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पुरानी कांग्रेस कहां लौटा पाएंगे

राहुल या उनके परिवार के किसी में न तो गांधी के असली गुण हैं और न ही नेहरू जैसा प्रभामंडल
जवाहरलाल नेहरू के साथ इंदिरा गांधी

कांग्रेस के शीर्ष पद पर राहुल गांधी का काबिज होना न तो अप्रत्याशित है और न ही नई बात है। भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन उमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता में 1885 में 28 से 31 दिसंबर तक हुआ था। करीब 72 प्रतिनिधियों ने इसमें शिरकत की। महात्मा गांधी ने जिस पार्टी को समाप्‍त करने की सलाह दी थी, वह आजाद भारत में ज्यादातर समय सत्ता में रही। करीब 132 साल की पार्टी के अध्यक्ष पद पर गांधी सरनेम वाले नेहरू परिवार के सबसे युवा सदस्यों में एक की ताजपोशी करने जा रही है।

अपने माता-पिता की तरह राहुल चुनावी राजनीति में नये नहीं हैं। उन्हें ऐसी पार्टी का अध्यक्ष का पद उत्तराधिकार के तौर पर मिल रहा है, जिसमें हर कोई मानता है कि शीर्ष पद के लिए तो सिर्फ वही काबिल हैं। उनकी चुनावी जीत पार्टी दिग्गजों की सावधानी से तैयार की गई रणनीति का परिणाम है, जिन्होंने नेहरू-गांधी परिवार के वंशजों के भविष्य लिए अपनी कुर्बानी दे दी। विडंबना देखिए कि राहुल गांधी को पार्टी में जान डालने की जिम्मेदारी मिली तो उन्होंने सबसे पहले इन्हीं दिग्गजों को चुका हुआ कहकर खारिज कर दिया था। पार्टी आज कुछेक क्षेत्रों और वेबसाइट तक सीमित होकर रह गई है। 

सो, राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती यह है ‌कि पार्टी में नई जान डालने के लिए नये रक्त का संचार ऐसे किया जाए, ताकि पार्टी की जीवन-धारा के लिए जरूरी जड़ें भी न नष्‍ट हों। वह पार्टी के पुराने दिग्गजों के सामने असहज और उनको खारिज करते दिखते हैं, लेकिन वह पार्टी में नई प्रतिभाओं को भी आगे लाने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। बदतर तो यह है कि पार्टी में पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संतुलन साधने और पुल बनाने का कोई विचार उनके यहां नहीं दिखता, जिसके वह खुद शिकार रहे हैं।

किसी राजनीतिक दल की ताकत संख्या बल से तय होती है, सांसदों की संख्या, विधानसभाओं में विधायकों की संख्या और उन राज्यों की संख्या जहां पार्टी की सरकार हो। लोकसभा में पार्टी अब तक की सबसे कम संख्या सिर्फ 44 सांसदों के कारण महत्वहीन है। यह अपमानजनक नहीं है क्योंकि यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि भाजपा के सिर्फ दो सांसद थे। लेकिन उस समय भी भाजपा के पास एक एजेंडा था, दिग्गजों ने अपने कंधों पर पार्टी को आगे बढ़ाने का भार उठा रखा था और समर्पित कार्यकर्ता थे जो पार्टी नेतृत्व के हर आदेश को पवित्र मानकर अमल करते थे। कुछ कर दिखाने के भाजपा के जुनून ने उसे राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बना रखा था। राहुल गांधी जिन चुनौतियों से जूझ रहे हैं वे विकट हैं।

उनकी पार्टी सिद्धांतहीन और दिशाहीन दिखती है। कांग्रेस के पास न तो एजेंडा है और न ही एक वैकल्पिक रास्ता है। नरेंद्र मोदी के सक्षम और करिश्माई नेतृत्व में भाजपा विकास की जो नई कहानी लिख रही है उसमें उसे बाधक के तौर पर देखा जा रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राहुल गांधी राजनीतिक तौर पर अनिच्छुक लगते हैं, खुद को गंभीर राजनेता के तौर पर पेश करने और उस काम के लिए पूरी निष्‍ठा और प्रतिबद्धता दिखाने में नाकाम रहे हैं जो उन्होंने खुद के लिए चुना है। इस धारणा को वह बदल पाएंगे, इसमें संदेह है।

निर्बाध आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए पर्याप्‍त संख्या बल के साथ मजबूत सत्ताधारी दल का होना जरूरी है। उसी तरह मजबूत रचनात्मक विपक्ष और सक्षम वैकल्पिक राजनीतिक ताकत की भूमिका भी जीवंत लोकतंत्र का आधार है। अफसोस की बात है कि वोट बैंक की राजनीति में लिप्‍त क्षेत्रीय और संकीर्ण सोच वाली ताकतों के साथ मिलकर कांग्रेस ने अपनी इस भूमिका का त्याग कर रखा है। राजनीतिक मापदंडों को गिराने के लिए कांग्रेस बराबर की जिम्मेदार है। राहुल गांधी के सामने कांग्रेस को फिर से गढ़ने का कठिन कार्य है।

कांग्रेस ने राजनीति का जो बेंचमार्क स्‍थापित किया वह न केवल भारत बल्कि पूरे क्षेत्र में धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित तौर पर उपनिवेशवाद की छटपटाहट थी। यहां तक कि नेपाल जैसे देश, जो गुलाम नहीं रहे, ने भी कांग्रेस की राजनीतिक शैली और समाजवाद और क्रांतिकारी विचारों के साथ शासन की संसदीय प्रणाली का अनुसरण किया। बीस साल के भीतर देश, और विशेष रूप से कांग्रेस, ने महात्मा गांधी की हत्या, जवाहर लाल नेहरू की मौत और लाल बहादुर शास्‍त्री की रहस्यपूर्ण मौत देखी।

लेकिन इन झटकों के बावजूद पार्टी ने न केवल खुद को बचाए रखा बल्कि मजबूत होकर भी उभरी। देश के करीब-करीब सभी गांवों में फैले कार्यकर्ताओं के तंत्र, मजबूत केंद्रीय नेतृत्व, सभी राज्यों में लोकप्रिय स्‍थानीय नेतृत्व और सबसे बढ़कर यह धारणा कि पार्टी गरीबों की परवाह करती है और गैर-पक्षपात वाले केंद्रीय एजेंडे ने कांग्रेस पार्टी के विकास में बहुत योगदान दिया। उसके आगे बढ़ने का एक और महत्वपूर्ण कारण टीना फैक्टर यानी विकल्प की पूरी तरह गैर-मौजूदगी रही।

राजीव गांधी के बाद नेहरू परिवार ने कांग्रेस को नियंत्रण में रखा और दो प्रधानमंत्री द‌िए जो परिवार से नहीं थे। फिर भी एक ही परिवार को बढ़ाने के लिए सारी ऊर्जा खर्च करने की कांग्रेस की नीति आज भी जारी है। पार्टी ने खुद से ऐसा माहौल बना रखा है जिससे लगता है कि गांधी सरनेम वाला नेहरू परिवार का ही कोई सदस्य पार्टी को एक रख सकता है और चला सकता है।

इस सरनेम वाली वर्तमान पीढ़ी में उस तरह के कोई गुण नहीं हैं जो गांधी में थे और नेहरू ने जो प्रभामंडल और विश्वसनीयता हासिल की थी। कांग्रेस पार्टी ने खुद को एक ऐसे परिवार के साथ बांध रखा है जिसका आकर्षण और अपील अब बीते कल की बात है। क्या इस पेचीदा गुत्‍थी को सुलझाने की राहुल गांधी से अपेक्षा बहुत ज्यादा है?  समय बताएगा।

(लेखक भाजपा की राष्‍ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य हैं)

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