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कैसे बदले किसान की किस्मत

उत्पादन के बजाय अब आमदनी बढ़ाने पर जोर
मंथनः एग्रीकल्चषर कॉनक्लेव के पहले सत्र में सहकारिता से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करते विशेषज्ञ

पिछले तीन साल के दौरान बागवानी उत्पादन ने कुल कीमत के मामले में खाद्यान्न उत्पादन को पीछे छोड़ दिया है। ऐसा पहली बार हुआ है। अकेले गेहूं या गन्ने या धान की खेती पर निर्भर रहकर किसान की आमदनी नहीं बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए मिश्रित खेती को अपनाना होगा। इसलिए किसानों को खेती के साथ-साथ डेयरी, मधुमक्खी पालन और मछलीपालन के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। यह कहना है केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधामोहन सिंह का। उन्होंने आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव में कहा कि केंद्र सरकार ने पिछले तीन साल में किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिनका असर दिखने लगा है। मिसाल के तौर पर 2014 तक जैविक खेती के तहत देश में सिर्फ सात लाख हेक्टेयर खेती होती थी जो बढ़कर 22 लाख हेक्टेयर से ज्यादा हो गई है। हरित क्रांति के बाद से ही पूरा जोर कृषि उत्पादन बढ़ाने पर रहा है, लेकिन अब पूरा जोर खेती की आमदनी बढ़ाने पर है। नीतिगत नजरिए से यह बहुत बड़ा बदलाव है। इस बार के बजट में भी खेती के साथ-साथ पशुपालन, मधुमक्खीपालन, बागवानी के जरिए किसानों की आमदनी बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा।

आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव एंड इनोवेशन अवॉर्ड्स का आयोजन 23 जनवरी को नई दिल्ली स्थिति नेशनल एग्रीकल्चर साइंस सेंटर (एनएएससी) कॉम्प्लेक्स स्थित सिम्पोजियम हॉल में किया गया। इस कार्यक्रम में कृषि से जुड़े वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं, अर्थशास्‍त्रियों, सहकारिता और कारपोरेट जगत के विशेषज्ञों और देश भर से आए प्रगतिशील किसानों ने इनोवेशन के जरिए खेती की आमदनी बढ़ाने से जुड़े विभिन्न मुद्दों और संभावनाओं पर विचार किया।

कॉनक्लेव की शुरुआत में थीम एड्रेस में स्वराज डिवीजन के सीओओ वीरेन पोपली ने कहा, “कृषि के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हुए हैं। यह सब किसानों की वजह से हो पाया। लेकिन अब समय आ गया है जब किसानों के मुनाफे की बात की जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। यह एक अच्छी सोच है, लेकिन किसान की आय दोगुनी करने से बड़ी चुनौती किसानों का मुनाफा बढ़ाना है। एक बात और जो कुछ खास है वह यह कि पहले अलग-अलग इलाकों की अपनी फसलें, अपनी खासियतें, अलग-अलग अनाज और खान-पान के तरीके थे। यह सब अब खत्म होकर एक संकट को जन्म दे रहा है। एमएसपी की वजह से ज्यादातर किसान गेहूं, धान जैसी एक-दो प्रमुख फसलों में ही फंसे रहते हैं जबकि इससे विविधता भी हुई कम और मुनाफे पर भी असर पड़ा है। देश के कई इलाकों ने किसानों ने मिश्रित खेती कर अपनी आमदनी बढ़ाई है। इससे बाकी किसानों को भी सीखने की जरूरत है।”

सहकारिता को चाहिए पेशेवर नेतृत्व

सवाल-जवाबः परिचर्चा के दौरान किसान प्रतिनि‌धियों ने उठाए कई महत्वपूर्ण सवाल

 

देश में सहकारिता का इतिहास करीब 100 साल पुराना है। भारत में भी सहकारिता के जरिए किसानों और छोटे उत्पादकों तक अधिकतम लाभ पहुंचाने के अमूल जैसे उदाहरण मौजूद हैं। आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव के पहले सत्र में सहकारिता के जरिए किसानों की आय बढ़ाने की संभावनाओं पर चर्चा की गई। इस परिचर्चा में भारत सरकार के कृषि सचिव एसके पटनायक, नीति आयोग में स्पेशल सेल ऑन लैंड पॉलिसी के चेयरमैन डॉ. टी हक, अमूल के मैनेजिंग डायरेक्टर आरएस सोढ़ी और  एनसीडीसी के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ. डीएन ठाकुर ने हिस्सा लिया।

परिचर्चा के दौरान कृषि सचिव एसके पटनायक ने कहा कि भारत में कृषि में सहकारिता का काफी योगदान है। सहकारी संस्थाओं का आउटरीच काफी अधिक है। कोऑपरेटिव सोसायटी एक्ट के तहत किसान संगठन बना सकते हैं। बहुत से फार्मर्स प्रोड्यूर्स आर्गनाइजेशन यानी एफपीओ भी काफी अच्छा काम कर रहे हैं, जिसे विस्तार देने की जरूरत है। बदलते दौर में सहकारी संस्थाओं की भूमिका पर अपने विचार रखते हुए नीति आयोग में स्पेशल सेल ऑन लैंड पॉलिसी के चेयरमैन डॉ. टी हक ने कहा कि हमें सीमांत किसानों का ख्याल रखने की जरूरत है। उन्हें बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की जरूरत है। नाबार्ड जैसी संस्थाएं इस पर काम कर रही हैं, लेकिन कामयाब और सक्रिय कोऑपरेटिव की संख्या आज भी काफी कम है। सहकारिता क्षेत्र की दिक्कतों और किसानों की आय बढ़ाने में इनकी भूमिका के सवाल पर अमूल के मैनेजिंग डायरेक्टर आरएस सोढ़ी ने कहा कि उत्पादन तो खूब हो रहा है, लेकिन किसान को उपज का पूरा भाव नहीं मिल रहा। 1970 के दशक में दूध की भी यही स्थिति थी। भारत दूध आयात करता था। बाद में सहकारिता और को ऑपरेटिव मॉडल से यह स्थिति बदलनी शुरू हुई। आज गुजरात, पंजाब, बिहार में दूध का 80-85 फीसदी किसान की जेब में जाता है। सोढ़ी के मुताबिक, सबसे पहले किसी भी कारोबार को पेशेवर ढंग से चलाना जरूरी होता है। इसलिए किसानों और सहकारी क्षेत्र को भी अपने कारोबार को पेशेवर ढंग से चलाना जरूरी है। सहकारिता के क्षेत्र में अमूल कामयाबी की मिसाल बन गया जबकि बाकी सहकारी संस्थाएं ऐसा नहीं कर पाईं। इसकी क्या वजह है? इस सवाल के जवाब में आरएस सोढ़ी ने कहा कि कस्टमर इसलिए आपका प्रोडक्ट नहीं खरीदता कि आप कोऑपरेटिव हैं। आपको सफल होने के लिए बिजनेस मॉडल के तौर पर काम करना होगा। नेतृत्व और प्रोफेशनलिज्म में ही अमूल की सफलता की कहानी है। अमूल ने मार्केटिंग और ब्रांडिंग अपने हाथ में ली ताकि किसानों को मुनाफे में अधिक से अधिक हिस्सा मिल सके।

चर्चा के दौरान नेशनल कोऑपरेटिव डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनसीडीसी) के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर डीएन ठाकुर का कहना था कि एफपीओ नए जेनरेशन के कोऑपरेटिव हैं। सहकारिता के क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओं की प्रतिबद्धता का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि एनसीडीसी एक फाइनेंशियल संस्था है, जो कोऑपरेटिव को लोन देती है। आज तक एनसीडीसी ने जितना भी पैसा लोन के तौर पर सहकारी संस्थाओं को दिया, वह पूरा कर्ज वापस आया है। कभी हमारा कर्ज डूबा नहीं बल्कि सहकारी संस्थाओं ने हमें पैसा कमाकर दिया है। इनकी नीयत में खोट नहीं है लेकिन कोऑपरेटिव में भी इनोवेशन की जरूरत है। डॉ. ठाकुर ने कहा कि 1991 के बाद आर्थिक नीतियों में काफी बदलाव आया, लेकिन रेगुलेटरी ढांचा 1947 वाला ही है। इससे फैसले लेने में देरी होती है।

सहकारिता क्षेत्र की चुनौतियों पर चर्चा करते हुए एसके पटनायक ने भी माना कि सहकारी संस्थाओं को प्रोफेशनल मैनेजमेंट के साथ ट्रेनिंग की जरूरत है। उन्होंने बताया कि देश में लगभग आठ लाख सहकारी संस्था हैं, इन सभी को ढांचागत तरीके से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. हक ने कहा कि सहकारी संस्थाओं में प्रशिक्षण की बेहद कमी है। इसकी प्रक्रिया भी कमजोर है। पुरानी पद्धति से लोगों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। कुछ जगह तो नाममात्र के कोऑपरेटिव हैं। लोगों को पता ही नहीं कि वे इसके सदस्य भी हैं। बिहार का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि वहां माफिया कोऑपरेटिव चलाते हैं। डॉ. ठाकुर ने भी कहा कि कोऑपरेटिव कोई चैरिटी नहीं है, इसलिए इसके सफल होने के लिए जरूरी है कि इसे बिजनेस की तरह चलाया जाए। वही सहकारी संस्थाएं नाकाम रही हैं जिनके नेतृत्व ने मान लिया है कि ये तो सरकारी है। इसलिए कोऑपरेटिव को सरकारी तंत्र से मुक्त करना होगा। सरकार को भी सहकारी संस्थाओं को अपने हिसाब से काम करने की पूरी छूट देनी होगी। कोऑपरेटिव के भविष्य की चुनौतियों पर एसके पटनायक ने कहा कि सबसे पहले रेगुलेशन पर ध्यान देना होगा। सहकारिता में प्रतिस्पर्धा का माहौल होना चाहिए। इन्हें भी प्रोफेशनल मैनेजमेंट और ट्रेनिंग की जरूरत है। उन्होंने राज्यों की रिपोर्ट का हवाला देते हुए इनके ओवर रेगुलेशन का भी जिक्र किया, जो नहीं होना चाहिए। साथ ही बिजनेस मॉडल पर भी ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हमें विदेशों में बेचने के लिए उत्पादन करना चाहिए। अमूल चॉकलेट इसकी सफलता का उदाहरण है।

मशीनीकरण: कितना सही, कितना गलत

खेती में मशीन का उपयोगः सिर्फ टैक्टर पर अधिक जोर रहने से उठ रहे हैं सवाल

 

देश में हरित क्रांति के आगाज में किसानों की मेहनत और उन्नत बीजों के साथ-साथ कृषि यंत्रीकरण की अहम भूमिका रही है। लेकिन मशीनीकरण किस तरह किसानों और खेती के लिए लाभदायक हो सकता है, इस बात पर भी खूब बहस हुई। आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव का दूसरा सत्र किसानों की आमदनी बढ़ाने में मशीनीकरण की भूमिका पर केंद्रित था। इस परिचर्चा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. त्रिलोचन महापात्र, पंजाब सरकार के कृषि आयुक्त बीएस सिद्धू, स्वराज डिवीजन के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट (सेल्स एंड मार्केटिंग) राजीव रेलन ने अपने विचार रखे।

मशीनीकरण को बढ़ावा देने के सवाल पर डॉ. त्रिलोचन महापात्र ने कहा कि यंत्रीकरण का फायदा निश्चित तौर पर हुआ है। इससे समय और श्रम की बचत भी  होती है और खेती की लागत 20 फीसदी तक कम हुई है। साथ ही उत्पादकता भी बढ़ी है। इससे युवाओं का खेती की तरफ रुझान बढ़ा है। पंजाब के कृषि आयुक्त बीएस सिद्धू का मानना था कि मशीनीकरण से खेतों में दो से ज्यादा फसलों की पैदावार होने लगी है। लेकिन मैकेनाइजेशन के अत्यधिक इस्तेमाल को लेकर अपनी असहमति भी व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इससे लेबर एफिशिएंसी तो बढ़ती है, लेकिन खेती में मशीनीकरण का मतलब ट्रैक्टरीकरण हो गया है। इसका समाधान निकालने की जरूरत है। खेती के तौर-तरीकों को आसान बनाने के लिए अन्य मशीनों की जगह सिर्फ ट्रैक्टर का इस्तेमाल ही बढ़ा है। वहीं, राजीव रेलन ने कहा कि चीन में खेती के विकास में छोटी-छोटी मशीनों का योगदान ज्यादा है। हमारे यहां ट्रैक्टर पर ही फोकस ज्यादा रहा। हालांकि, इससे प्रोडक्टिविटी बढ़ी है। उन्होंने किसानों को तकनीक के प्रति जागरूक करने पर जोर दिया। सत्र का संचालन करते हुए जाने-माने एग्री-बिजनेस एक्सपर्ट विजय सरदाना ने किसानों के लिए उपयोगी छोटे कृषि यंत्रों के अनुसंधान और विकास की जरूरत पर जोर दिया।

खेती के लिए मशीनों पर निर्भरता और रिसर्च के सवाल पर डॉ. त्रिलोचन महापात्र ने बताया कि मैं ट्रैक्टरीकरण वाली बात से असहमत हूं। ट्रैक्टर अच्छा उत्पादन कर रहे हैं। ट्रैक्टराइजेशन सिर्फ हरियाणा, पंजाब में हुआ है। हालांकि, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि हर किसान को ट्रैक्टर खरीदना नहीं चाहिए। सरकार ट्रैक्टर और कृषि यंत्र किराए पर देने की योजना चला रही है। किसानों को इसका भी फायदा उठाना चाहिए। उन्होंने पोस्ट हार्वेशन के लिए भी मशीनों के उपयोग पर जोर दिया।

कृषि यंत्रीकरण में सही टेक्नोलॉजी और डिजाइन को कैसे प्रमोट किया जाए? इस पर राजीव रेलन ने कहा कि टेक्नोलॉजी मौजूद है, लेकिन हर जगह उसकी पहुंच नहीं है। ट्रैक्टर मूल जरूरत है, लेकिन सिर्फ इससे किसान का भला होने वाला नहीं है। किसानों में जानकारी और स्किल की कमी है, इसलिए भी वे पूरी क्षमता से टेक्नोलॉजी को अपना नहीं पा रहे हैं। इसके लिए साथ ही, नीतियों में भी बदलाव की जरूरत है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए बीएस सिद्धू ने कहा कि कृषि में यंत्रीकरण को लेकर फिलहाल कोई नीति ही नहीं है। केंद्र और राज्यों को इस बारे में एक नीति बनानी होगी। ट्रेनिंग पर भी जोर देना होगा। साथ ही, क्रेडिट पॉलिसी पर भी फिर से विचार करने की जरूरत है। कटाई उपरांत यंत्रीकरण के मुद्दे पर राजीव रेलन ने कहा कि पंजाब में पोस्ट हार्वेस्टिंग पर ध्यान दिया जा रहा है। स्वराज की तरफ से भी इस पर काम हुआ है। दो से तीन साल में इसके नतीजे दिखने लगेंगे।

मशीनीकरण को लेकर नीति नहीं है, इस बात से आइसीएआर के महानिदेशक डॉ. त्रिलोचन महापात्र सहमत नहीं थे। उनके मुताबिक, यह कहना गलत है कि सरकार की कोई नीति नहीं है। सरकार की नीतियों की वजह से सबसे ज्यादा फायदा पंजाब को ही हुआ है। जबकि आइसीएआर ने अभी तक 32 लाख किसानों को ट्रेनिंग दी है। प्राइवेट-पब्लिक साझेदारी से कुछ काम हुआ है। हालांकि, निजी क्षेत्र मशीनरी से जुड़े रिसर्च में बहुत ज्यादा हिस्सेदारी नहीं कर रहा है।

फसल सुरक्षा और कटाई उपरांत प्रबंधन में निवेश जरूरी

पोस्ट हार्वेस्ट मैनेजमेंटः तीसरे सत्र में फसल सुरक्षा और कटाई उपरांत प्रबंधन पर चर्चा

 

भारत में अधिकांश खेती मानसून पर निर्भर है। इसलिए जोखिम भी अधिक है। यह जोखिम अक्सर किसानों के लिए मुसीबत बन जाता है। आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव के तीसरे सत्र में किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए फसल सुरक्षा और कटाई उपरांत प्रबंधन पर चर्चा हुई। इसमें आइसीएआर के उप महानिदेशक (बागवानी) एके सिंह, अडानी एग्रोफ्रेश के सीईओ अतुल चतुर्वेदी, एचडीएफसी एग्रो के बालाचंद्रन एमके, यूपीएल के एग्जिक्यूटिव चेयरमैन आरडी श्रॉफ शामिल हुए। परिचर्चा में भाग लेते हुए आरडी श्रॉफ ने कहा कि भारत के किसानों को इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने की जरूरत है, इसके बाद वह अपनी आमदनी खुद बढ़ाने लगेंगे।

बालाचंद्रन एमके ने फसल बीमा और इसकी उपयोगिता पर बात करते हुए कहा कि अब हम क्षेत्र आधारित बीमा से किसान आधारित बीमा की ओर रुख कर रहे हैं। पहले जिला स्तर पर बीमा होता था, अब गांव स्तर पर हम आ चुके हैं। इस सत्र का संचालन करते हुए एनसीडीसी के डिप्टी एमडी ठाकुर ने कहा कि खेती को फायदेमंद बनाने के लिए फसल सुरक्षा और कटाई उपरांत प्रबंधन के क्षेत्र में बेहतर निवेश की जरूरत है। एके सिंह ने कहा कि हम पोस्ट हार्वेस्टिंग यानी कटाई उपरांत प्रबंधन पर काफी बात करते हैं लेकिन प्री-हार्वेस्टिंग पर ज्यादा चर्चा तक नहीं करते। जबकि इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि किसानों पर सूचनाओं का बोझ लादने की जरूरत नहीं है, बल्कि उन्हें तकनीक और सही जानकारी समय पर देने की जरूरत है।

परिचर्चा के दौरान अडानी एग्रोफ्रेश के सीईओ अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि हमारे नीतिनिर्धारकों को भी अपनी सोच बदलनी चाहिए। आज भी 1960 के कानून लागू होते हैं। हमारे यहां कोल्ड चेन की कमी नहीं है। कमी कनेक्टिविटी की है। आवश्यक वस्तु अधिनियम की जटिलताओं पर सवाल उठाते हुए चतुर्वेदी ने कहा कि नियामक व्यवस्था को व्यावहारिक होना पड़ेगा। उनका कहना था कि प्राइवेट सेक्टर इस क्षेत्र में निवेश नहीं करना चाहता है क्योंकि वह नीतियों में स्थायित्व को लेकर आश्वस्त नहीं है।

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