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जांच एजेंसियां गुत्थी सुलझाने में तो फिसड्डी

आदम जमाने के फोरेंसिक जांच उपकरणों और कमजोर जांच के कारण कानून की गिरफ्त से बच जाते हैं गुनहगार
रहस्य ही बनीं हुई हैं कई हत्याएं

गुड़गांव में रेयान इंटरनेशनल स्कूल के वॉशरूम से सात साल के प्रद्युम्न ठाकुर का गला रेता हुआ शव मिलने के दो महीने बाद उसकी हत्या के आरोप में सीबीआइ ने इसी स्कूल के 11वीं कक्षा के एक छात्र को गिरफ्तार किया। जघन्य अपराध में एक नाबालिग की गिरफ्तारी सनसनीखेज थी, क्योंकि पहले इसी मामले में गुड़गांव पुलिस स्कूल के बस कंडक्टर अशोक कुमार का ‘कबूलनामा’ पेश कर चुकी थी। गुड़गांव पुलिस तो आरोप-पत्र दायर करने की तैयारी में भी थी लेकिन मामला सीबीआइ के हवाले कर दिया गया। सीबीआइ के एक प्रवक्ता ने बताया कि फोरेंसिक और वैज्ञानिक साक्ष्यों के अलावा जांच एजेंसी ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर 16 साल के आरोपी पर जांच को केंद्रित किया। प्रवक्ता इस पर मौन रह गया कि पुलिस ने कैसे एक निर्दोष को पकड़ लिया जबकि आठ सितंबर के सीसीटीवी फुटेज में दिख रहा है कि 11वीं कक्षा का छात्र प्रद्युम्न को लेकर वॉशरूम जा रहा है।

पुलिस की गफलत का यह पहला मामला नहीं है। चार महीने पहले शिमला में एक नाबालिग बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या के मामले में भी ऐसा हुआ। अब सीबीआइ इस मामले की जांच कर रही है और एक आइजी सहित आठ पुलिसवाले मामले में लीपापोती के आरोप में जेल में बंद हैं।

सीबीआइ एक ऐसे मामले की गुत्‍थी सुलझाने की भी कोशिश में है, जिसमें एक आरोपी की पुलिस हिरासत में मौत हो चुकी है और महत्वपूर्ण साक्ष्य हमेशा के लिए नष्ट हो चुके हैं। एजेंसी जमानत पर बाहर पांच अन्य आरोपियों के नार्को टेस्ट की तैयारी कर रही है। आरोपियों में से एक हिमाचल प्रदेश के विधि अधिकारी का करीबी रिश्तेदार है। आरोप-पत्र दायर करने में सीबीआइ के नाकाम रहने के बाद इनलोगों को जमानत दी गई। सीबीआइ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "अदालत में पेश करने के लिए कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। हम आरोप-पत्र दायर करते हैं, तो यह अदालत में ठहर नहीं पाएगा और मामला खत्म हो जाएगा। अफसोस की बात है कि मामले को सुलझाने के लिए हम लाई डिटेक्टर और नार्को टेस्ट पर निर्भर हैं। यह साक्ष्यों की पुष्टि के तरीके भर हैं और अदालत में मान्य नहीं हैं।"

अदालतें बार-बार जांच के स्तर पर सवाल उठा चुकी हैं और कई मामलों में जानबूझकर लापरवाही और साठगांठ से कमजोर जांच के लिए पुलिस की खिंचाई कर चुकी है। इसी का नतीजा है दोष साबित होने की खराब दर। बीते पांच साल में दोष सिद्ध‌ि की दर बेहद निराशाजनक केवल 20 फीसदी रही। पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि उसके लापरवाह रवैए के कारण "निर्दोषों का ट्रायल हो रहा है और दोषियों को सजा नहीं मिल रही।" कोर्ट ने कहा था कि दोषियों को रिहा करने के लिए अदालत को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन, इसका कारण पुलिस की कमजोर जांच है। कमजोर जांच और साक्ष्यों की कमी के कारण अपराधी रिहा हो जाते हैं।  

दिल्ली हाइकोर्ट में 80 फीसदी आपराधिक मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं। पिछले पांच साल में देश की राजधानी के सत्र न्यायालयों में 60 फीसदी आरोपी बरी किए गए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2015 में देशभर में हिंसक और यौन अपराधों में सजा सुनाए जाने की दर केवल 36 फीसदी थी।

आंकड़े सामने आने के बाद दिल्ली हाइकोर्ट के न्यायाधीश बी.डी. अहमद और संजीव सचदेवा की पीठ ने जो कहा, वह आपराधिक न्याय व्यवस्‍था में सुधार के लिए विभिन्न समितियां प्रवर्तन और जांच एजेंसियों को अक्सर बताती रहती हैं। लेकिन इसे लागू करने में वे लगातार विफल रहे हैं। पीठ ने सुधार के लिए जांच और कानून-व्यवस्‍था बहाली का काम अलग करने पर जोर दिया है। वैज्ञानिक तरीकों और कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने को कहा है, लेकिन ये चिंताएं सरकारों की प्राथमिकताओं में नहीं हैं।

अपनी सख्त टिप्पणी में हाईकोर्ट ने बताया कि कमजोर पड़ताल, ढीलेढाले फोरेंसिक जांच, कमजोर तंत्र और प्रशिक्षित कर्मियों की कमी से देश की न्याय व्यवस्‍था बीमार है। व्यवस्‍था में भागीदार अलग-अलग विशेषज्ञों से आउटलुक ने बात की और पाया कि लचर जांच और केस के कमजोर नतीजे का मुख्य कारण अपर्याप्त और पुरानी फोरेंसिक तकनीक है। आधुनिक फोरेंसिक मदद के बिना जांच बेहद कमजोर होती है जिससे अभियोजक के पास पर्याप्त सबूत नहीं होते और नतीजतन अदालत की समीक्षा में वे टिक नहीं पाते।

विरोधाभासी फोरेंसिक रिपोर्टें किस तरह जांच को गुमराह करती हैं, सुनंदा पुष्कर का मामला शायद इसका बेहतरीन उदाहरण है। विरोधाभासी रिपोर्टों के कारण दिल्ली पुलिस आरोप-पत्र दायर करने में विफल रही। यह भी बताने में नाकाम रही कि कांग्रेस नेता तथा लेखक शशि थरूर की पत्नी की हत्या हुई या उन्होंने आत्महत्या की या अचानक उनकी मौत हो गई। अपनी अंतिम कोशिश में पुलिस ने ‘फोरेंसिक साइकोलॉजी’ की सेवा लेने का आग्रह किया है।

दिल्ली हाईकोर्ट में दिल्ली पुलिस की ओर से पेश हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल संजय जैन ने बताया कि जांच का यह नया तरीका है, जिसमें कुछ खास लोगों से निजी सवाल भी पूछे जाते हैं। इसका मकसद यह तय करना है कि जांच के दौरान कहीं कोई सिरा छूटा तो नहीं है। वे कहते हैं कि यह एक विशेष मामला है, जिसमें अब तक कोई भी आरोपी नहीं और न ही परिवार के किसी सदस्य ने कोई आरोप लगाया है। आमतौर पर ऐसे मामले में एफआइआर दर्ज नहीं की जाती, जिनमें फोरेंसिक एक्सपर्ट स्पष्ट रिपोर्ट नहीं देते हैं। लेकिन, इस मामले में केस मौत के एक साल बाद दर्ज किया गया और जांच की गई। 90 से ज्यादा लोगों से पूछताछ की गई और सात बार फोरेंसिक एक्सपर्ट से मदद ली गई, लेकिन कोई भी पुख्ता राय देने में नाकाम रहा।

एम्स के फोरेंसिक एक्सपर्ट (जहां पहली बार शव परीक्षण हुआ), सेंट्रल फोरेंसिक साइंस लाइब्रेरी (सीएफएसएल) और यहां तक कि एफबीआइ ने भी विसरा परीक्षण किया, लेकिन कोई भी पुख्ता तौर पर कुछ नहीं बता पाया। अदालत में सुनंदा के बेटे शिव की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील विकास पाहवा ने बताया कि इंसाफ के लिए फोरेंसिक साइकोलॉजी के इस्तेमाल पर वे राजी हैं। उन्होंने बताया, "शिव का कहना है जांच के लिए जो भी जरूरी है, किया जाना चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे कोई राजनैतिक लाभ उठाने की कोशिश करे।"

पाहवा बताते हैं, फोरेंसिक जांच के उपकरण आदिम जमाने के हैं। पूरी दुनिया में जांच एजेंसियां फोरेंसिक एक्सपर्ट का लगभग सभी चीजों में इस्तेमाल करती हैं, जैसे-हैंडराइटिंग का विश्लेषण, आवाज के नमूने, डीएनए प्रोफाइलिंग और मनी लॉन्ड्रिग जैसे क्राइम में तो अकाउंट बुक का ऑडिट करने तक। हम घटनास्‍थल सुरक्षित करने के लिए जरूरी चीजें भी नहीं करते। आरुषि तलवार का मामला इसका उदाहरण है, जब घटनास्‍थल पर आवाजाही से साक्ष्य नष्ट हो गए। 2008 में 13 साल की उम्र में नोएडा की इस लड़की की हत्या हुई थी। उसके माता-पिता निचली अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाने के बाद बरी कर दिए गए, लेकिन अब भी कोई यह नहीं जानता कि किसने उसकी और 45 वर्षीय नौकर हेमराज की हत्या की। पाहवा इसे देश की आपराधिक न्याय व्यवस्‍था की बड़ी विफलता मानते हैं, जिसमें स्‍थानीय पुलिस और सीबीआइ दोनों दोषियों को पकड़ने में नाकाम रही।

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के पूर्व डीसीपी एलएन राव यह बताते हैं कि तहकीकात कैसे की जानी चाहिए। वे कहते हैं, "घटनास्‍थल की सुरक्षा पुख्ता करना, मौके का मुआयना करने से पहले उसकी तस्वीर लेना, फिजिकल एविडेंस की खोज, फिंगर प्रिंट सहित अन्य साक्ष्य इकट्ठा करना, साक्ष्य को कब्जे में लेकर सील करना, जब्ती कागजात तैयार करना, मौखिक साक्ष्य जुटाना जैसे कोई चश्मदीद हो तो उसका बयान, एफआइआर दर्ज करना और फिर जांच शुरू करना किसी मामले की तहकीकात का आदर्श तरीका है।" अगर मौके पर कोई जख्मी व्यक्ति है, चाहे वह पीड़ित हो या संदिग्‍ध उसे तुरंत अस्पताल ले जाकर जितनी जल्दी हो सके उससे पूछताछ करनी चाहिए। पर असलियत में जो होता है, वह काफी अलग है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि फिंगर प्रिंट जुटाना या यहां तक कि उनकी तलाश भी शायद ही कभी की जाती है। केवल उन्हीं मामलों की सही तरीके से पड़ताल हो पाती है जो हाइप्रोफाइल होते हैं और मीडिया में बने रहते हैं, उनमें भी कभी-कभी शुरुआती स्तर पर ढिलाई होती है। ऐसा होता है तो आमतौर पर काफी देर हो जाती है।

ज्यादातर पुलिसकर्मियों के सही तरीके से प्रशिक्षित नहीं होने के कारण सैंपल्स जुटाने का काम ठीक तरीके से नहीं हो पाता है। 1996 के प्रियदर्शिनी मट्टू केस में जो सैंपल इकट्ठा किए गए वे सही तरीके से सील नहीं किए जाने के कारण खराब हो गए। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश जीपी थरेजा ने जब आरोपी संतोष कुमार जो एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी का बेटा था को बरी करते हुए कहा था कि "मैं जानता हूं कि अपराध करने वाले तुम ही हो, लेकिन सही साक्ष्य नहीं होने के कारण बरी करने को मजबूर हूं।" हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए कहा, "ट्रायल कोर्ट के जज ने आश्चर्यजनक तरीके से आरोपी को बरी कर दिया। यह न्याय की हत्या और उसके जमीर पर चोट है।"

इसी तरह जेसिका लाल मर्डर केस में भी ट्रायल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट ने बदला, जिसमें शुरुआत में आरोपी मनु शर्मा को बरी कर दिया गया था। मट्टू के मामले की तरह ही आरोपी रसूखदार था और फोरेंसिक साक्ष्य बैलिस्टिक रिपोर्ट का इस्तेमाल जांच को उलझाने के लिए किया गया। ट्रायल जज एसएल भयाना ने मनु को फरवरी 2006 में बरी कर दिया, क्योंकि फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (एफएसएल) के बैलिस्टिक एक्सपर्ट रूप सिंह का कहना था कि गोली दो अलग-अलग हथियार से चली।

जज ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने उसे केवल इसलिए बरी किया क्योंकि दिल्ली पुलिस वह हथियार बरामद करने में कामयाब नहीं हो पाई जिससे जेसिका पर वार किया गया। इससे वह घटनास्‍थल से बरामद कारतूस के दो खाली खोखे के एक ही हथियार से चलने की बात प्रमाणित नहीं कर पाई। बाद में हाईकोर्ट ने जस्टिस भयाना के फैसले को बदलते हुए रूप सिंह की संदिग्‍ध भूमिका पर भी सवाल उठाए। बैलिस्टिक एक्सपर्ट पर एक बार फिर उसी तरह शक गहराया जैसा 1997 के कम चर्चित कनाट प्लेस एन्‍काउंटर में उसने ‘मनगढ़ंत’ रिपोर्ट बनाई थी। इस मामले में दिल्ली पुलिस के 10 कर्मी दो कारोबारियों की हत्या के कसूरवार ठहराए गए थे।

फोरेंसिक रिपोर्टों पर सवाल उठाए जाने का एम्स के डिपार्टमेंट ऑफ फोरेंसिक मेडिसिन ऐंड टॉक्सीलॉजी के प्रमुख सुधीर गुप्ता को अफसोस है। वे कहते हैं, "फो‌रेंसिक एक्सपर्ट की सलाह सोने की तरह खरा होनी चाहिए, इसका काम मामले की गुत्‍थी सुलझाना है न कि उलझन पैदा करना।" साथ ही वे बताते हैं कि जमीनी हालात चौंकाने वाले हैं। काफी कम फोरेंसिक लैब हैं और इन लैबों पर जरूरत से ज्यादा बोझ और दबाव है।

देश में सीएफएसएल की केवल सात शाखाएं हैं। ये केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करती हैं। इनमें से केवल तीन पूरी क्षमता के साथ काम कर रही हैं। कुछ राज्यों में अल्पविकसित लैब हैं। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया, "किसी भी वक्त हर लैब के पास 3,500 से 5,000 केस पेंडिंग रहते हैं। ज्यादा देरी के कारण सैंपल खराब हो जाते हैं। सैंपल जिनमें खून और सीमेन शामिल हैं मालखाना में रखे जाते हैं, जो ज्यादातर वातानुकूलित नहीं हैं। सील टूटे होते हैं। इस तरह के हालात में कैसे कोई एक्सपर्ट सटीक निष्कर्ष दे सकता है?"

डॉ. गुप्ता का मानना है क‌ि पुलिस, डॉक्टर, ऑटोप्सी और फोरेंसिक विशेषज्ञों को मिलकर काम करना चाहिए, क्योंकि यह मिलाजुला ऑपरेशन है। वे कहते हैं, "सैंपल की जांच तुरंत होनी चाहिए ताकि प्रीजरवेटिव के प्रभाव से होने वाले बदलाव का असर नहीं पड़े। पोस्टमार्टम से पहले फोरेंसिक रिपोर्ट आ जानी चाहिए ताकि मौत का कारण रिपोर्ट में हो। हर अस्पताल के पास एम्स की तरह अपना एफएसएल होना चाहिए।" शीना बोरा की हड्डियों की राख से साक्ष्य जुटाने को वे अपनी टीम के बेहतरीन काम में से एक मानते हैं। इस मामले में शीना की मां पूर्व मीडिया कारोबारी इंद्राणी मुखर्जी आरोपी हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पोस्टमार्टम करने वाले एम्स के पूर्व निदेशक टीडी डोगरा अब एसजीटी यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं। उन्होंने बताया कि देश में फोरेंसिक सेवाएं अच्छी तरह से संचालित नहीं हैं और इसकी कोई केंद्रीय योजना नहीं है। इस क्षेत्र में उचित प्रशिक्षण की सुविधा नहीं है और विश्वविद्यालयों को इसके लिए विशेष पाठ्यक्रम चलाना चाहिए। इस समय गुजरात फो‌रेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी जैसे काफी कम संस्‍थान इस क्षेत्र में पाठ्यक्रम चला रहे हैं। वे निठारी हत्याकांड, नैना सहनी, भंवरी देवी की हत्या और बिल्किस बानो जैसे मामलों में काम कर चुके हैं।

सरकारी प्रयोगशालाओं पर जरूरत से ज्यादा दबाव होने के कारण डॉ. डोगरा ट्रूथ लैब जैसी निजी प्रयोगशालाओं की सेवा लेने का सुझाव देते हैं। कई मामलों में पुलिस ट्रूथ लैब की सेवा ले भी चुकी है। ट्रूथ लैब के निदेशक जीवीएचवी प्रसाद ने आउटलुक को बताया कि हैंडराइटिंग, सीडी, आवाज की पह‌चान, पॉलीग्राफ और डीएनए फिंगरप्रिंट के परीक्षण के लिए वे कई मामलों में जांच एजेंसियों के साथ काम कर चुके हैं।

उन्होंने बताया कि मुलायम सिंह-अमर सिंह सीडी और एनडी तिवारी पितृत्व मामले जैसे कुछ हाइप्रोफाइल केस में भी वे लोग काम कर चुके हैं। वे बताते हैं कि तिवारी ने आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहते हैदराबाद में उनके लैब का उद्‍घाटन किया और इसके बाद उनका डीएनए सैंपल जांच के लिए उनके लैब में पहुंचा। वे कहते हैं इस मामले में हमारी रिपोर्ट निर्णायक रही। निजी प्रयोगशालों की रिपोर्ट अदालत में विशेषज्ञ की सलाह के तौर पर एविडेंस एक्ट की धारा 45 के तहत मान्य है।

फोरेंसिंक रिपोर्टों में विरोधाभास का एक और खास उदाहरण है मुलायम सिंह की सीडी। मामले की जांच कर रही दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सबसे पहले सीडी दिल्ली के सीएफएसएल में भेजी। बताया गया कि टेप के साथ छेड़छाड़ नहीं हुई है। फिर भी तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुए तो सीडी चंडीगढ़ सीएफएसएल में भेजी गई। उसने बताया कि छेड़छाड़ हुई है।

विरोधाभास देखते हुए वकील शांति भूषण ने इसे ट्रूथ लैब और अमेरिका के एक लैब को भेजा। उनका आरोप था कि इस सीडी के साथ छेड़छाड़ और उसे प्रसारित करने के पीछे अमर सिंह हैं। दोनों ने सीडी में छेड़छाड़ की बात कही। पुलिस ने इसे सीईआरटी-इन (कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम) को भी भेजा जिसने कहा कि सीडी से छेड़छाड़ नहीं की गई है। विरोधाभासी रिपोर्टों का फायदा उठाते हुए दिल्‍ली पुलिस की स्पेशल सेल ने यह कहकर मामला बंद कर दिया कि सीडी के साथ छेड़छाड़ हुई भी है कि नहीं, “इसका पता नहीं लगाया जा सकता”। उसने कहा कि शायद एडिटेड सीडी से अलग-अलग मौकों पर किसी व्यक्ति ने इसकी कॉपी बनाई।

कम कर्मचारी, कमजोर ढांचा

असल में, मामला तहकीकात के हर स्तर पर सटीक निष्ठा का है, फोरेंसिक परीक्षण और ट्रायल से लेकर अपने विवेक के आधार पर कानून सम्मत कदम उठा रहे व्यक्ति की ईमानदारी सभी बेहद मायने रखते हैं। जांच को मजबूती देने और न्यायालय में सफलतापूर्वक मुकदमा चलाए जाने में केवल सच पर आधारित साक्ष्य मुहैया कराने में फोरेंसिक एक्सपर्ट और पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आरुषि हत्याकांड की जांच करता फोरेंसिक एक्सपर्ट

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने बताया कि देश में फोरेंसिक क्षेत्र की स्थिति से सरकार वाकिफ है। प्रयोगशालों पर जरूरत से ज्यादा दबाव है और ढांचा आधा-अधूरा है। हम विशेषज्ञों से बात कर रहे हैं कि कैसे ठोस साक्ष्य जुटाने के लिए उपकरण और तकनीक में सुधार किया जा सकता है।

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की जांच करने वाली एसआइटी के प्रमुख रहे सीबीआइ के पूर्व निदेशक डी.आर. कार्तिकेयन ने बताया, "जांच और व्यवस्‍था संभालने का काम अलग-अलग करने के लिए पुलिस स्टेशनों में कर्मचारियों और संसाधन में पर्याप्त वृद्ध‌ि की आवश्यकता है। पहले से ही जिम्मेदारियों का विभाजन है। लेकिन, इस पर अमल करना मुश्किल है। अक्सर कानून-व्यवस्‍था बनाए रखने, वीआइपी सुरक्षा, न्यायालयों का काम और सामाजिक कानूनों को अमल में लाने के लिए बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी तैनात करने पड़ते हैं। अक्सर ऐसे कर्मचारी को कानून-व्यवस्‍था संभालने के काम में लगाना पड़ता है जो अपराधों की जांच के लिए चिह्नित होते हैं। उनके प्रशिक्षण और कौशल को निखारने का वक्त भी नहीं है।"

इनमें सबसे शीर्ष पर फोरेंसिक जांच की दयनीय स्थिति है। फोरेंसिक लैब की संख्या पर्याप्त नहीं है। जो अभी चल रहे हैं उनमें पर्याप्त प्रशिक्षित एक्सपर्ट नहीं हैं और न ही आधुनिक उपकरण हैं। इसलिए जांच और अदालत में सुनवाई को मजबूती देने वाले फोरेंसिक रिपोर्ट काफी विलंब से मिलते हैं।

सबसे बढ़कर, पोस्टमार्टम जल्दी से जल्दी होना चाहिए। तब तक शव को सुरक्षित रखा जाना चाहिए। पोस्टमार्टम दक्ष और अनुभवी मेडिकल विशेषज्ञों को ही करना चाहिए। इसे निश्चित रूप से अनुभवहीन और नए लोगों के लिए नहीं छोड़ना चाहिए। यह ईमानदारी और निष्पक्षता से किया जाना चाहिए। बाहरी दखल की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। जांच अधिकारी को बिना किसी देरी के रिपोर्ट सौंप देनी चाहिए।

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