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कल लंदन, आज दिल्ली सीखा क्या?

गाड़ियों, उद्योगों, निर्माण कार्यों और खेतों में पराली जलाने से सांस लेना हुआ मुश्किल, फौरी उपाय जरूरी
दिल्ली में स्मॉग की वजह से चलना हुआ दूभर

पांच दिसंबर 1952 को काले धुएं की वजह से लंदन में अंधेरा छाया था। लोगों ने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था। हालात इतने बुरे थे कि कई जगह लोगों को अपने पैर भी नजर नहीं आ रहे थे। उसे आज भी ‘द ग्रेट स्मॉग’ के नाम से जाना जाता है। ये हालात ठंड के मौमस में घरों को गर्म रखने के लिए कोयला जलाने और कोयले से बिजली उत्पादन करने वाले पावर प्लांट से निकले राख के कारण बने थे। नौ दिसंबर को मौसम बदला तो लंदन को इस स्मॉग से छुटकारा मिला। करीब चार हजार लोगों की इससे मौत हो गई और कई हजार लोगों की सेहत हमेशा के लिए बिगड़ गई, जिनमें कोख में पल रहे शिशु भी थे।

लंदन स्मॉग से जुड़े विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं ‌कि उस समस्या से निपटने के लिए तत्कालीन विंस्टन चर्चिल सरकार ने जो कदम उठाए, वे नाकाफी थे। इसके दो कारण थे। एक, वायु प्रदूषण का मामला केंद्र सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों (ईंधन, कोयला, गृह वगैरह) और स्‍थानीय सरकार के बीच बंटा था। दूसरे, घरों में कोयला जलाने पर रोक लगाने से कंजरवेटिव सरकार को लोगों के नाराज हो जाने का डर था।

65 साल बाद भी कुछ नहीं बदला है। सिर्फ देश-काल और सरकारें बदल गई हैं। अब वैसे ही हालात दिल्ली-एनसीआर और उत्तर भारत के बड़े हिस्से में दिख रहा है। केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और पंजाब तथा हरियाणा की सरकारें अब मुख्य किरदार हैं। लंदन में स्मॉग की वजह रहे घरों में कोयला जलाने की जगह पराली जलाने और वाहनों तथा उद्योगों के प्रदूषण ने ली है।

लंदन स्मॉग के बाद से पर्यावरण नियमों का जबर्दस्त मसौदा तैयार हो चुका है, लेकिन हमारे नेताओं का रवैया नहीं बदला है। राजनैतिक बिरादरी ऐसी पर्यावरण आपदा के बाद भी एकजुट नहीं है, जिसे मेडिकल एसोसिएशन पब्लिक हेल्‍थ इमरजेंसी बता रहे हैं। पंजाब और हरियाणा की सरकारें पराली जलाने पर रोक के लिए कदम उठाने को इच्छुक नहीं हैं। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल कड़े कदम उठाने की जरूरत को एक ही तरह से नहीं देख पा रहे हैं। केंद्र सरकार अब भी मूकदर्शक बनी हुई है। उसके विज्ञान तथा पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि दहशत में आने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वायु प्रदूषण से मौत नहीं होती।

जब सभी स्तरों पर सरकार की प्रतिक्रिया निराशाजनक है, करीब-करीब सालाना संकट बन चुके समस्या के विभिन्न आयाम को समझने की जरूरत है। इससे पहले कि हम इसके संभावित समाधान पर गौर करें, हमें यह मानना होगा कि यह केवल दिल्ली-एनसीआर की समस्या नहीं है। उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा इससे ग्रस्त है, जिसमें कई बड़े शहर हैं। नासा ने उपग्रह से ली जो तस्वीर जारी की, उसमें उत्तर भारत के बड़े हिस्से में स्मॉग दिखा। वायु की गुणवत्ता केवल दिल्ली में ही खतरनाक स्तर पर नहीं है। दर्जनों अन्य शहरों और गांवों में भी स्तर खतरनाक है, जहां वायु गुणवत्ता की निगरानी का सिस्टम नहीं है। पंजाब के ग्रामीण इलाकों में भी वायु की गुणवत्ता का स्तर खराब है। इन जगहों पर फसलों के अवशेष जलाने से हवा खराब हुई है। मीडिया के केंद्र में होने और अन्य कारणों से स्थिति बदतर होने से सारा ध्यान दिल्ली पर है। दरअसल, समूचे इलाके में वायु गुणवत्ता की निगरानी और प्रदूषण रोकने के लिए कदम उठाने की जरूरत है।

सबसे पहले, विज्ञान और साक्ष्यों के आधार पर समस्या को समझने की जरूरत है। जब भी ऐसे हालात पैदा होते हैं, आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो जाता है। दिल्ली इसके लिए पंजाब और ‌हरियाणा में पराली जलाने को जिम्मेदार बताता है। तो, ये दोनों राज्य वाहनों से होने वाले प्रदूषण को दिल्ली की स्थिति का मुख्य कारण बताने लगते हैं। वाहनों से प्रदूषण की जब हम बात करते हैं तो दोष दिल्ली से होकर गुजरने वाले दूसरे प्रांतों के डीजल वाहनों और ट्रकों पर मढ़ दिया जाता है। ऑटामोबाइल लॉबी पावर प्लांट और अन्य औद्योगिक गतिविधियों को दोषी ठहराती है। वायु प्रदूषण का एक अन्य कारण राष्ट्रीय राजधानी में निर्माण कार्यों से निकलने वाली धूल है।

अतीत में प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों के स्‍थानांतरण, कोयले से बिजली पैदा करने वाले प्लांट को बंद करने, सीएनजी बसें, टैक्सी और ऑटोरिक्‍शा की शुरुआत जैसे कई कदम उठाने के बावजूद दिल्ली में वायु की गुणवत्ता में गिरावट आई है। इसका मतलब यह है कि हम अब तक सही कारणों का पता नहीं लगा पाए हैं। इसलिए, दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के कारणों का पता लगाने के लिए सभी सरकारी एजेंसियों, केंद्रीय मंत्रालय, केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य सरकारों को संयुक्त रूप से एक वैज्ञानिक अध्ययन करवाना चाहिए। सभी प्रतिष्ठित अनुसंधान संस्‍थान-आइआइटी, सीएसआइआर और विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों को मिलकर इस तरह का अध्ययन करना चाहिए। जरूरत हो तो इस काम के लिए एक राष्ट्रीय वैज्ञानिक टास्क फोर्स स्‍थापित करना चाहिए। विभिन्न तरीकों और प्रोटोकॉल के तहत काफी अध्ययन अब तक हुए हैं। इसलिए वैज्ञानिकों को एक साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इस तरह का प्रयोग आवश्यक है, क्योंकि इमरजेंसी की स्थिति में यह एक्शन प्लान को लागू करने का आधार बनेगा। दूसरा कदम, पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने पर रोक को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए। यह जानी-पहचानी समस्या है जिसका समाधान भी है। इसे लागू करने के लिए जरूरत है राजनैतिक इच्छाशक्ति की। यहां तक कि दिल्ली के स्मॉग में पराली जलाने का कोई योगदान नहीं होने पर भी इस समस्या को सुलझाने की जरूरत है, क्योंकि यह पंजाब और हरियाणा के लिए पर्यावरण से जुड़ी बड़ी समस्या है। स्मॉग इन दो प्रांतों के लोगों के फेफेड़े को भी नुकसान पहुंचा रहा है। इस समय, राज्य ऐसा दिखा रहे हैं कि केवल दिल्ली के लोग ही इस समस्या से पीड़ित हैं।

पराली जलाने की समस्या भले वायु प्रदूषण की सिर्फ एक वजह हो, मगर उसका हल भी तलाशना चाहिए। चार राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में करीब 3.4 करोड़ टन पराली हर साल होती है। अकेले पंजाब में ही इसका आधा 1.7 करोड़ टन होती है। इसमें 1.5 करोड़ टन खेत में ही जला दिया जाता है। इससे न केवल प्रदूषण हो रहा है, बल्कि भारी आर्थिक नुकसान भी हो रहा है। लगातार जलाने पर मिट्टी में बैक्टीरिया आधे हो जाते हैं। लंबे समय तक ऐसा करने पर जमीन के पोषक तत्व कम हो जाते हैं। एक टन पराली जलाने पर 5.5 किग्रा नाइट्रोजन, 2.3 किग्रा फॉस्फोरस, 25 किग्रा पोटैशियम और 1.2 किग्रा सल्फर का नुकसान होता है। इसका मतलब यह हुआ कि एक तरफ पैदावार ज्यादा लेने के लिए खाद का इस्तेमाल बढ़ रहा है और दूसरी तरफ मिट्टी लगातार कम उपजाऊ होती जा रही है।

ऐसा नहीं है कि किसानों की हमेशा से पराली जलाने की आदत रही है। यह ज्यादा उपज देने वाली किस्मों को बढ़ावा देने और किसानों को मुफ्त बिजली देने का नतीजा है। पहले किसान पराली के बड़े हिस्से, खासकर लंबे समय से चली आ रही धान की किस्मों का इस्तेमाल पशुओं के चारे के लिए करते थे। मशीन से कटाई के कारण यह चलन बंद हो गया। मशीन से कटाई के कारण जमीन में गड़े हुए अवशेष को इकट्ठा करना कठिन हो गया है। खरीफ में धान की खेती के बाद रबी की फसल गेहूं की बुआई के लिए 20 से 25 दिनों में सफाई कर खेत की जुताई जरूरी है। ऐसे में पराली की भारी मात्रा को काफी जल्दी साफ करने जरूरत होती है। पहले किसान फसलों के अवशेष को जलाते नहीं थे, लेकिन इसमें आसानी देख उन्होंने धीरे-धीरे एक-दूसरे का अनुसरण करना शुरू कर दिया।

पराली एक ऐसा आर्थिक स्रोत है जिसका इस्तेमाल खेत में या खेत के बाहर किया जा सकता है। मवेशियों के चारे के अलावा बॉयोमास आधारित बिजली उत्पादन, कागज बनाने, कार्डबोर्ड या पैनल, ईंट भट्ठों और भट्ठियों में इस्तेमाल होने वाले ब्रिकेट के उत्पादन, बॉयोगैस और इथेनॉल के उत्पादन में भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। बॉयोचर में बदलकर जमीन के पोषक तत्व के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। निश्चित तौर पर कई समस्याएं हैं, जैसे पराली को काटने के लिए मजदूरों की कमी, पराली का गट्ठर बनाने वाली मशीन की ज्यादा कीमत, यदि पराली को इकट्ठा कर भी लिया जाए तो भी ढुलाई खर्च वगैरह अतिरिक्त लगेंगे। किसानों को न तो बायोमॉस इकट्ठा करने के तरीकों का पता है और न ही उनके पास संसाधन हैं। यह सरकार की विफलता है। पराली के लाभकर इस्तेमाल की तकनीक और समाधान उपलब्‍ध हैं। जमीन पर उनका परीक्षण और शुरुआती स्तर पर संसाधन उपलब्‍ध कराकर किसानों को देने की जरूरत है। यदि किसानों को आर्थिक लाभ दिखेगा तो वे निश्चित रूप से नए तरीकों को अपनाएंगे।

पंजाब की पिछली अकाली सरकार ने धान के अवशेषों से इथेनॉल बनाने का प्लांट हर जिले में स्‍थापित करने की घोषणा की थी। पर ऐसा कोई प्लांट नहीं लगा। नई सरकार ने इस साल की शुरुआत में दस लाख डॉलर की ‘पैडी स्ट्रा मैनेजमेंट चैलेंज फंड’ के गठन की बात कही लेकिन अब तक इसकी शुरुआत नहीं हो सकी है। राज्य सरकारों को विशेषज्ञों का समूह बनाने, उपलब्‍ध विकल्पों की संक्षिप्त सूची बनाने और धान पैदा करने वाले सभी जिलों में पराली के निष्पादन के लिए भूखंड उपलब्‍ध कराने के साथ-साथ जागरूकता अभियान शुरू करने की जरूरत है।

जहां तक स्मॉग का सवाल है इसका कोई फौरी समाधान नहीं है। इसके लिए कई स्तरों पर समन्वित कार्रवाई, इसके मूल कारणों को समाप्त करने के लिए वैज्ञानिक नजरिया अपनाने और साक्ष्यों पर आधारित एक्‍शन प्लान की जरूरत है। ऐसा नहीं हुआ तो अगले बरस भी हम इस समस्या पर बात करेंगे।

(लेखक जाने-माने साइंस जर्नलिस्ट हैं)

 

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