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लोकतंत्र या भीड़तंत्र!

असल में राजनीतिक दल और नेता लोगों को लुभाने के आसान उपाय ढूंढ़ रहे हैं। यही वजह है कि असली मुद्दों की तरफ ध्यान ही नहीं है। फिर आरोप-प्रत्यारोप के लिए जिस तरह तथ्यों की अनदेखी की जा रही है, उससे राजनीति नीचे की ओर ही जा रही है
अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतरा प्रदर्शनकारियों का जत्था

पिछले कुछ दिनों की कई घटनाएं स्वस्थ और तर्कसंगत समाज के साथ ही लोकतांत्रिक तरीके से खड़ी हुई राजकीय व्यवस्था के लिए बड़े सवाल खड़ी करती नजर आ रही हैं। भले ही फिलहाल इन घटनाओं को किसी एक मुद्दे से जुड़ा मानकर टालने की कोशिश की जाए लेकिन इनका दूरगामी असर हमारी पूरी व्यवस्था पर देखने को मिल सकता है। यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इसमें भी सबसे चिंताजनक देश के नेतृत्व के सोचने और फैसले करने का तरीका है। सुप्रीम कोर्ट ने पद्मावती फिल्म पर एक जनहित याचिका को खारिज करते समय जो टिप्पणी की, उससे सरकार चलाने वाले जिम्मेदार लोगों को सीख लेने की जरूरत है। इस टिप्पणी में एक लंबी सोच छिपी हुई है और सरकार के फैसले लेने की प्रक्रिया को लेकर चिंता भी है। लेकिन इस टिप्पणी के कुछ समय बाद ही जिस तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पद्मावती फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की, उससे उनकी सोच में दूरदर्शिता के बजाय तात्कालिक राजनीतिक फायदा ज्यादा दिखता है। बात केवल नीतीश कुमार की ही नहीं है, उनसे पहले ऐसे फैसले कई मुख्यमंत्री कर चुके हैं और केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अलावा कांग्रेस के पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की राय भी इसी दिशा में दिखी है।

असल में मौजूदा घटनाक्रम एक नया उदाहरण भर है, लेकिन सरकार पर दबाव डालकर फैसलों को प्रभावित करने के भीड़तंत्र के मामले बढ़ते जा रहे हैं। ताजा प्रकरण में भी फिल्म को सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलने के पहले ही देश के बड़े हिस्से में लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन तत्वों को सरकार और नेताओं का परोक्ष समर्थन हासिल है। तभी ऐसा हो पा रहा है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने नेताओं और खासकर मंत्रियों को नसीहत दी है कि उनकी बयानबाजी सेंसर बोर्ड के फैसले को प्रभावित कर सकती है। लेकिन इस नसीहत का असर नेताओं पर होता नहीं दिख रहा है क्योंकि उनकी नजर राजनीतिक फायदे पर है। इसी राजनीतिक फायदे के चलते पिछले दिनों बाबा राम रहीम मामले में हरियाणा की खट्टर सरकार ने कई दिन तक आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनाए रखी थी जिसका नतीजा 30 से ज्यादा लोगों की मौत, कई के घायल होने और करोड़ों रुपये की निजी व सार्वजनिक संपत्ति की बरबादी के रूप में सामने आया। लेकिन शायद नेता कोई सबक नहीं लेना चाहते हैं। बात केवल फिल्म पद्मावती की नहीं है सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट पाने और चयन समिति की मंजूरी के बावजूद जिस तरह सरकार ने गोवा अंतरराष्‍ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में एस दुर्गा नाम की फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने दिया, वह इस बात सबूत है कि सरकार में बैठे लोग किस तरह फैसलों को प्रभावित कर सकते हैं।

ऐसे प्रकरणों में मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस तरह की भूमिका निभा रहा है, वह भी बहुत स्वस्थ परंपरा नहीं है। न्यूज स्टूडियो में हिंसक विरोध करने वालों का एक तरह से महिमामंडन होने लगा है जो इन लोगों को सुर्खियों में बने रहने के लिए उकसावे का काम करता है।

यहां सवाल खड़ा होता है कि अगर राज्य या केंद्र सरकार में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग भीड़तंत्र को जनभावना का नाम देकर उसे शह देंगे तो नतीजे नुकसानदेह ही हो सकते हैं। असल में राजनीतिक दल और नेता लोगों को लुभाने के आसान उपाय ढूंढ़ रहे हैं। यही वजह है कि असली मुद्दों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं है। साथ ही आरोप-प्रत्यारोप के लिए जिस तरह तथ्यों की अनदेखी कर चलताऊ रवैये पर ही मुख्य जोर है, उससे देश की राजनीति नीचे की ओर ही जा रही है।

असल में हल्के और तथाकथित भावनाओं से जुड़े मुद्दे इंस्टेंट फूड की तरह हैं, जिनके लिए कोई ज्यादा मेहनत नेताओं को नहीं करनी पड़ती। यह रवैया नेताओं में आत्मविश्वास की कमी का भी संकेत है। भरपूर आत्मविश्वास की स्थिति में असली मुद्दों पर बात होती। इसमें आर्थिक बेहतरी, रोजगार और महंगाई जैसे मसले केंद्र में आते। यहां एक ताजा उदाहरण जरूरी है। पहली बार देश में ऐसा हो रहा है कि सर्दी के मौसम में सब्जियों की कीमतें आसमान छू रही हैं। नवंबर महीने से हर साल सब्जियों की कीमतों में कमी का दौर शुरू होता था और वे अधिकांश लोगों की पहुंच में आ जाती थीं, लेकिन इस बार कीमतें कम नहीं हुई हैं। पिछले दिनों किसानों का बड़ा जमावड़ा दिल्ली में हुआ, उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। हर चुनाव में महंगाई पर तो चर्चा होती रही है, लेकिन इस बार सब चुप हैं क्योंकि इस तरह के मुद्दों के लिए थोड़ी मेहनत करनी होती है। साथ ही अगर पद्मावती और ‘लव जिहाद’ या भगवा आतंकवाद जैसे मुद्दों पर ही राजनीतिक फसल काटी जा सकती है तो असल मुद्दों को पीछे ठेलना फायदेमंद रहेगा ही। लेकिन यह न तो देश के हित में है और न ही समाज के हित में। बेहतर होगा कि संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों पर खड़ी व्यवस्था में फैसले भी इसके तहत ही लिए जाएं और भीड़तंत्र के सहारे रोटियां सेंकने वालों को भी सही संदेश मिले।

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