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नई कोशिशों का जमा-हासिल

नए लेखकों और उपेक्षित भाषा-बोलियों के साहित्य पर जोर से किताबों की बिक्री और नए इलाकों में पहुंच बढ़ी
पुस्तकों का अपना न्यासः नेशनल बुक ट्रस्ट का दिल्ली कार्यालय

किताबें छपें और लोगों तक न पहुंचें तो उनका छपना व्यर्थ है। फिर नई पीढ़ी और उपेक्षित इलाकों की संभावनाएं न खंगाली जाएं तो नए विचारों का प्रवेश वर्जित-सा रहता है। केंद्र में सरकार बदली और नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) की जिम्मेदारी बल्देव भाई शर्मा को मिली तो उन्होंने इस दिशा में आगे बढ़ने की योजनाएं बनाईं। चुनौती बड़ी थी क्योंकि जो संस्‍था राष्‍ट्र-निर्माण में अहम भूमिका निभाती रही हो और जिसके मुखिया देश में शिखर के बुद्धिजीवी रहे हों, उसकी परंपरा का निर्वाह भी जरूरी था और बदली राजनीतिक संस्कृति का भी ध्यान रखना था। लेकिन अपना काम चुपचाप शिद्दत से करने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार शर्मा को तीन साल बाद बिना बहुत विवादों के नए क्षेत्रों को खंगालने का संतोष है।

सरकार बदली तो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले स्वायत्त प्रकाशन संस्थान पर भी कई जोड़ी आंखें लगी थीं। विचार था कि सरकार का प्रभाव न्यास पर जरूर पड़ेगा। यह सच है कि सरकार की सोच और विचार का प्रभाव इस पर पड़ा और इसी कारण पुस्तक प्रकाशित करने वाले संस्थान ने स्किल इंडिया और संस्कृत के प्रचार-प्रसार के कार्यक्रम भी शुरू कर दिए।

किताबों के प्रकाशन के साथ-साथ न्यास ने पिछले साल से प्रकाशन उद्योग में रोजगार के अवसर दिलाने के लिए सात दिन का एक क्रैश कोर्स शुरू किया है। विश्वविद्यालय या कॉलेज में जाकर इसका वर्कशॉप आयोजित किया जा रहा है। प्रकाशन उद्योग से जुड़ी जानकारी छात्रों को नये क्षेत्र के रोजगार के बारे में बता रही है। लेकिन न्यास अपना मुख्य उद्देश्य पुस्तकें छापना और उन्हें लोगों तक पहुंचाना भूला नहीं है। किताबों को कैसा रेस्पांस मिलता है यह उनकी बिक्री से ही साबित होता है। न्यास की 13 भाषाओं में छपी पुस्तकों की बिक्री का आंकड़ा बताता है कि 2014-15 में साढ़े बारह लाख की किताबें बिकी थीं। 2015-16 में यह आंकड़ा 15 लाख 71 हजार पहुंच गया तो 2016-17 में 15 लाख 52 हजार की पुस्तकें न्यास की ऑनलाइन और बुक्स ऑन वील्स से बिकीं।

भाषाओं की ताकत

हिंदी के प्रचार-प्रसार में कई बार दूसरी भाषाएं दब जाती हैं। लेकिन नये चेयरमैन के आने के बाद मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका जैसी भाषाओं के अलावा संस्कृत में गांधी तत्व शतकम पुस्तक लाने के साथ-साथ वाराणासी में संस्कृत पुस्तक मेला भी लगाया था। इससे भी महत्वपूर्ण काम काकबरक भाषा के लिए किया गया। काकबरक सुदूर उत्तर-पूर्व की भाषा है। बच्चे इससे जुड़े रहें इसके लिए काकबरक भाषा के विद्वान और चित्रांकन करने वालों को बुला कर बच्चों के लिए इस भाषा में किताब तैयार कराई गई।

सिर्फ पढ़ो नहीं, लिखो भी

न्यास के अध्यक्ष बल्देव भाई शर्मा कहते हैं, ‘‘न्यास पहले युवा लेखकों की किताबें प्रकाशित नहीं करता था। पर मेरा मानना है कि यदि नये लोगों को आगे नहीं लाया जाएगा तो लेखकीय परंपरा का विस्तार कैसे होगा।’’ न्यास के साठ साल के इतिहास में पहली बार युवा लेखकों की किताबें प्रकाशित हुई हैं। ‘नव लेखनमाला’ नाम की इस योजना को बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला।’’ न्यास नये लेखकों को अपनी भाषा में लिखने के लिए प्रोत्साहित करता है।

उपलब्धता की सुगमता

एनबीटी न केवल पुस्तकों का प्रकाशन करता है बल्कि पुस्तकों के प्रचार प्रसार के लिए भी काम करता है। बुक कल्चर को प्रमोट करना, रीडिंग हैबिट बढ़ाना, पुस्तकों के माध्यम से भी और कार्यक्रमों के माध्यम से भी। इसके लिए अलग-अलग क्षेत्रों में पुस्तक मेले लगाए जाते हैं ताकि उस क्षेत्र को पुस्तकें बड़ी तादाद में उपलब्ध हो सकें। वहां ट्रस्ट उस क्षेत्र के प्रमुख प्रकाशकों को उनकी भाषा की पुस्तकों के साथ आमंत्रित करता है जो उस क्षेत्र में पढ़ी-बोली जाती हैं। चेयरमैन कहते हैं, ‘‘अपने कार्यकाल में मैंने तय किया कि पुस्तक मेले छोटी-छोटी जगहों पर लगें। बड़ी जगहों पर तो पुस्तक मेले लगते रहे हैं। रांची में पुस्तक मेला हमने लगाया तो बड़ी लोकप्रियता मिली। जोधपुर, शिलॉन्ग, अगरतला ऐसी जगहों पर भी न्यास पुस्तकें लेकर पहुंचा।’’ पुस्तक परिक्रमा बसें जिन्हें बुक्स ऑन वील्स कहा जाता है, गांव-कस्बों में जाती हैं। हर बार अलग राज्य और उसके नये जिले का चुनाव होता है। कई आदिवासी क्षेत्रों में तो लोग बस का आत्मीय स्वागत करते हैं।

हर हाथ एक किताब

जब हर हाथ स्मार्ट फोन हो सकता है तो हर हाथ किताब भी हो सकती है। ट्रस्ट के अध्यक्ष की योजना है कि आने वाले सालों में हर हाथ एक किताब हो। वह कहते हैं, ‘‘मैं जानता हूं तुरंत सफल होने वाला काम नहीं है। इसे होने में लंबा वक्त लगेगा लेकिन हमने शुरुआत कर दी है। इसका लक्ष्य है, दस साल। शुरुआत बहुत अच्छी है। हमारा प्रयास यह है कि छपी हुई किताब ज्यादा पढ़े इससे लोगों में किताब के प्रति अनुराग बढ़ता है। क्योंकि छपी हुई किताब ज्यादा आश्वस्ति देती है।’’

हालांकि वह यह भी मानते हैं कि डिजिटल का जमाना है। प्रधानमंत्री डिजिटल इंडिया की बात करते हैं। इसके लिए ई-बुक्स प्रोजेक्ट भी शुरू किया है। दृष्टिबाधित लोगों के लिए ब्रेल लिपि और ऑडियो बुक्स का प्रकाशन किया है लेकिन हर हाथ में किताब देखना उनका सपना है। माइक्रोसॉफ्ट के साथ ऑडियो बुक्स बन रही हैं। ई बुक्स में फॉन्ट या किसी अन्य तरह की परेशानी न आए इसके लिए सीडेक के साथ एक एमओयू साइन किया है।

 

किताबें राष्‍ट्रीयता बोध भी जगाएं तो बेहतर

नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बल्देव भाई शर्मा से ट्रस्ट की नई गतिविधियों और उनके नतीजों पर आउटलुक की बातचीत के कुछ अंशः

 

आप न्यास की क्या भूमिका देखते हैं?

मेरा मानना है कि देश का समाज, खासकर नौजवानों को सिर्फ किताबी ज्ञान होना पर्याप्‍त नहीं है। उन्हें भारत की संस्कृति, सभ्यता का भी ज्ञान होना चाहिए। भारत की ज्ञान संपदा जीवन मूल्यों पर आधारित है। भारत की संस्कृति, भारत की राष्‍ट्रीयता, भारत के सामाजिक सरोकार और भारत की मनुष्यता की देन, वैश्विक जागरण ये जो सारी बातें पुस्तकों के माध्यम से देशवासियों खासकर नौजवानों और बच्चों तक पहुंचनी चाहिए। ताकि वे केवल ज्ञान- संपन्न बनने के बजाय राष्‍ट्रीयता के बोध से भरे हों। न्यास इसी का प्रयास करता है।

इसके लिए न्यास के अध्यक्ष होने के नाते आपकी क्या भूमिका रही?

यह पुस्तकों के प्रकाशन का केंद्र है तो स्वाभाविक है लोगों के मन में भाव होता है कि किताबें लिखना-पढ़ना ज्ञानियों का काम है। जबकि भारत में लोक-ग्रामीण जीवन है जहां अनपढ़ भी ज्ञानी रहे हैं। मैंने महसूस किया कि राष्‍ट्रीय पुस्तक न्यास बौद्धिक लोगों का केंद्र ज्यादा था। संभ्रांत वर्ग के बुद्धिजीवी। मुझे लगा एक तबका है जो इससे अब तक जुड़ नहीं पाया है। ऐसे लोगों में अनुभूति नहीं है कि राष्‍ट्रीय पुस्तक न्यास हमारे लिए भी कुछ करता है या हम भी राष्‍ट्रीय पुस्तक न्यास के काम में भागीदार हो सकते हैं।

आपने इन्हें कैसे जोड़ा?

मेरे पास माध्यम किताबें ही थीं। हम विभिन्न कार्यक्रमों और पुस्तकों के जरिये ग्रामीण, कस्बाई क्षेत्रों तक पहुंचे। विभिन्न क्षेत्रीय भाषा-बोलियों को जोड़ कर आगे बढ़ाने का काम किया।

किस तरह की सामग्री न्यास ने जुटाई?

न्यास तीस से ज्यादा भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करता है। हमने तय किया कि दूसरी भाषाओं पर भी ध्यान दिया जाए। बिहार में मैथिली, मगही, भोजपुरी में पुस्तकों का प्रकाशन किया। अंगिका-बज्जिका पर काम चल रहा है। झारखंड में मंडारी-संथाली पर काम शुरू हो गया है। बोलियों में भी बहुत अच्छी सामग्री है। इससे लोगों को लगता है कि उनकी भाषा-बोली में भी लिखने-पढ़ने का अवसर है। त्रिपुरा में काकबरक भाषा जनजातीय भाषा है। उसको लेकर अगरतला में तीन दिनों का वर्कशॉप किया। काकबरक भाषा के विद्वानों, बच्चों को और इलस्ट्रेटरों को बुलाया गया। ताकि बच्चों के लिए रोचक पुस्तकें प्रकाशित हों। वहां से जो कहानियां निकलीं उनमें दस पुस्तकों का चयन किया गया। मेरा मानना है कि क्षेत्रीय भाषा में प्रकाशन होगा तो उस क्षेत्र के लोगों की पुस्तकों में, साहित्य में रुचि अपने आप बढ़ेगी। अपनी भाषा से लगाव बढ़ेगा। बस्तर क्षेत्र की हरवी, गोंडी, भद्री ऐसी आठ बोलियां-भाषाएं हैं इनमें 20 पुस्तकों का प्रकाशन किया है। प्रयास है कि हर क्षेत्र को जोड़ सकें। उस क्षेत्र में न सिर्फ भाषा का सशक्तिकरण हो बल्कि तबका पुस्तकों से जुड़ाव महसूस कर सके।

हर हाथ एक किताब क्या है?

लोग जैसे जरूरतमंदों को कपड़े या दूसरी चीजें दान देते हैं तो किताबें क्यों नहीं दी जा सकती। कई लोग आर्थिक दिक्कतों की वजह से किताबें नहीं खरीद पाते। एनजीओ के माध्यम से रिक्वेस्ट आती है कि फलां विद्यालय में एनबीटी की पुस्तकों की आवश्यकता है। वहां पहुंचाई जाएं या वितरित की जाएं। 15 के करीब एनजीओ हमारे साथ जुड़ गए हैं। यह बहुत उत्साहवर्धक है।

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