‘फर्जी’ कार्डधारकों की जानकारी नहीं दी। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में एक आरटीआइ आवेदन दाखिल कर राज्यवार फर्जी कार्ड का ब्योरा मांगा गया और इन कार्डधारकों के नाम से पता चला कि प्रधानमंत्री के दावे को पुख्ता करने के लिए कोई सबूत नहीं था।

यह अकेला मामला नहीं था। इसी तरह, आधार की वजह से मनरेगा के फर्जी जॉब कार्ड पकड़ में आने की बात में दम नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार के अधिकारियों ने दावा किया था कि आधार की मदद से एक करोड़ ‘फर्जी’ जॉब कार्ड पाए गए। एक आरटीआइ आवेदन के जवाब से पता चलता है कि 2016-17 में 94 लाख कार्ड खारिज किए गए, उनमें कथित ‘फर्जी’ और ‘नकली’ जॉब कार्ड 13 फीसदी से भी कम या लगभग 12 लाख थे। बाकी कार्ड पते बदलने, जॉब कार्ड में गलतियों और कार्ड को सरेंडर करने की वजह से खारिज किए गए।

इन मामलों का व्यापक महत्व है, क्योंकि सरकार आधार के बारे में प्राथमिक तर्क यह देती है कि इसका मकसद भ्रष्टाचार से लड़ना और बचत करना है।

सरकार की ओर से राशन, पेंशन जैसे अधिकारों और सेवाओं को ठीक से मुहैया कराने और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए आधार को अनिवार्य बनाने के बावजूद 2016 के ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 76 से 79 पर पहुंच गई।

भ्रष्टाचार से जंग और लोगों तक प्रभावशाली सुविधा पहुंचाने के वादों पर सवार होकर जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो माना गया कि सरकार भ्रष्टाचार पर रोक और शिकायतों के निपटारे के लिए एक मजबूत योजना बनाएगी, ताकि किसी को भी अपने अधिकारों से वंचित न होना पड़े। लेकिन पिछले साढ़े तीन सालों में जो कुछ भी हुआ, उसने सब पर पानी फेर दिया।

2014 में लोकपाल कानून पारित हुआ। अगर यह लागू हो गया होता तो एक स्वतंत्र और मजबूत संस्था भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करती। इसी तरह, व्हिसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून-2014 में भ्रष्टाचार का खुलासा करने वालों के लिए सुरक्षा की बात कही गई थी। दुर्भाग्यवश, सरकार ने दोनों ही कानून लागू नहीं किए। आज तक एक भी लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई है और व्हिसिल ब्लोअर एक्ट के लिए भी नियम नहीं बनाए गए हैं, जबकि उन पर लगातार हमले और उनकी हत्या हो रही है।

सरकार ने शिकायत निवारण बिल-2011 को दोबारा पेश नहीं किया है। इसमें सुविधाओं को मुहैया कराने को लेकर होने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने में लोगों को सशक्त करने की क्षमता थी, लेकिन 2014 में लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक लटक गया। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) जैसे कानून में सोशल ऑडिट और शिकायत निवारण के प्रावधान हैं, लेकिन इन्हें लगातार कमजोर किया जा रहा है। हाल में एनएफएसए में इन प्रावधानों को लागू नहीं करने का मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था। सर्वोच्च अदालत ने इस पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि इस कानून के पारित होने के चार साल बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें इसे शुरू करने में असफल रही हैं। जबकि इससे भ्रष्टाचार में कमी आती और लाभार्थियों तक लाभ पहुंचाने में मदद मिलती। इस कानून के तहत, राज्य खाद्य आयोग, जिला स्तर पर शिकायत निवारण अधिकारियों की नियुक्ति और तय समयावधि में अनिवार्य सोशल ऑडिट जैसे प्रावधान हैं। सरकार की अनदेखी और तंत्र की निगरानी में असफलता की वजह से इसका लगातार उल्लंघन हो रहा है।

2017 में दिल्ली की 221 दुकानों (कुल राशन दुकानों का 10 फीसदी) की ऑडिट रिपोर्ट जारी की गई। इससे पता चला कि कार्य दिवसों और कार्यअवधि के दौरान 60 फीसदी से ज्यादा दुकानें बंद थीं। साथ ही, राज्य खाद्य आयोग (एसएफसी) या जिला शिकायत निवारण अधिकारियों (डीजीआरओ) के मुताबिक, किसी भी दुकान पर शिकायत निवारण से संबंधित कोई सूचना उपलब्ध नहीं थी। फिर भी, सरकार भ्रष्टाचार विरोधी और जवाबदेही वाले कानूनों को लागू करने की जगह आधार को देश से भ्रष्टाचार दूर करने के अंतिम समाधान के रूप में आगे बढ़ा रही है।

कहना न होगा कि आधार, ज्यादा से ज्यादा उन आइडेंडिटी फ्रॉड को पकड़ने में काम आ सकता है, जिसमें कोई व्यक्ति एक से ज्यादा बार लाभार्थियों की लिस्ट में आ जाता है। यह भ्रष्टाचार का बहुत छोटा अंश है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी योजनाओं में भ्रष्टाचार का बड़ा कारण मात्रा और गुणवत्ता का है। दुकानदार लोगों को उनका पूरा हिस्सा नहीं देते या अच्छी की जगह घटिया गुणवत्ता वाले अनाज देते हैं। आधार इस भ्रष्टाचार से लड़ने में मददगार साबित नहीं हो सकता है। इसे सिर्फ व्यापक पारदर्शिता और प्रभावशाली जवाबदेही वाले मापदंडों से ही खत्म किया जा सकता है।

ऐसे कई प्रमाण हैं कि लोगों की मदद करना तो दूर, आधार कार्ड को राशन से लिंक करने की अनिवार्यता की वजह से कई गरीब लाभ से वंचित हो गए हैं, जिसकी गारंटी खाद्य सुरक्षा अधिनियम में दी गई थी। जो लोग आधार के डेटाबेस में नहीं हैं, वे राशन कार्ड के लिए आवेदन नहीं कर पा रहे हैं। यहां तक कि जिनके पास आधार नंबर है, लेकिन राशन से लिंक नहीं है, तो उन्हें भी लाभ से वंचित कर दिया जाता है। झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में जहां पॉइंट ऑफ सेल (पीओएस) डिवाइस फेयर प्राइस शॉप्स में लगाए गए हैं, वहां भी अगर लाभार्थियों के बायोमेट्रिक्स नहीं मिलते या कार्डधारक खुद मौजूद नहीं होते हैं, तो उन्हें लाभ नहीं मिलता। इस तरह से लाभ से वंचित होने वालों की एक बड़ी आबादी है और इसमें खासकर बूढ़े, बच्चे या रोजमर्रा के काम करने वाले शामिल हैं।

इस तरह की उपेक्षा कई लोगों के लिए प्राणघातक भी साबित हुई है। सितंबर, 2017 में झारखंड के सिमडेगा जिले की 11 साल की संतोषी की भूख से मौत हो गई। उसकी मां के मुताबिक, वह चावल मांग रही थी लेकिन घर में अनाज का एक दाना नहीं था। उसे इसलिए सब्सिडी वाले राशन से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उसके परिवार का राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं था। झारखंड में ही मरांडी के साथ भी यही हुआ। उसे अपना राशन नहीं मिल सका, क्योंकि उसका आधार आधारित बायोमेट्रिक जांच (एबीबीए) फेल हो गया। इसी तरह के भूख से मौत के मामले दूसरे राज्यों से भी सामने आए हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की शकीना अशफाक का है। उनकी भूख से मौत हो गई, क्योंकि वह तबीयत खराब होने के कारण राशन की दुकान में आधार आधारित बायोमेट्रिक्स जांच के लिए मौजूद नहीं हो सकी थीं।

समस्या को पहचानने और दूर करने के बजाय, सरकार बेशर्मी से इन लोगों को फर्जी बताती रही है। साथ ही, वह गर्व से जरूरतमंदों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर उसे ‘बचत’ बताती है।

अगर सरकार भ्रष्टाचार पर गंभीर है तो उसे प्रभावशाली और मजबूत संस्थाएं स्थापित करनी चाहिए, जिससे लोगों को भ्रष्टाचार की शिकायत करने के लिए बल मिले। साथ ही, सरकार को संबंधित लोगों से जवाबदेही की मांग करनी चाहिए, न कि वह तब तक लोगों के साथ चोर की तरह बर्ताव करे, जब तक वे खुद को निर्दोष साबित न कर दें और अपना आधार नंबर बनवाने के बाद  संबंधित व्यक्ति या संस्‍था को यह न दिखा दें कि वे वास्तविक हैं न कि कोई ‘भूत’।

(लेखिकाएं पारदर्शिता, जवाबदेही और भोजन के अधिकार के मुद्दे पर काम करती हैं )

Advertisement
Advertisement
Advertisement