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चुपके-चुपके प्राइवेट के हवाले

राजस्थान सरकार की प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों को पीपीपी के तहत निजी हाथों में सौंपने की तैयारी
कब आएगा नंबरः कतार में खड़े मरीज

फटी जेब, बीमार जिस्म और लाचारी में गरीब के लिए सरकारी अस्पताल बदइंतजामी के बावजूद बड़ा सहारा रहे हैं। मगर राजस्थान में सरकार चुपके-चुपके सार्वजनिक चिकित्सा प्रणाली में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए भाजपा सरकार ने राज्य के 299 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को चिह्नित किया है। इन केंद्रों को एक-एक कर निजी क्षेत्रों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी मॉडल) के तहत सौंपा जा रहा है। प्रतिपक्ष इसे बहुत मुखरता से उठा नहीं पाया है। लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता इस मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। केंद्र सरकार भी इतने बड़े पैमाने पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को निजी संस्थानों को सौंपे जाने पर हैरान है। मगर राज्य सरकार का कहना है कि यह कदम अवाम को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए उठाया गया है।

इससे पहले भाजपा सरकार ने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार की मुफ्त दवा योजना को बदल दिया। कोई दो साल पहले भाजपा सरकार ने उसकी जगह भामाशाह स्वास्थ्य योजना लागू कर दी। सरकार का दावा है कि यह योजना मुफ्त दवा स्कीम से कहीं ज्यादा अच्छी है। लेकिन जानकार कहते हैं कि निःशुल्क दवा योजना बीमारी में गरीब आदमी के लिए नियामत थी। राजस्थान में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक नवीन जैन कहते हैं, ‘‘भामाशाह योजना आम अवाम के लिए बहुत कारगर साबित हुई है। यह पूर्ववर्ती मुफ्त दवा योजना से बेहतर परिणाम दे रही है।’’

राजस्थान में 2082 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं जिन्हें सरकारी डिस्पेंसरी कहा जाता है। ये डिस्पेंसरी बीमारी में दूरस्थ इलाकों और आम आदमी के लिए बड़ा संबल हैं। लेकिन सरकार ने अचानक 2015 में इनमें से कुछ स्वास्थ्य केंद्रों को सरकार और निजी क्षेत्र की सहभागिता में चलाने का निर्णय कर लिया। इसके तहत निजी क्षेत्रों को स्वास्थ्य केंद्र चलाने की दावत दी गई। सरकार ने निविदा आमंत्रित कर 299 डिस्पेंसरी पीपीपी मॉडल पर चलाने के लिए निजी संगठनों से सहयोग मांगा। निजी संगठन तो इसके लिए तैयार ही बैठे थे। इसके तहत हाल में शहरी क्षेत्र के 43 प्राथमिक केंद्रों को लेकर निजी संगठनों के साथ करार किया गया है।

राज्य सरकार की दलील है कि ये वो स्वास्थ्य केंद्र हैं जो या तो आदिवासी बहुल इलाकों में हैं या उपेक्षित दूरस्थ क्षेत्रों में हैं। लेकिन स्थिति सरकारी दावों से मेल नहीं खाती है। इनमें ऐसे क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं जो शहरी क्षेत्र में हैं और पहुंच के लिहाज से राष्ट्रीय मार्गों के निकट हैं। विवाद बढ़ा तो एक गैर सरकारी संगठन ‘जन स्वास्थ्य अभियान’ ने इसे अदालत में चुनौती दी। इस संगठन ने राजस्थान हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा है कि सरकार का यह कदम राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के खिलाफ है। अदालत ने राज्य सरकार से जवाब तलब किया है।

लंबा इंतजारः इलाज तो मयस्सर नहीं पर लंबी हैं इंतजार की घड़ियां

अभियान के डॉ. नरेंद्र गुप्ता कहते हैं, ‘‘सरकार निजी क्षेत्र को जान-बूझकर बढ़ावा दे रही है। इससे आम आदमी के लिए इलाज महंगा हो जाएगा और इस क्षेत्र को मुनाफे के लिए खोल दिया जाएगा। क्योंकि इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था लड़खड़ाकर गिर जाएगी।’’ इस वाद-विवाद के बीच पिछले दिनों राजधानी जयपुर में शहर के नौ प्राथमिक केंद्रों को निजी संस्थाओं को सौंपने के समझौता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए गए। अब इन केंद्रों को निजी सहभागिता से चलाया जाएगा। इन सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के कर्मचारियों का तबादला किया जा रहा है ताकि निजी संस्थाएं इन केंद्रों को अपने दम पर चला सकें। जयपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. नरोत्तम शर्मा ने मीडिया से इसकी पुष्टि की है।

सरकार का करार है कि वह इन संस्थाओं को प्रति केंद्र सालाना एक मुश्त तीस लाख रुपये देगी। इसके साथ केंद्र के उपकरण, फर्नीचर, मेडिकल रिकॉर्ड और साधनों का इस्तेमाल करने की भी छूट दी गई है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्राथमिक केंद्र चिकित्सा की बुनियादी धुरी हैं। प्राइवेट संस्थाएं यहां से मरीजों को अपनी चाहत के प्राइवेट अस्पतालों में भेजने का काम करेंगी। सामाजिक कार्यकर्ता छाया पंचोली कहती हैं, ‘‘कोई भी प्राइवेट संस्था मुनाफे की मुराद लेकर ही इस क्षेत्र में दाखिल होती है। वे भला गरीब का ख्याल क्यों रखेंगी।’’ देश के चिकित्सा और स्वास्थ्य क्षेत्र में इससे पहले भी निजी सहभागिता को प्रोत्साहित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। कर्नाटक ने आरोग्य बंधु योजना शुरू की और अपने स्वास्थ्य केंद्रों को पीपीपी मॉडल की तर्ज पर निजी संस्थाओं को देना शुरू किया। मगर जल्द ही कर्नाटक को एहसास हो गया कि निजी क्षेत्र का सरोकार सिर्फ मुनाफे से है। कर्नाटक ने बिना वक्त गंवाए इस योजना से अपने हाथ खींच लिए। मगर उसी वक्त यह निजी सहभागिता योजना राजस्थान को पसंद आ गई। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल में वर्ष 2014-15 का नेशनल हेल्थ अकाउंट जारी किया है। उसमें राजस्थान उन राज्यों में शुमार बताया गया है जहां सरकारी स्तर पर प्रति व्यक्ति खर्च बहुत कम है। इस रिपोर्ट के मुताबिक बीमारी की सूरत में लोग इलाज का ज्यादातर खर्चा अपनी जेब से ही करते हैं।

राज्य सरकार ने जब बड़े पैमाने पर प्राइवेट की तरफ कदम बढ़ाए तो केंद्र सरकार का माथा ठनका। केंद्र में स्वास्थ्य मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव सी. के. मिश्रा ने राज्य सरकार को चिठ्ठी भेज कर इस पर एतराज जताया। उन्होंने कहा कि ऐसी कोई भी योजना छोटे पैमाने पर पायलट स्कीम के रूप में शुरू की जाती है। एक साथ 299 स्वास्थ्य केंद्रों को निजी सहभागिता में सौंपना केंद्र सरकार को ठीक नहीं लगा। मगर केंद्र की इस आपत्ति का कोई असर नहीं हुआ।

राज्य सरकार को प्राइवेट में अधिक विश्वास है। इसीलिए जयपुर के एस.एम.एस. अस्पताल में डाइग्नोस्टिक जांच भी प्राइवेट हाथों में सौंप दी गई। लेकिन इसके अच्छे नतीजे नहीं रहे। इस पर सबसे पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने ही एतराज किया। इस अस्पताल में सालाना चार करोड़ रुपये से ज्यादा की जांच होती है। यह प्राइवेट अस्पतालों को दी गई है। बाद में हिसाब निकाला गया कि इतने पैसे में सरकार खुद अपनी ही मशीनें लगा सकती थी। यहां सरकार प्राइवेट संस्था को हर माह चालीस लाख रुपये का भुगतान करती है। इसमें एमआरआइ जैसी महंगी जांचें भी शामिल हैं। मेडिकल काउंसिल ने यह कह कर आपत्ति की कि इसमें डाइग्नोस्टिक जांच पढ़ाई का हिस्सा है। अगर जांच आउटसोर्स कर दी गई तो डॉक्टर और नर्सिंग विद्यार्थी पढ़ेंगे कैसे? सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है।

 

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