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औरतों पर ही यह बोझ क्यों

किडनी देने वालों में लगभग 85 प्रतिशत महिलाएं जबकि पाने वालों में उनका प्रतिशत सिर्फ दस
अंगदान करने वालों में पुरुषों की संख्या होती है काफी कम

बेंगलूरू की सविता माहेश्वरी उस दिन को कभी भुला नहीं पातीं। उनका पति एक दिन आंखों में आंसू लिए आया और एक कागज उनकी ओर बढ़ाकर कहा, ‘‘अब मेरी जिंदगी तुम ही बचा सकती हो।’’ उस समय सारा परिवार खाने की मेज पर इकट्ठा था। वह शहर के सबसे बड़े अस्पताल के नेफ्रोलॉजिस्ट का प्रिस्क्रिप्शन था, जिसमें लिखा था, ‘‘उनकी किडनी अब इतनी खराब हो चुकी है कि डायलिसिस से काम नहीं चलेगा।’’ डॉक्टर ने किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह दी थी और डोनर लाने को कहा था। सविता निजी बैंक में काम करती हैं और उन्हें मालूम है कि पति उन्हें कतई प्यार नहीं करता। उन्हें शक है कि पति के एक से अधिक विवाहेतर संबंध भी हैं। सविता परिवार चलाने के लिए समझौता कर रही थीं लेकिन उनका दिल उस आदमी को किडनी देने को गवाही नहीं दे रहा था। उस दिन खाने की मेज पर तो वह किडनी देने पर सहमत हो गईं, लेकिन जब डॉक्टर के पास गईं तो उसे बता दिया कि वह किडनी देना नहीं चाहतीं। डॉक्टर ने आखिरकार बीच का रास्ता निकाला। उन्होंने सविता के पति को बताया कि ‘‘सविता किडनी देने के लिए फिट नहीं हैं।’’ इस तरह सविता की किडनी बच गई। सविता के पति ने कहीं और से किडनी का बंदोबस्त कर लिया।

सविता किस्मत वाली थीं। आम तौर पर ऐसे मौकों पर अकसर पत्नी, मां, बहन या बेटी को किडनी देनी पड़ती है। औरत को ऐसे मौकों पर ‘त्याग की मूर्ति’ बनना ही पड़ता है, न मानने का विकल्प उनके पास नहीं होता।

इस किस्से को बताते हुए आर्मी में कर्नल पद से सेवानिवृत्त डॉक्टर सजल सेन गंभीर हो जाते हैं। डॉक्टर सेन इस किस्से में सविता का असली नाम छिपा ले जाते हैं। सजल सेन ने आज से 19 साल पहले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक स्टडी की थी। एम्स में जबसे किडनी प्रत्यारोपण शुरू हुआ, तबसे लेकर 1999 तक जितने लोगों ने किडनी दान दी और जिन लोगों को किडनी दी गई, ऐसे 456 लोगों से संबंधित जानकारी उन्होंने जुटाई। सजल सेन बताते हैं, “मैं यह देखकर चौंक गया कि किडनी जिन लोगों को लगाई गई, उनमें से सिर्फ 10 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि किडनी देने वाली महिलाओं की संख्या 73 फीसदी है।” उनका यह अध्ययन आगे चलकर लगातार पुष्‍ट होता चला गया।

अहमदाबाद के इंस्टिट्यूट ऑफ किडनी डिसिसेज के अध्ययन से पता चला कि पति और पत्नियों बीच होने वाले किडनी डोनेशन में 92.6 प्रतिशत किडनी डोनर पत्नियां हैं। एम्स में अगला सर्वे 2003 से 2013 के बीच किया गया जिसमें पता चला कि किडनी डोनरों में पत्नियों की हिस्सेदारी 92.5 प्रतिशत है। उसके बाद एक और शोध आया, जिसमें यह आंकड़ा बढ़कर 98.4 प्रतिशत हो गया है यानी पति किडनी देने के मामले में कंजूस हैं।

दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेस के शिक्षक डॉक्टर कुलदीप कुमार कहते हैं, “किडनी की बीमारी की मुख्य वजहें इन्फेक्शन, हायपरटेंशन, डायबिटीज वगैरह हैं, उसमें महिला और पुरुष का कोई फर्क नहीं होता। पुरुषों में अगर किडनी खराब होने के मामले थोड़े से ज्यादा हैं तो उसकी वजह शायद शराबनोशी है, लेकिन इस वजह से कुल संख्या में खास फर्क नहीं पड़ता।” तो फिर ऐसा क्या है कि मर्दों को किडनी दान देने वाले मिल जाते हैं, जबकि औरतें किडनी के बगैर मर जाती हैं?

पीजीआइ, चंडीगढ़ और संजय गांधी पीजीआइ, लखनऊ के किडनी डोनेशन के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में किडनी देने वालों में बदलाव आया है। दस साल पहले जहां माता-पिता (मुख्य रूप से माताएं) सबसे ज्यादा किडनी देती थीं, वहीं अब पत्नियां (इक्का-दुक्का पति) सबसे ज्यादा किडनी दे रही हैं। पीजीआइ, चंडीगढ़ में 2002 से 2006 के बीच में माता-पिताओं ने 222 किडनी दीं। उसी दौरान विवाह संबंधियों ने सिर्फ 95 किडनी दीं। लेकिन 2009-2011 आते-आते हालात बदल गए। माता-पिता का आंकड़ा 163 रहा जबकि 165 विवाह संबंधियों ने किडनी दीं। एम्स दिल्ली में भी किडनी देने वालों में 27 प्रतिशत विवाह संबंधी हैं। पत्नियां किडनी देने वाली सबसे बड़ी समूह बन गईं। जो समूह किडनी देने में सबसे तेजी से पीछे हट रहा है वह बहन-भाई का है। 

पीजीआइ, चंडीगढ़ में किडनी डोनेशन पर शोध करने वाले वी. सखुजा और वी. कुमार के मुताबिक, “परंपरागत संयुक्त परिवारों की जगह अब एकल परिवार का चलन बढ़ रहा है। कहने को परिवार में माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन सभी आते हैं, लेकिन व्यवहार में पति-पत्नी और अवयस्क बच्चे ही साथ रहते हैं। ऐसे में किडनी देने का दायित्व करीबी परिवार पर आ जाता है। साथ ही, बहन की शादी के बाद किडनी देने के उसके फैसले पर पति और ससुराल वालों का असर होता है।” 

भारत में अंगदान का चलन वैसे भी कम है। लोग अपने परिजनों की मृत देह तक से अंग निकालने की इजाजत नहीं देते। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसी साल 8 अगस्त को संसद में जानकारी दी कि “देश में हर साल दो लाख किडनी प्रत्यारोपण की जरूरत है लेकिन सिर्फ 3,000 किडनी प्रत्यारोपण ही हर साल हो पाते हैं।” सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिन लोगों को किडनी की जरूरत है, उनमें से 90 प्रतिशत को किडनी कभी नहीं मिल पाती और वे असमय मर जाते हैं। इसलिए किडनी को लेकर इतनी मारामारी मची है।

दरअसल, यह फैलाई हुई धारणा है कि औरतें आसानी से किडनी डोनेट कर देती हैं और उनमें त्याग की भावना ज्यादा होती है। हाल में हैदराबाद में हुई एक स्टडी से पता चला है कि आर्थिक हैसियत बढ़ने और जीवनयापन के लिए आजाद होने के बाद महिलाएं आसानी से किडनी नहीं दे रही हैं। महिलाओं के मामले में किडनी दान अपने आप में गलत शब्द है। दरअसल, ज्यादातर मामलों में महिलाओं से किडनी ले ली जाती है।

किडनी दो तरीके से ट्रांसप्लांट की जा सकती है - मृत देह से निकालकर या फिर जीवित व्यक्ति की एक किडनी लेकर। भारत में जीवित व्यक्ति से किडनी लेने के नाम पर गरीबों की किडनी खरीदने का बहुत बड़ा खेल नब्बे के दशक की शुरुआत में चला। तमिलनाडु के एक गांव वेलीवक्कम के लगभग हर परिवार से किसी न किसी ने अपनी किडनी बेची। नब्बे के दशक की शुरुआत में यह गांव ‘किडनीवक्कम’ नाम से कुख्यात हो गया था। यह सब देखते हुए नये कानून की जरूरत महसूस हुई।

भारत में अंग प्रत्यारोपण को लेकर पहली बार 1994 में कानून बना। इसके तहत परिजनों और रिश्तेदारों से अंग लेने को आसान बना दिया गया। किसी और से किडनी या कोई अंग लेना मुश्किल हो गया। परिजनों की परिभाषा में पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन और 18 साल से बड़े बच्चों को रखा गया। बाद में कानून में संशोधन करके इसमें दादा-दादी और पोता-पोती को भी शामिल कर दिया गया।

परिजनों के अलावा हर तरह के डोनर के लिए विशेष ऑथोराइजेशन कमेटी की मंजूरी को जरूरी कर दिया गया। यह पेचीदा है। इसलिए अब किडनी की तलाश परिवार के अंदर होती है और शिकार बनती हैं परिवार की महिलाएं। एससी दास और दीपंकर भौमिक के एक शोध के मुताबिक, नए कानून ने एक तरफ किडनी की खरीद-बिक्री को मुश्किल बना दिया जबकि पत्नियों की किडनी को खतरे में डाल दिया। 

किडनी डोनेशन में सबसे खतरनाक बात ‘किडनी मैरिज’ है। खासकर गुजरात से ऐसे मामले आए जिसमें लड़के वालों ने ऐसे परिवार ढूंढे़ जिनकी लड़की शादी के बाद उनके बेटे को किडनी दे सके। इसके लिए लड़की का ब्लड सैंपल लेकर टेस्ट कराए गए। बहाना बनाया जाता है, स्वस्थ बच्चा होने की गारंटी करनी है। शादी के बाद, भावनात्मक दोहन करके या जबर्दस्ती लड़की की किडनी ले ली जाती है। ऐसी शादियां बाद में चल भी जाती हैं या लड़की को तलाक देकर छुटकारा पा लिया जाता है।

डोनेशन के आंकड़ों ने भारतीय समाज, परिवार और विवाह संस्था का एक्सरे कर दिया है और जो इमेज सामने आई है, उसमें गर्व करने लायक कुछ भी नहीं है।

 महादानः किडनी प्रत्यारोपण के मामलों में दानदाता अधिकांशतः महिलाएं ही होती हैं

किडनी डोनेशन में कैसे कम हो लिंगभेद

डॉ. कर्नल सजल सेन, हेल्थ एक्सपर्ट

अंगदान मामलों में महिला-पुरुष भेदभाव है। यह स्थिति बदलने के तीन तरीके हैं।

सामाजिक और आर्थिक संरचना में बदलावः यह धीमी प्रक्रिया है लेकिन इसका असर गहरा होगा। जैसे-जैसे भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी और समानता जीवन मूल्य के तौर पर स्थापित हो जाएगी, महिलाओं से किडनी निकलवा लेने की घटनाओं में कमी आएगी। नारायणा अस्पताल में हाल में हुए अध्ययन बता रहे हैं कि आर्थिक रूप से सक्षम महिलाएं अपनी किडनी देने की जगह दूसरे विकल्प, जैसे डायलिसिस को लंबा खींचने या किसी और से किडनी लेने या डॉक्टर को अपनी अनिच्छा जताने के लिए आगे आ रही हैं। 

कानून में बदलावः अंग प्रत्यारोपण कानून ने मुख्य रूप से दो उद्देश्य हासिल किए इसकी वजह से अब ब्रेन डेड व्यक्ति को कानूनी तौर पर मृत माना जाता है। दूसरा परिवर्तन यह आया कि अंगों की खरीद-बिक्री मुश्किल हो गई। लेकिन इससे परिवार के सदस्यों के अंग लेना आसान हो गया। इसकी मार परिवार की महिलाओं पर पड़ी। अब कानून में बदलाव होना चाहिए कि परिजनों की किडनी को भी अप्रूवल कमेटी के पास उसी तरह भेजा जाए, जैसे परिवार से बाहर के डोनर को भेजा जाता है। किडनी देने वाली महिलाओं से टीम बातचीत करे और एक बातचीत ऐसी हो, जिसमें परिवार का कोई और सदस्य न हो।

अंगदान वाली महिला की आर्थिक सुरक्षाः अंगदान करने के बाद अकसर महिलाओं को अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। इसे बदलने का काम कानून को करना होगा। ऐसा प्रावधान हो कि जिसने अंगदान किया, उसकी आजीवन जिम्मेदारी उस व्यक्ति और परिवार की होगी, जिसने अंग लिया। न्यूनतम रकम और मासिक खर्च का बंदोबस्त पर भी विचार करना चाहिए।

 

स्‍त्री सब कुछ न्यौछावर करने को हमेशा तत्पर रहती है

राजकिशोर टिप्पणीकार

पति और पत्नी को गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये कहा जाना सिर्फ एक जुमला है। यह प्रतिपादन एक आदर्श के रूप में किया जाता है, वरना यथार्थ में इसका कोई अस्तित्व नहीं रहा है। यहां तक कि सीता-राम और उससे आगे बढ़ कर शिव-पार्वती की आदर्श जोड़ी में भी इस तरह की समानता दिखाई नहीं देती। राधा-कृष्ण में बराबरी थी, पर वे प्रेमी थे, दंपति नहीं। प्रत्येक मानव संबंध को पावर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता ही है। स्‍त्री के लिए पुरुष का जीवन जितना मूल्यवान है, पुरुष के लिए स्‍त्री का जीवन उतना नहीं। (स्त्रियों की तुलना में पुनर्विवाह भी पुरुष ही ज्यादा करते हैं।)

इसलिए वैवाहिक संबंध में, सौ में निन्यानबे मामलों में, स्‍त्री को दब कर रहना पड़ता है। उसे किडनी चाहिए तो इसकी खोज उसके मायके में की जाएगी। जब कि पुरुष को किडनी चाहिए, तो सब से पहले उसकी पत्नी से ही उसके खून का मिलान होगा। निस्‍संदेह पुरुष की तुलना में स्‍त्री ज्यादा ममतामयी और त्यागपूर्ण होती है। इसलिए किडनी क्या चीज है, वह पुरुष पर अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए प्रस्तुत रहती है, हालांकि ज्यादातर मामलों में उसके पास होता ही क्या है? एक देह ही तो, जो पहले से ही समर्पित होती है। किडनी का निवास इस देह में ही होता है।

लेकिन इस सामान्य स्थिति के महान अपवाद भी हैं। मैंने कई ऐसे पुरुषों के बारे में सुना है जिन्होंने अपनी पत्नी की, मृत्युपर्यंत, विलक्षण सेवा की। बराबरी के रिश्ते भी बहुत देखे हैं। इसलिए यह भी कहा जाना चाहिए कि सभी पुरुष नीच नहीं होते, जैसे सभी स्त्रियां ममतामयी नहीं होतीं, पर निस्संदेह एक प्रवृत्ति के तौर पर ऐसा ही दिखाई पड़ता है।

जहां सभ्यता विकसित रूप में है-जैसे यूरोप और अमेरिका में, वहां स्‍त्री और पुरुष के बीच यह विषमता कम होती जा रही है।

किडनी वाली तुलना नसबंदी या जन्म नियंत्रण के मामले में भी सटीक है। पुरुष कम, ‌स्त्रियां ज्यादा नसबंदी करवाती हैं। जन्म नियंत्रण के मामले में वैज्ञानिक खोज की दिशा भी स्‍त्री-केंद्रित रही है। गर्भ निरोधक के ज्यादातर साधन स्त्रियों के लिए हैं। गर्भ निरोधक गोलियां भी स्त्रियों के लिए बनी हैं। पुरुषों के लिए ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है। उनके लिए सिर्फ कंडोम है, लेकिन यह सर्वज्ञात है कि ज्यादातर पुरुष कंडोम के बिना संसर्ग करने के लिए स्‍त्री को बाध्य करते हैं। वेश्याओं के साथ अगर कोई ग्राहक कंडोम का प्रयोग करता है तो अपनी रक्षा के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए नहीं।

मैंने पत्नी को किडनी दी

हरीश कुमार महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी

हरीश कुमार महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक के मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं। उन्होंने छह साल पहले अपनी पत्नी सीमा को किडनी दी थी। पत्नी की किडनी खराब है, इस खबर ने परिवार और रिश्तेदारों के होश उड़ा दिए थे। डॉक्टर ने किडनी ट्रांसप्लांट करने की बात कही और पूछा कि डोनर कौन होगा? हरीश कुमार ने कहा कि वे किडनी डोनेट करेंगे। डॉक्टरों की काउंसलिंग टीम ने हरीश से पूछा कि क्या वह अपनी मर्जी से यह कर रहे हैं तो हरीश कुमार ने हामी भर दी। दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टर यह जानकर बहुत खुश हुए क्योंकि चार साल बाद कोई पति अपनी पत्नी को किडनी दे रहा था। पत्नियां तो पति को किडनी देती रहती हैं।

हरीश के कई रिश्तेदारों को यह पसंद नहीं आया। सवाल उठा कि पति घर का कमाने वाला व्यक्ति है। अगर किडनी देने के बाद कोई समस्या आ गई तो बच्चों का क्या होगा? यही सवाल हरीश की पत्नी सीमा का भी था। समझाने वाले ऐसे भी थे कि शादी तो दूसरी भी हो सकती है, पत्नी के लिए इतना रिस्क लेने की क्‍या जरूरत है?

हरीश कुमार कहते हैं, “उन्होंने पत्नी का हाथ हर सुख-दुख में साथ रहने को थामा था। उसे ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता। जिस तरह पत्नियां हर दुख और हर हाल में साथ और समर्पण के लिए पति के लिए खड़ी होती हैं, पति को भी इसी तरह हर हाल में, अंतिम दम तक, पत्नी के लिए खड़ा होना चाहिए।”

आज छह साल बाद हरीश का परिवार खुशहाल जीवन जी रहा है। हरीश कहते हैं, “ट्रांसप्लांट के बाद जिंदगी शानदार है। बच्चे बड़े हो चले हैं। किडनी देने की वजह से मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मैं और सीमा देश भर में घूमते हैं।” भारत में हरीश कुमार जैसे पति कम हैं।

 

‘‘स्वेच्छा से सहमति परिभाषित हो’’

प्रदीप कुमार रापड़िया वकील, सुप्रीम कोर्ट

अंगदान को नियमित करने और अंगों की खरीद-बिक्री को नियमित करने के लिए 1994 में संबंधित कानून बना। यह कानून जेंडर की बात नहीं करता। निकट संबंधियों द्वारा अंगदान अगर पत्नी, बेटी, मां, बहन, दादी, पोती कर सकती हैं तो पति, बेटा, पिता, भाई, दादा और पोता भी अंगदान कर सकता है। भारत में स्‍त्री डोनर की संख्या ज्यादा होने की जड़ में समाज है। यहां कानून के मुताबिक भी पुरुष को ही कर्ता या परिवार का मुखिया माना जाता है। जहां तक कानून की बात है तो इसमें एक समस्या दिखती है। इस कानून में, डोनर की परिभाषा के मुताबिक, 18 साल से ज्यादा उम्र का कोई भी व्यक्ति जो चिकित्सकीय कारणों से अपना कोई अंग निकाले जाने को स्वेच्छा से मंजूरी देता है, वह डोनर है। मेरी समझदारी है कि कानून में ‘स्वेच्छा से सहमति’ का जो शब्द है, उसे खासकर महिलाओं के मामले में सख्त बनाया जाए ताकि महिलाएं बच सकें। ऐसा प्रावधान किया जा सकता है कि अंगदान से पहले निकट संबंधियों, खासकर महिला की मां से सहमति लेना अनिवार्य बना दिया जाए।

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