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यह तो होना ही था

नए कॉलेज खोलने पर अंकुश, गुणवत्तापूर्ण कौशल विकास और गैर-कृषि रोजगार बढ़ाने से बदलेंगे हालात
बस नाम केः निजी संस्थािनों की गुणवत्ता पर उठ रहे सवाल

आजादी के समय देश की साक्षरता दर केवल 18 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 74 प्रतिशत हो गई। पिछले छह-सात साल में यह और तेजी से बढ़ी है। 2007 में प्राथमिक स्तर पर दाखिले की दर 97 प्रतिशत थी। इसका मतलब है कि 6-11 साल की उम्र के तकरीबन सभी बच्चे अब स्कूल जा रहे हैं। लेकिन, इस स्थिति में पहुंचने में हमें 60 साल लग गए। प्राइमरी दाखिला दर में इजाफे का असर ऊपर के स्तरों पर होना तय था। अपर प्राइमरी यानी छठी, सातवीं और आठवीं कक्षा में दाखिला दर 90-95 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। शिक्षा का अधिकार कानून के दायरे में छह साल से चौदह साल की उम्र के बच्चे आते हैं। इसका मकसद पहली से आठवीं कक्षा तक की शिक्षा सभी बच्चों को मुहैया कराना है। इसका असर और ऊंचे स्तरों पर पड़ा और दबाव नीचे से ऊपर की ओर बढ़ा। दाखिले की दर बढ़ने से शिक्षा के मामले में वर्ग और लड़के-लड़की का फर्क घटता गया है।

इसका असर यह हुआ कि माध्यमिक शिक्षा यानी नौवीं-दसवीं के स्तर का 2010-15 के बीच बिलकुल कायाकल्प हो गया। 15-16 साल के आयु वर्ग के बच्चों की दाखिला दर 2010 में 58 प्रतिशत से बढ़कर 2015 में 85 प्रतिशत पर पहुंच गई। इनमें आधी लड़कियां थीं। बिहार में नीतीश कुमार ने नौंवी की छात्राओं के लिए साइकिल योजना शुरू की। हर प्रदेश में इसी तरह हुआ। इससे उत्तर और पूर्व के प्रदेश जहां साक्षरता और दाखिले की दर कम थी, उनका कायाकल्प हो गया। जाहिर है, इसका असर उच्च शिक्षा पर भी पड़ा। इस दौर में लोगों की आमदनी भी बढ़ी। 2004 के बाद तो खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में भी आमदनी बढ़ी। उच्च शिक्षा में 2006 में दाखिला दर 11 प्रतिशत थी, जो आज बढ़कर 25 प्रतिशत हो गई है।

स्कूली शिक्षा की सूरत 1991 के बाद बदली, जब देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी। आजादी के बाद पहले कुछ वर्षों में स्कूली शिक्षा पर बिलकुल तवज्जो नहीं दी गई थी। पहली पंचवर्षीय योजना में तो इस क्षेत्र में थोड़ा-बहुत जोर था, लेकिन बाद में उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। 1950-90 के बीच शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों के कुल व्यय का 25-30 फीसदी उच्च शिक्षा पर खर्च होता था। इसके कारण उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी विश्वविद्यालय तेजी से फैले। ऐसा उस समय की औद्योगिक नीति के कारण हुआ। औद्योगिकीकरण और ढांचागत निर्माण पर सरकार का जोर होने के कारण मानव संसाधन पैदा करने को प्रमुखता दी गई। जब देश की अधिकांश आबादी निरक्षर हो, सभी लोगों तक स्कूल की पहुंच नहीं हो, ऐसे में उच्च शिक्षा पर कुल शिक्षा व्यय का एक चौथाई हिस्सा खर्च करना छोटी बात नहीं है।

1991 की जनगणना के आंकड़ों से पता चला कि साक्षरता दर केवल 52 प्रतिशत है। इससे सरकार की नींद उड़ गई और सरकार का सारा जोर प्राथमिक शिक्षा पर जाने लगा। इस कारण उसने 90 के दशक में उच्च शिक्षा को बिलकुल नजरअंदाज कर दिया। इस वजह से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र खूब पनपा। खासकर, इंजी‌‌नियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए प्राइवेट कॉलेजों की बाढ़ आ गई। 2006 में भारत में उच्च शिक्षा स्तर पर निजी कॉलेजों में दाखिले का कुल अनुपात 54 प्रतिशत था, जो 2012 में बढ़कर 59 प्रतिशत हो गया। मतलब हर पांच में से तीन बच्चे उच्च शिक्षा के लिए प्राइवेट कॉलेज का रुख कर रहे थे। 2007-12 की पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा के लिए आवंटन 20 हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर 90 हजार करोड़ रुपये किया गया, लेकिन तब तक प्राइवेट सेक्टर इतना बढ़ गया था और लोगों की आय इतनी तेजी से बढ़ रही थी कि वे किसी भी प्रकार से शिक्षा हासिल करना चाहते थे।

इन संस्‍थानों की निगरानी के लिए यूजीसी और एआइसीटीई है। निजी क्षेत्र में भयानक रूप से भ्रष्टाचार बढ़ा, जिसे रोकने की क्षमता इन संस्थानों में नहीं थी। 2009 में मैं एआइसीटीई काउंसिल का सदस्य बना। जब मैं पहली बैठक में गया तो पता चला कि संस्‍था के चेयरमैन सहित 26-27 आला अधिकारियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज था। शीर्ष सात अधिकारी तो जेल में थे।

यूजीसी ने भी बेतरतीब तरीके से मंजूरी दी। राज्य की यूनिवर्सिटी से संबद्धता हासिल कर निजी कॉलेज चलाने की देश में परंपरा बन गई। आज देश में 895 यूनिवर्सिटी हैं और इन में से जो राज्य या केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, उन्होंने 42 हजार से ज्यादा कॉलेजों को मान्यता दी है। आखिर इतने कॉलेजों की निगरानी इतनी कम यूनिवर्सिटियां कैसे करेंगी। 2000-16 के बीच देश में रोजाना औसतन चार कॉलेज खुल रहे थे। शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते डिमांड को देख नेताओं ने संस्‍थान खोले, क्योंकि उन्हें कालेधन को सफेद करने का यह बढ़िया तरीका लगा। जो जन-प्रतिनिधि संस्‍थान खोल रहे थे, वही चेयरमैन की नियुक्ति कर रहे थे, वही कॉलेजों को मंजूरी भी दिलवा रहे थे।

जिस बेतरतीब तरीके से निजी संस्‍थानों को मंजूरी दी गई, उसका खामियाजा संस्‍थानों, जनता और बच्चों को भुगतना ही था और वही हो रहा है। कॉलेज खुल रहे थे, बच्चे लोन ले रहे थे, अच्छी नौकरी की उम्मीद में मां-बाप पैसे लगा रहे थे, पर शिक्षक नहीं थे। जब इतनी तेजी से कॉलेज बढ़ेंगे तो शिक्षक कहां से आएंगे।

2000-12 के बीच गैर-कृषि क्षेत्र में 75 लाख नौकरियां पैदा हुईं। 2004-05 के बाद में श्रम बाजार में काम की तलाश करने वाले युवाओं की तादाद 20 लाख ही थी। लिहाजा, गांवों और कृषि से पलायन तेजी से हुआ। नौकरी बढ़ने के कारण 2004-05 और 2011-12 के बीच तीन करोड़ 70 लाख लोगों ने कृषि क्षेत्र से पलायन किया। मतलब 50 लाख लोग सालाना खेती छोड़ रहे थे। गैर-कृषि रोजगार अच्छी रफ्तार से बढ़ने का कारण विकास दर में तेजी थी। आजादी के बाद तीन दशक तक जीडीपी 3.5 फीसदी थी और जनसंख्या 2.5 फीसदी की दर से बढ़ रही थी। इसके कारण प्रति व्यक्ति आय एक फीसदी सालाना ही बढ़ रही थी। आठवें दशक के बाद विकास दर बढ़ी और जनसंख्या बढ़ने की दर में कमी आई। आय बढ़ने के कारण उसके बाद जन्मी पीढ़ी स्कूल और फिर यूनिवर्सिटी जाने लगी। हर स्तर पर दाखिले बढ़ गए। इसके कारण श्रम क्षेत्र में जाने वालों की तादाद में कमी आई। फिर जो पढ़ रहे हैं वे आधुनिक सेवाओं, ऑफिस, कंपनी में काम करना चाहते हैं। जो पहले नहीं पढ़ पाते थे अब पढ़ रहे हैं, उनमें ज्यादातर ग्रामीण इलाकों के बच्चे हैं। पढ़ाई पूरी होने के बाद ये खेती नहीं करना चाहते। ग्रामीण इलाके को छोड़ शहरों में आना चाहते हैं। ऐसे में कृषि से पलायन पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए। वैसे यह होना भी चाहिए क्योंकि विकास का मतलब ही स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉरमेशन है।

आज हम भले ही दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्‍था हों पर पिछले चार-पांच साल से रोजगार बढ़ने की गति में कमी आ रही है। 2011-12 तक जिस तेजी से नौकरियां पैदा हो रही थीं, वह अब नहीं हो रहा है। इसकी शुरुआत यूपीए सरकार के आखिरी दो साल में हो चुकी थी। पिछले चार-पांच साल में अर्थव्यवस्था में निवेश घटकर 38 से 29 फीसदी हो चुका है। नौकरी बढ़ने की दर इतनी कम हो गई कि पढ़े-लिखे बच्चे अब गांव नहीं छोड़ रहे। अपना पेशा कृषि बता रहे हैं। 2011-12 और 2015-16 के बीच कृषि को पेशा बताने वाले 15-29 साल उम्र के लोगों की संख्या तीन करोड़ बढ़ी।

रोजगार नहीं बढ़ रहा, निवेश दर घट रही है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल रही, मांग कम हो चुकी है, नौकरियां बढ़ नहीं रहीं और ज्यादा से ज्यादा लोग किसी भी तरह उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं। नौकरी नहीं है तो एजुकेशन लोन में डिफॉल्ट बढ़ना ही है। ऐसे में नोटबंदी और जीएसटी से पूरी व्यवस्‍था को झटका लगा। इस तरह आज जो हम देख रहे हैं, वह चौंकाता नहीं है। यह तो होना ही था।

इस स्थिति से उबरने के लिए सरकार को तीन स्तर पर एक साथ कदम उठाने होंगे। एक, जिन कॉलेजों को बेतरतीब तरीके से मंजूरी दी गई है, उन्हें बंद करना होगा। कम से कम अब नए कॉलेज खोलने की इजाजत तो नहीं दी जानी चाहिए। यूजीसी, एआइसीटीई में सुधार करना होगा। डिमांड घटने पर कुछ प्राइवेट कॉलेज खुद ब खुद बंद हो जाएंगे। केंद्र और राज्य को शिक्षा में अपना निवेश बढ़ाना होगा, जिससे अध्यापकों की संख्या बढ़े। दूसरे, उच्च शिक्षा की मांग में कमी लानी होगी। इसके लिए नवीं से बारहवीं तक कौशल प्रदान करने वाले गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रमों की जरूरत है। पाठ्यक्रम की अवधि और क्वालिटी बढ़ानी होगी। तीन-चार महीने के पाठ्यक्रम से गुणवत्तापूर्ण कौशल प्रदान करना संभव नहीं है। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हो पाता। गुणवत्तापूर्ण कौशल के बाद जब अच्छी नौकरी मिलेगी तो उच्च शिक्षा की मांग में कमी आएगी। तीसरे, उद्योग, निर्माण, खनन और आधुनिक सेवा क्षेत्रों में नौकरी बढ़ानी होगी। कृषि में रोजगार बढ़ाने से कुछ हासिल नहीं होगा, क्योंकि पढ़ा-लिखा आदमी खेती नहीं करना चाहता।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर और जस्टजॉब्स नेटवर्क के वरिष्ठ सलाहकार हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च के महानिदेशक रह चुके हैं)

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