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बीता सुधार का वक्त

यह बजट फिस्कल, मॉनेटरी और पॉलिटिकल तीनों मोर्चों पर सरकार के लिए बड़ी परीक्षा साबित होने वाला है। अगर सरकार सुधारों से जुड़े फैसले पहले तीन साल में कर लेती तो राजनीतिक मोर्चे पर हालात सरकार के हक में ज्यादा दिखते
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली

इक्कीस साल बाद भारत का कोई प्रधानमंत्री वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में शिरकत करने दावोस जाने वाला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वहां एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल भी जाएगा। असल में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम आर्थिक उदारीकरण को प्रमोट करने वाला हाई-प्रोफाइल क्लब है और उसमें हार्वर्ड वालों की ही शिरकत ज्यादा है। हालांकि करीब डेढ़ दशक तक धमक के बाद पिछले कुछ बरसों में इसकी चमक फीकी पड़ी है। इसके पहले संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा फोरम की बैठक में दावोस गए थे।

यही नहीं, हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने अर्थशास्त्रियों के साथ एक बैठक की। यह सब तब हो रहा है जब देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर 6.5 फीसदी पर आ गई है जो पिछले चार साल में सबसे कम है। ऐसे में मोदी सरकार आगामी एक फरवरी को अपना अंतिम पूर्ण बजट पेश करेगी। यह बजट वित्त मंत्री अरुण जेटली की सबसे बड़ी परीक्षा होगी क्योंकि आर्थिक मोर्चे पर परिस्थितियां उनके प्रतिकूल हो गई हैं। यह कुछ-कुछ पहली एनडीए सरकार के शुरुआती दौर जैसा है जब तमाम आर्थिक मुश्किलें थीं। लेकिन जब वह सरकार ‘शाइनिंग इंडिया’ के नारे के बाद विदा हो रही थी तो देश की अर्थव्यवस्था के मुख्य कारक सुधर रहे थे।

लेकिन इस बार हालात उससे उलट थे। 2014 में देश को नई उम्मीदों के साथ ‘अच्छे दिन’ का सपना दिखाकर 30 साल बाद किसी अकेली पार्टी भाजपा को बहुमत हासिल हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए सरकार बनी। उसके पहले यूपीए-2 सरकार पर तमाम घपले-घोटालों के आरोपों के बावजूद अर्थव्यवस्था की तस्वीर सुधर रही थी। उस समय के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की कोशिशों से महंगाई काबू में आ रही थी और राजकोषीय संतुलन सुधरने के साथ ही रुपया अपने सबसे कमजोर स्तर से उबर रहा था। सही मायने में कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को एक बेहतर होती अर्थव्यवस्था मिली थी।

उस समय सरकार के लिए बेहतर राजनैतिक और आर्थिक माहौल में कड़े आर्थिक सुधार लागू करने की माकूल परिस्थितियां मौजूद थीं। तेल की कम होती कीमतों ने सरकार को करीब एक लाख साठ हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व पेट्रोल और डीजल पर बढ़ाई गई एक्साइज ड्यूटी के रूप में दिया। भारतीय रिजर्व बैंक ने कुछ समय बाद ब्याज दरों में कटौती भी की। उस समय के रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने बैंकों के खातों को ज्यादा पारदर्शी बनाने के नियम से उनकी गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की स्थिति भी काफी साफ कर दी थी। तब एनपीए करीब पांच लाख करोड़ रुपये था।

वही वह मौका था जब मोदी सरकार कड़े आर्थिक सुधार लागू कर सकती थी। लेकिन सरकार ने करीब ढाई साल बिना कोई बड़ा फैसला लिये गंवा दिए। उसके बाद जो बड़े फैसले लिए वह सुधरती इकोनॉमी को झटका देने वाले थे। पहला कड़ा फैसला नवंबर, 2016 में लिया गया नोटबंदी था। दूसरा बड़ा फैसला जुलाई, 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने का था। उसके बाद बैंकों के बढ़ते एनपीए के संकट को हल करने के लिए बैंकरप्सी ऐंड इनसोलवेंसी कोड के साथ सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का फैसला लिया गया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। बैंकों का एनपीए दस लाख करोड़ रुपये को पार कर गया। नोटबंदी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी कर दी।

बढ़ती महंगाई ने ब्याज दरों के सस्ते होने की उम्मीद धुंधली कर दी है और वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतें अब 60 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई हैं, जो सरकार के पहले तीन साल में 30 से 40 डॉलर के बीच थीं। यानी अब महंगाई का डर बढ़ गया है। जीएसटी की दिक्कतों से राजस्व संग्रह के मोर्चे पर अनिश्चितता है। फिर राजकोषीय घाटा समय से पहले ही लक्ष्य के करीब पहुंच गया है। सो, सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी की क्षमता घट गई है। 

अब अरुण जेटली को ऐसा बजट पेश करना है जो कृषि क्षेत्र की टूटती वृद्धि दर को गति दे सके और किसानों की बढ़ती नाराजगी को कम कर सके। कमजोर कीमतों और अनिश्चितता के दौर में असंगठित क्षेत्र किसानों के काम आता रहा है लेकिन नोटबंदी और जीएसटी ने इस क्षेत्र को समेटने का काम किया है। निजी क्षेत्र का निवेश नहीं बढ़ने से युवाओं को रोजगार देने का दबाव बढ़ रहा है।

फिर मुखर रहने वाला मध्य वर्ग आय कर में राहत की उम्मीद पाले रहता है तो चुनावी साल के पहले अंतिम पूर्ण बजट में कुछ तो उसके लिए भी करना होगा। ऐसा होता है तो कॉरपोरेट कर की दर में पांच फीसदी की कमी का जो कैलेंडर सरकार ने घोषित कर रखा है उस पर अमल कैसे होगा। सही मायने में फिस्कल, मॉनेटरी और पॉलिटिकल तीनों मोर्चों पर सरकार के लिए यह बजट एक परीक्षा साबित होने वाला है। अगर सरकार सुधारों से जुड़े फैसले पहले तीन साल में लागू कर देती तो राजनीतिक मोर्चे पर हालात सरकार के हक में ज्यादा दिखते।  

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