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दलित राजनीति की माया

राज्य के स्थानीय चुनावों में प्रदर्शन तय कर सकता है बसपा की दलित सियासत की दिशा
चुनौतीः जनाधार फिर से वापस पाने की मुहिम में लगीं मायावती

उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों के नतीजे चाहे जो हों मगर राजनीतिक जानकारों की सबसे अधिक दिलचस्पी मायावती की बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन में है। बसपा कथित तौर पर इन स्‍थानीय चुनावों के जरिये 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अपनी तैयारी, वोट बैंक और कमजोरी का आकलन करना चाहती है। ये चुनाव दलित राजनीति की दिशा और मायावती की सियासत की अगली राह भी तय कर सकते हैं। चुनावी नतीजों से यह भी तय हो सकता है कि विपक्षी महागठबंधन के प्रति मायावती का रुख क्या रह सकता है।

दरअसल, लगातार दो चुनावों-2017 के विधानसभा और उसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव-में बेहद खराब प्रदर्शनों से ही मायावती की सियासत पर सवालिया निशान उभरने लगे लेकिन इस साल मई में सहारनपुर जातिगत टकराव के बाद ऐसा लगा कि दलित राजनीति फिर करवट बदलेगी। इस कांड में शब्बीरपुर गांव में दलितों के घर जला दिए गए थे और कई लोग हताहत हुए। लेकिन वहां युवा वकील चंद्रशेखर रावण की अगुआई में भीम सेना सक्रिय थी। इसलिए मायावती वहां गईं तो जरूर पर चंद्रशेखर की गिरफ्तारी और मुकदमों पर मायावती के मौन के कई अर्थ लगाए जाने लगे।

उम्मीद यह थी कि मायावती अपने जनाधार फिर हासिल करने के लिए कुछ नई पहल करेंगी। गौरतलब है कि कई नेता बसपा छोड़कर जा चुके हैं जिनमें आर.के. चौधरी, स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और ठाकुर जयवीर सिंह प्रमुख हैं। इससे कई राजनीतिक पंडितों का यह आकलन कुछ हद तक पुष्‍ट होता है कि मायावती की अपनी जाति जाटवों के अलावा बाकी दलित जातियों ने भाजपा या थोड़े पैमाने पर दूसरे दलों की ओर रुख कर लिया है। हालांकि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बसपा की मत भागीदारी 21-22 फीसदी के आसपास बनी रही है।

फिर भी मायावती ने भाजपा राज में दलित उत्पीड़न के नाम पर राज्यसभा से इस्तीफा दिया तो ये कयास लगाए जाने लगे कि वह अपने पाले से बाहर गए दलितों को वापस लाने के लिए जुट जाएंगी। उन्होंने कई सभाएं भी कीं और कुछ नए मुद्दे भी उठाए। 24 अक्टूबर को पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ क्षेत्र की एक जनसभा में मायावती ने कहा, “अगर सत्तारूढ़ भगवा संगठनों ने दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का उत्पीड़न बंद नहीं और उनके बारे में अपनी विचारधारा में परिवर्तन नहीं किया तो मैं बाबा साहेब आंबेडकर की तरह हिंदू धर्म त्यागकर बौध धर्म अपना लूंगी।”

लेकिन मायावती ने हाल ही में अपने छोटे भाई आनंद कुमार को पार्टी में उपाध्यक्ष बनाया और उनके बेटे विदेश से मैनेजमेंट ग्रेजुएशन करके आए आकाश को अहम जिम्मेदारी दी। कई जानकारों के मुताबिक इससे दलितों में भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है, जिसका उनको नुकसान हो सकता है। कई आकलनों के मुताबिक इसका सीधा फायदा भाजपा और समाजवादी पार्टी को हो सकता है। लखनऊ-स्थित डॉ. आंबेडकर महासभा के अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल कहते हैं, “मायावती ने दलित समाज को यह मैसेज दिया कि अब किसी को संघर्ष करने की जरूरत नहीं है। एक मायने में दलितों के संघर्ष और उनकी पहचान पर उन्होंने अपना एकाधिकार कर लिया। यह बात दलितों को उनसे दूर कर रही है।”

कभी मायावती के करीबी रहे, आजकल भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, “मायावती का जनाधार एकदम ख़त्म हो चुका है और मांगने पर भी उन्हें समर्थन नहीं मिल रहा है।”

कई दलित नेताओं के मुताबिक बसपा से दलित जातियों के छिटकने का सिलसिला 2008 में शुरू हो गया था। निर्मल जैसे लोग उस समय लखनऊ की एक सभा का जिक्र करते हैं। अगस्त 2008 में रमाबाई आंबेडकर मैदान में तब सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के देश भर से आए कार्यकर्ताओं की बड़ी रैली में तत्कालीन मुख्यमंत्री तथा पार्टी प्रमुख मायावती ने यह घोषणा करके सबको चौंका दिया था कि उनका उत्तराधिकारी उनकी ही दलित उपजाति से संबंधित होगा और उनके परिवार का नहीं होगा। उस समय वह दलितों की एकछत्र नेता थीं और उन्हें दलित समुदाय के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्‍त था। लेकिन निर्मल के मुताबिक इस बयान के बाद दलितों की अन्य जातियों को यह अहसास हुआ कि वह शायद उनका प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, और जल्द ही इन जातियों ने अन्य विकल्प तलाशने शुरू कर दिए।

उसके बाद हुए 2012, 2014, 2017 में लगातार तीन चुनावों में बसपा के खराब प्रदर्शन के मद्देनजर इस बात में कुछ दम दिख सकता है। इसलिए मायावती को अगर फिर दलितों की देवी कहलाना है तो बेशक अपने तौर-तरीके बदलने पड़ सकते हैं। 

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