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अपना-अपना सियासी गणित

चारा घोटाले में लालू यादव की सजा के बाद राजद के बिखराव की अटकलें मगर मुस्लिम-यादव एकजुटता से इसकी संभावना कम
मंथनः पटना में पार्टी बैठक के दौरान राजद नेता

यह लालू प्रसाद का करिश्मा नहीं है। वे जेल में रहें या बाहर, असाधारण परिस्थिति न बने तो दल में टूट की आशंका नहीं है। यह मजबूती राजद विधायक दल की सामाजिक संरचना से बनी है, जिसने दल में टूट की गुंजाइश न्यूनतम कर दी है। दल-बदल के लिए विधायक या संसदीय दल में चार में से तीन सदस्यों का एक साथ अलग होना जरूरी है। राजद के विधायकों की संख्या 80 है। विभाजन का गणित यह बैठता है कि न्यूनतम 60 विधायक एकमत हों तभी दल में कानून सम्मत टूट हो सकती है। इससे कम विधायक अलग होने की कोशिश करेंगे तो उन सबकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। अब जरा राजद विधायकों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर गौर कीजिए। आसानी से यह बात समझ में आ जाएगी कि क्यों राजद में विभाजन की संभावना असंभव के करीब है।

राजद का आधार वोट बैंक मुस्लिम-यादव वोटरों की एकजुटता पर आश्रित है। इसके अलावा इन दोनों समूहों से अलग के उम्मीदवार अपनी बिरादरी के वोटरों पर असर डालते हैं। 80 में से 42 विधायक यादव हैं। बिहार विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की तादाद 24 है, जिनमें 12 राजद में हैं। इसका सीधा हिसाब यह बैठता है कि ‘माय’ समीकरण के विधायकों की सहमति के बिना टूट की बुनियाद नहीं पड़ सकती है। मौजूदा झंझावात में राजद के एकमात्र विधायक महेश्वर यादव खुलकर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की मुखालफत कर रहे हैं। बाकी किसी ने लालू या उनके बेटे, पूर्व मुख्यमंत्री तेजस्वी का विरोध नहीं किया। महेश्वर यादव का विरोध उनके विधानसभा क्षेत्र के समीकरण की वजह से है। उनके क्षेत्र गायघाट में एनडीए का एकजुट वोट राजद के अकेले के वोट से अधिक है। लिहाजा अगले चुनाव में जीत की गारंटी के लिए वे एनडीए की ओर देख रहे हैं।

अन्य विधायकों को अपने क्षेत्र का समीकरण राजद के लिए मुफीद लगता है। इस कारण 80 विधायकों में सिर्फ एक महेश्वर यादव ही खुलकर विरोध में बोल रहे हैं। राजद विधायक दल में अनुसूचित जाति के विधायकों की संख्या 13 है। ये सब ऐसे विधायक हैं, जिन्होंने विधानसभा के पिछले चुनाव में एनडीए के उम्मीदवारों को परास्त किया था। यह ठीक है कि इनकी जीत में जदयू का भी योगदान रहा है, क्योंकि तब राजद, जदयू और कांग्रेस साझे में चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन, सबसे बड़ी बाधा यह है कि अनुसूचित जाति के इन विधायकों को एनडीए में शामिल होने के बाद भी अगले चुनाव में उम्मीदवारी मिल ही जाएगी, इसकी गारंटी देने वाला कोई नहीं है। राजद विधायक और पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम दावा करते हैं कि इस समूह के किसी विधायक ने नीतीश कुमार से संपर्क नहीं किया है। बेशक हम सत्ता में अपनी भागीदारी चाहते हैं। हम यह भी जान रहे हैं कि अगली सरकार राजद की अगुआई में ही बनेगी। इतने दिनों तक इंतजार का सब्र हम सबमें है।

अनुसूचित जाति के वोटरों के दो बड़े दावेदार-लोजपा के रामविलास पासवान और हम के जीतनराम मांझी एनडीए के सहयोगी हैं। ये दोनों नहीं चाहेंगे कि राजद से आनेवाले विधायकों के जरिए नीतीश कुमार अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित विधानसभा की सीटों पर अपनी पकड़ मजबूत करें। जहां तक मांझी का सवाल है, वे दो नावों की सवारी करने की मानसिकता में जी रहे हैं।

पेशी पर जाते लालू प्रसाद

राजद नेताओं की तरह मांझी को भी लग रहा है कि चारा घोटाले में लालू प्रसाद के साथ नाइंसाफी हो रही है। मांझी एनडीए में अपने प्रति अपनाए जा रहे रवैए से नाराज हैं। उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का भरोसा दिया गया था। दूसरों को राज्यपाल बनाया गया। मांझी इंतजार करते रह गए। उनका गुस्सा इस बात पर भी है कि नीतीश सरकार में रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस को किसी सदन का सदस्य न रहते हुए भी कैबिनेट मंत्री बनाया गया। बाद में विधान परिषद की सदस्यता भी दे दी गई। उनकी पार्टी के किसी नेता को आयोग या बोर्ड के मेंबर के लायक भी नहीं समझा गया। ऐसी बात नहीं है कि मांझी ने मांग नहीं की। उनकी पार्टी की ओर से कहा गया कि पारस की तरह हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के किसी नेता को विधान परिषद में भेजकर मंत्री बनाया जाए। उनकी मांग अनसुनी कर दी गई। मांझी नाराज हैं तो उन्हें खुश करने का मौका राजद के पास है। ऐसे में जदयू अगर राजद के अनुसूचित जाति के विधायकों को अपने पाले में करने की कोशिश करता है तो मांझी को पाला बदलकर राजद के खेमे में जाने से कोई रोक नहीं सकता है। एनडीए मांझी को खोने का जोखिम उठा पाएगा, यह  कहना मुश्किल है। दलितों की मुसहर बिरादरी पर मांझी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। आखिर वे अपनी बिरादरी के पहले मुख्यमंत्री जो बने थे।

बिना कानूनी पचड़े के पार्टी में टूट कराने का एक फॉर्मूला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले आजमा चुके हैं। इसे राजद और भाजपा के कुछ विधायकों को जदयू में शामिल कराने के लिए आजमाया गया। इन दोनों दलों के कुछ विधायकों को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिलवाया गया। बाद में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया। बेशक यह कारगर फॉर्मूला है। लेकिन, इसका उपयोग दो-चार विधायकों के पालाबदल के लिए तो किया जा सकता है, बड़े पैमाने पर होने वाले पालाबदल में यह फॉर्मूला शायद ही कारगर हो। इसकी वजह है कि विधान परिषद में सीटें कम हैं और राज्यपाल के मनोनयन से भरी जाने वाली सीटें भी खाली नहीं हैं। पिछली बार दल बदलुओं को राज्यपाल के कोटे से ही पुनर्वासित किया गया था। इस पर विवाद भी हुआ। मामला पटना हाइकोर्ट में विचाराधीन है। इस साल विधानसभा कोटे से भरी जाने वाली विधान परिषद की सीटों में भी बाहरी व्यक्ति की गुंजाइश नहीं है। जदयू को दो या तीन सीटें मिलेंगी। एक सीट पर तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद ही रहेंगे।

प्रत्यक्ष तौर पर नीतीश कुमार यही दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा के साथ उनकी सरकार बगैर किसी दबाव के चल रही है। लेकिन, उनके करीबी महसूस कर रहे हैं कि भाजपा का व्यवहार पहले से कुछ बदला हुआ है। अब वह जदयू को बड़े भाई की भूमिका में नहीं देखना चाहती है। संभावना तो यह भी है कि अगर नीतीश राजद में तोड़फोड़ की कोशिश करते हैं तो उन्हें भाजपा के विरोध का सामना करना पड़ेगा।

फंडा यह है कि राजद के कुछ विधायक अगर जदयू में आते हैं तो उन सबको विधानसभा के अगले चुनाव में सीटें भी देनी होंगी। वैसी हालत में भाजपा के अपने उम्मीदवार क्या करेंगे? पिछले विधानसभा चुनाव में ही सीटों के लिए एनडीए के घटक दलों ने भाजपा के नाक में दम कर दिया था। 243 में से भाजपा के हिस्से 157 सीटें ही आ पाई थीं। अगले चुनाव में तो जदयू के लिए भी सीटों का बंदोबस्त करना पड़ेगा। महागठबंधन के दौर में जदयू 101 सीटों पर लड़ा था। 70 सीटों पर उसकी जीत हुई थी। इस बार अगर जदयू 101 सीटों की मांग करता है तो भाजपा और उसके तीन सहयोगियों के लिए 142 सीटें ही बच पाएंगी। इस पर अगर जदयू आयातित राजद विधायकों के नाम पर अधिक सीटों की मांग करेगा तो इसका सीधा परिणाम यह होगा कि बिहार एनडीए के दूसरे घटक दल बाहर का रास्ता देखेंगे। यह रास्ता इन दलों को राजद के खेमे में ले जाएगा। सवाल उठता है कि क्या भाजपा इस नौबत को आने देगी? जवाब नकारात्मक ही है। भाजपा में वैसे भी टिकट बंटवारे के हरेक सीजन में भारी मारामारी होती है।

इस चर्चा से भाजपा के हाथ-पांव वैसे ही फूल जाते हैं, जिसमें कहा जाता है कि जरूरत पड़ी तो राजद उपेंद्र कुशवाहा को सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ेगा। रालोसपा अध्यक्ष के नाते उपेंद्र कुशवाहा इस समय एनडीए के पार्टनर हैं। लेकिन, भाजपा के रंग ढंग से कतई खुश नहीं हैं। वह भी जीतनराम मांझी की तरह लालू प्रसाद के लिए तल्ख शब्दों के इस्तेमाल से परहेज करते हैं। रालोसपा में नंबर दो के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि दावे के साथ कहते हैं कि उपेंद्र कुशवाहा ही राज्य के अगले मुख्यमंत्री हैं। जब बिहार एनडीए में मुख्यमंत्री का ओहदा स्थाई तौर पर नीतीश कुमार को मिला हुआ है, तो उस हालत में उपेंद्र कुशवाहा को मुख्यमंत्री बनाने का नागमणि का दावा कहीं और इशारा तो कर ही रहा है। खूबी की बात यह है कि उपेंद्र कुशवाहा ने कभी नागमणि की सदिच्छा को खारिज नहीं किया। सवाल आने पर वे मुस्कुरा कर रह जाते हैं। उपेंद्र कुशवाहा की नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि उन्हें केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण ओहदा नहीं दिया गया। केंद्रीय कैबिनेट के पिछले फेरदबल में वह प्रमोशन की उम्मीद लेकर बैठे थे। जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की बेचैनी अगर बढ़ती है तो राजद के बदले एनडीए को अपना घर बचाने की अधिक चिंता होनी चाहिए। जहां तक लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान का सवाल है तो उनके अगले राजनीतिक कदम का कयास आजतक कोई लगा नहीं पाया है। पासवान भी नीतीश कुमार से बहुत खुश हैं, यह नहीं कहा जा सकता है। उनके पुत्र चिराग पासवान ने अपने संसदीय क्षेत्र जमुई के जिला कलेक्टर को बदलने की अर्जी नीतीश के पास लगाई थी। वह ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है।

बड़े भाई तेजप्रताप के साथ तेजस्वी यादव (दाएं)

तेजस्वी की छवि गढ़ने का जतन

राजद गफलत में नहीं है। वह बड़ी होशियारी से तेजस्वी यादव में नीतीश कुमार की छवि को स्थापित कर रहा है। नीतीश की छवि उनके शालीन व्यवहार और ईमानदार कार्यशैली की बुनियाद पर टिकी हुई है। कोई लाख आलोचना करे, वह नीतीश की शालीनता और ईमानदार छवि का कायल हो जाता है। ठीक वैसी ही छवि तेजस्वी की गढ़ी जा रही है। तेजस्वी उस सड़क निर्माण विभाग के मंत्री थे, सरकारी विभागों में जिसे काजल की कोठरी का दर्जा हासिल है। ठेका और तबादला के मामले में यह विभाग हमेशा बदनाम रहा है।

करीब डेढ़ साल के कार्यकाल में तेजस्वी के कपड़े पर कोलतार का एक भी छींटा नहीं पड़ा। याद कीजिए उनके पिता लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व काल में इसी विभाग के मंत्री मोहम्मद इलियास हुसेन कोलतार में नहा गए थे। उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। कहा जाता है कि उस बदनामी से सबक लेकर तेजस्वी ने काफी सावधानी से काम किया और अभी तक कोई दाग उन पर नहीं लगा।

राजद की बदनामी उसके कुछ नेताओं के फूहड़ और दूसरों का अपमान करने वाले आचरण के चलते होती रही है। कुछ दबंग नेता नाहक ही लोगों को नाराज करते रहते थे। तेजस्वी को ऐसे नेताओं की छाया से दूर रखा जा रहा है। लालू प्रसाद ने तेजस्वी की मदद के लिए जिस टीम का निर्माण किया है, उसमें पढ़े-लिखे और समझदार लोग हैं।

बड़े भाई तेजप्रताप की शैली से इतर तेजस्वी आचरण के प्रति सतर्क रहते हैं। तेजप्रताप में उनके समर्थक लालू प्रसाद की छवि देखते हैं। यह नजर भी आता है। लालू प्रसाद की गैर-हाजिरी में उनके समर्थक तेजप्रताप के दरबार में हाजिरी लगाना उचित समझते हैं। जबकि तेजस्वी में नीतीश की छवि को आसानी से देखा जा सकता है। तेजस्वी ने अपने मंत्रित्वकाल में लालू प्रसाद के समय के कुछ बेहद बदनाम किस्म के लोगों को अपने पास कभी फटकने नहीं दिया।

बहरहाल, राजद में तेजस्वी के करीबी सूत्र यह भी बताते हैं कि वे मुख्यमंत्री पद के लिए भी जल्दबाजी में नहीं हैं। वे अपनी कम उम्र का हवाला देकर कहते हैं कि उनके पास बहुत समय है। यह वक्त सीखने का है। और धीरे-धीरे ही सही बड़ी संजीदगी से अपनी छवि पर ध्यान दे रहे हैं। लालू भी यही चाहते हैं।

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