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धुआं-धुआं-सी हवा, सियासी कोहरा घना

दिल्ली ही नहीं समूचे उत्तर भारत में अटकने लगी सांस मगर केंद्र, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा की सरकारें बस एक-दूसरे पर आरोप लगाने में ही व्यस्त
मुश्किल हालातः स्मॉग के साए में काम पर जाते लोग

नोएडा की एक आइटी कंपनी में काम करने वाले अरुण कुमार दिल्ली-एनसीआर की आबोहवा से तंग आ चुके हैं। सर्दी की दस्तक के साथ ही धूल, धुंध और धुएं का मिश्रण यानी स्मॉग दम घोंटने लगता है। अब तक वे इससे बेफ्रिक रहते थे, लेकिन अब अपने छह महीने के बच्चे को देखकर सोचने को मजबूर हैं। अरुण बताते हैं, “परिजनों का दबाव है कि किसी दूसरे शहर में नौकरी तलाशो, दिल्ली अब रहने लायक नहीं रही।" वे खुद भी दिल्ली छोड़ने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं।

अरुण जैसे कुछ लोग शायद दिल्ली छोड़ भी दें। मगर सवाल उठता है लाखों लोग दिल्ली छोड़कर जाएंगे कहां? उत्तर भारत के फलक पर स्मॉग के कई ठिकाने उभर रहे हैं। वायु प्रदूषण के मामले में आगरा, अलवर, भिवाड़ी, गाजियाबाद और बनारस जैसे शहर दिल्ली को मात देने लगे हैं। सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, 13 नवंबर को दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआइ) 460 था जबकि गाजियाबाद में प्रदूषण का यह स्तर 497 रहा, जो देश में सर्वाधिक है। यूपी के मुरादाबाद का एक्यूआइ 479 और हरियाणा के भिवाड़ी का एक्यूआइ 470 था। इस दिन देश के पांच शहर वायु प्रदूषण के मामले में दिल्ली को पीछे छोड़ रहे थे, जिनमें से तीन उत्तर प्रदेश में हैं। ऐसे में सवाल उठता है, आखिर जाएं तो जाएं कहां? इस दमघोंटू स्मॉग से कौन बचाएगा हमें? स्मॉग से निजात दिलाने के मामले में सरकारें किस तरह अपनी जिम्मेदारियों से भागती रही हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि आज इससे बचाव के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है, वह सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाइकोर्ट या फिर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेशों और कड़ी फटकार का नतीजा है। केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय निकाय और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी अपनी जिम्मेदारी से बचते रहे।

स्मॉग बढ़ने के बाद नई दिल्ली में पेड़ों पर पानी का छिड़काव

इस साल स्मॉग को लेकर बहस दिवाली के पहले ही शुरू हो गई थी। पिछले वर्षों में दिवाली और ठंड के आगमन के साथ दिल्ली-एनसीआर का आकाश स्मॉग से ढंक जाता और इसे लेकर चिंताओं-चर्चाओं का दौर शुरू होता। लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही पटाखों की बिक्री पर रोक लगाई। आस्था में कानून के हस्तक्षेप को लेकर बहस छिड़ गई। भावनाएं आहत हो गईं। पर्यावरण और प्रदूषण का मुद्दा गौण हो गया। विरोध जताते हुए कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पटाखे फोड़े। कई अखबारों ने जल्दबाजी में यहां तक खबर चला दी कि दिवाली पर पटाखे बैन करने का कोई असर नहीं पड़ा है। लेकिन तथ्य यह है कि इस साल दिवाली के दिन दिल्ली में वायु प्रदूषण पिछले साल से कम रहा है। यह बात अलग है कि कम होने के बावजूद यह अब भी खतरनाक स्तर पर है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट बताती है कि इस साल दिवाली के दिन दिल्ली में आइटीओ पर दूषित कणों (पीएम10) का स्तर 438 था, जो पिछले साल दिवाली के दिन 878 रहा था। सल्फर डाइ ऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड के प्रदूषण में भी उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई। दिल्ली में सात जगह दिवाली के दिन वायु प्रदूषण की तुलना पिछले साल से की गई। सातों जगह वायु प्रदूषण पिछले साल से कम रहा। दिलशाद गार्डन में दिवाली के दिन हवा में अत्यधिक छोटे दूषित कणों (पीएम10) का स्तर 183 पाया गया, जो पिछले साल दिवाली के दिन 602 था। प्रदूषण के पैमानों पर पीएम10 का 100 और पीएम2.5 का 60 से ऊपर होना खराब माना जाता है। यानी पटाखों पर बैन के बाद प्रदूषण में दिखी कमी के बावजूद हालत चिंताजनक है।

इन आंकड़ों से यह बात साफ हो गई कि अगर पटाखों पर रोक जैसा कदम न उठाया जाता तो इस साल दिल्ली की हवा पिछले साल से भी ज्यादा खराब होती। स्मॉग के खिलाफ यह महत्वपूर्ण कामयाबी थी, जो मूल मुद्दे से भटक कर आस्था की बहस में अटक गई। सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वॉयरनमेंट की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर (रिसर्च) अनुमिता रॉयचौधरी का कहना है कि एक झटके में प्रतिबंध लगाने के बजाय वायु प्रदूषण और स्मॉग की समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालीन और व्यवस्थित कदम उठाने की जरूरत है। सीएसई का विश्लेषण भी बताता है कि पटाखों की बिक्री पर रोक के बिना दिल्ली की हवा और भी खराब होती।

खेत में जलती पराली

जहां एक ओर वातारण जहरीला होता जा रहा है। दिल्ली के अलावा देश के बाकी शहरों को भी स्मॉग अपनी चपेट में ले रहा है, वहीं हुक्मरानों की बेपरवाही चरम पर है। पिछले साल दिल्ली की ऑड-ईवन कवायद राजनीत‌ि में भटक गई। इस साल दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के मुख्यमंत्री ट्विटर पर एक-दूसरे को घेरने में जुटे हैं, जबकि केंद्र सरकार मौन है। प्रदूषण के हद से बढ़ जाने के बाद एनसीआर में निर्माण और औद्योगिक गतिविधियों पर रोक और पेड़ों पर पानी के छिड़काव सरीखे फौरी कदम उठाए गए। ट्रांसपोर्ट विशेषज्ञ एसपी सिंह कहते हैं कि दिल्ली में ऑड-ईवन जैसी पहल से पहले पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुविधाएं बढ़ाने और लेन ड्राइविंग को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। समस्या काबू से बाहर होने के बाद प्रतिबंध थोपने से नई दिक्कतें पैदा होती हैं।  

आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार इस साल भी स्मॉग के मद्देनजर वाहनों को एक दिन छोड़कर चलाने की योजना ऑड-ईवन शुरू करने पर आमादा थी। लेकिन जैसे ही एनजीटी ने दुपहिया वाहनों को शामिल करने और महिलाओं को छूट न देने जैसी शर्तें लगाई तो सरकार पीछे हट गई। जाहिर है सरकार की तैयारियों की पोल खुलनी ही थी।

प्रदूषण पर अंकुश लगाने के मामले में सरकारी पहल तो दूर अदालती आदेशों का पालन कराने में कितनी लेटलतीफी है, इसे दिल्ली में डीटीसी बसों के इंतजाम से समझा जा सकता है। दिल्ली में बसों की तादाद बढ़ाकर 11 हजार करने के साल 2007 के हाईकोर्ट के आदेश पर अब तक अमल नहीं हुआ। दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत की ओर से उपराज्यपाल अनिल बैजल को लिखे पत्र से पता चलता है कि दिल्ली में बसें खड़ी करने की भी जगह नहीं है। इस पत्र के अनुसार, 11 हजार के बजाय दिल्ली में फिलहाल डीटीसी और प्राइवेट मिलाकर 5595 बसें चल रही हैं। यानी 2007 में हाईकोर्ट ने जितनी बसें चलाने का आदेश दिया गया था, 2017 में उसकी आधी बसें दिल्ली की सड़कों पर हैं। ऐसी बदइंतजामी के बीच ऑड-ईवन की तैयारियों पर सवाल उठने लाजिमी हैं।

जो धुआं और धूल आए साल दिल्ली समेत उत्तर भारत के तमाम शहरों की सांसे अटका देता है, यह कोई एक दिन में आई आपदा नहीं है। बरसों तक बेतरतीब शहरीकरण, नियम-कायदे ताक पर रखकर फले-फूले औद्योगीकरण, अंधाधुंध निर्माण और वाहनों की बढ़ती तादाद ने शहरों की हवा को हद से ज्यादा हानिकारक बना दिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, ईरान के जबोल के बाद ग्वालियर और इलाहाबाद अत्यधिक महीन कणों के प्रदूषण के लिहाज से दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहर हैं। दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 10 अकेले भारत से हैं। इसलिए दिल्ली का स्मॉग भले ही न्यूज चैनलों पर ज्यादा दिखाई दे, हालत बाकी शहरों की भी चिंताजनक ही है।

पिछले कई वर्षों से दिल्ली के आकाश पर स्मॉग आते ही सारा दोष हरियाणा-पंजाब में धान की कटाई के बाद जलने वाली पराली पर डालने का सिलसिला शुरू हो जाता है। 31 अक्टूबर से 12 नवंबर के बीच नासा से प्राप्त चित्रों के आधार पर हरियाणा व पंजाब में बड़े पैमाने पर पराली जलाए जाने का पता चला है। इसी दौरान दिल्ली और अन्य शहरों को स्मॉग ने अपनी चपेट में ले लिया। बेशक, सर्दियों में स्मॉग के पीछे खेतों की ये आग एक बड़ी वजह है, लेकिन इसकी आड़ में बाकी कारणों की अनदेखी नहीं की जा सकती। साल 2015 की आइआइटी, कानपुर की रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए 38 फीसदी सड़क की धूल और 20 फीसदी वाहनों का धुआं जिम्मेदार है। इन स्थापित कारणों की अनदेखी कर किसानों पर दोष मढ़ने की कोशिशों ने राज्यों के बीच रस्साकशी तेज कर दी है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ट्विटर पर हरियाणा और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को मिल-बैठकर समाधान निकालने की पेशकश कर रहे हैं तो अमरिंदर सिंह केजरीवाल की समझ पर ही सवाल उठा रहे हैं। केजरीवाल की पेशकश पर अमरिंदर का कहना है कि मुख्यमंत्रियों के बीच चर्चा का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इस मुद्दे से निपटने में केवल केंद्र सरकार ही सक्षम है। उधर, पंजाब के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का दावा है कि इस सीजन में पराली जलाने की घटनाओं में कम से कम 40 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, इसी बीच पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने पराली जलाने वाले किसानों के खिलाफ एफआइआर जैसी सख्त कार्रवाई से कदम वापस खींच लिए। इसे लेकर उन पर किसान संगठनों का भी दबाव है। बठिंडा जिले के युवा किसान नेता रमनदीप सिंह मान का कहना है कि हारवेस्टर से कटाई होने की वजह से खेत में पराली बचती है, जिसे जलाने के अलावा किसानों के पास कोई चारा नहीं बचता। पराली न जलानी पड़े, इसके तकनीकी उपायों पर किसान को प्रति एकड़ कम से कम 3500 से 4000 रुपये खर्च करने पड़ेंगे। अब सवाल यह है कि जो किसान पहले ही खेती के घाटे से जूझ रहा है वह इस खर्च को कैसे वहन करेगा। एक अनुमान के मुताबिक, पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हर साल करीब 23 लाख टन पराली कटाई के बाद खेतों में बची रह जाती है। गेहूं बुआई की जल्दी में किसान इसे खेतों में ही जला देते हैं।

लेकिन आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति के बीच जहां एक ओर हवा दिल्ली जैसे शहरों की जनता का दम घोंट रही है, वहीं किसानों को इसका गुनहगार बनाया जा रहा है। पिछले साल नीति आयोग की पहल पर पराली जलाने पर रोकथाम के लिए करीब तीन हजार करोड़ रुपये के पैकेज की सिफारिश की गई थी। इस पैसे से पराली के निस्तारण में किसानों की मदद होनी थी। पराली के ईंट-भट्टों में जलाने  सरीखे कई उपाय सुझाए गए। काफी लंबे विचार-विमर्श के बाद मामला इस बात पर आकर अटक गया कि यह पैसा केंद्र सरकार देगी या राज्य सरकार खर्च करेगी।

पराली के मुद्दे पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने चुनौती दी कि पहले केजरीवाल बताएं उन्होंने दिल्ली में पराली में आग पर रोकथाम के लिए क्या किया है। इससे पहले 10 नवंबर को केजरीवाल ने समस्या के समाधान के लिए हरियाणा और पंजाब के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था। खट्टर का दावा है कि 2014 के बाद हरियाणा में पराली जलाने की घटनाओं में काफी कमी आई है।

वायु प्रदूषण की समस्या से निजात दिलाने में सरकारें किस तरह नाकाम हो रही हैं, उसका पराली वाले मसले से बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। स्मॉग के अलावा भूजल स्तर में गिरावट की वजह से भी पंजाब सरकार चाहती है कि किसान धान की खेती कम ही करें। केंद्र सरकार अगर मक्का से इथेनॉल बनाने की छूट दे तो बहुत से किसान धान के बजाय मक्का की खेती की तरफ मुड़ सकते हैं। इससे पराली जलने की समस्या के समाधान में भी मदद मिलेगी।

दिक्कत यह है कि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हरेक कारक और इसकी राजनीति इतनी ही उलझी हुई है। साफ हवा के लिए दिल्ली का संघर्ष दशकों पुराना है। पुराने और डीजल वाहनों पर रोक लगाने का मुद्दा हो या फिर दिल्ली में ट्रकों की एंट्री पर पाबंदी। सरकारों की बेपरवाही ने इन मसलों को अदालत के दरवाजे तक पहुंचा दिया और अब अदालतों के सहारे ही कुछ उपाय किए जा रहे हैं। अदालतें बार-बार दिल्ली के गैस चेंबर में तब्दील होने की दुहाई दे रही हैं, लेकिन जीवन से जुड़ा यह मामला राजनैतिक दांवपेंच में उलझकर रह गया है।

 

साइलेंट किलर बन रहा है वायु प्रदूषण

दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की स्थिति बेहद चिंताजनक है। सालाना करीब तीस हजार लोगों की मौत सांस से जुड़ी बीमारियों से होने का अनुमान है। इस मुद्दे पर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया से शशिकांत वत्स की बातचीतः

दिल्ली-एनसीआर में स्मॉग से हेल्‍थ इमरजेंसी जैसे हालात क्यों बन गए?

दिल्ली में स्मॉग के कई कारण हैं। सड़कों पर ट्रैफिक है, डीजल की गाड़ियां हैं। रोज करीब हजार गाड़ियां दिल्ली में नई पंजीकृत होती हैं। दूसरा, दिल्ली में निर्माण कार्य काफी होता है जिससे धूल पैदा होती है। तीसरा, उत्तरी भारत में पराली जलाई जाती है। इन सभी चीजों से प्रदूषण हो रहा है। दिल्ली और उत्तर भारत का क्षेत्र पूरी तरह मैदान से घिरा है। प्रदूषण के सभी कारण मिलकर सर्दियों में ऐसा वातावरण बना देते हैं जिससे पीएम का स्तर बढ़ता है। जिन लोगों को सांस या दिल की समस्या है उनके लिए यह स्थिति खतरनाक होती है। लोगों के स्वास्‍थ्य पर गंभीर असर पड़ने के कारण हम इसे एक तरह की इमरजेंसी कहते हैं।

वायु प्रदूषण स्वास्थ्य को किस तरह प्रभावित करता है?

इसे हम साइलेंट किलर कहते हैं। यदि किसी मरीज को कोई संक्रमण हुआ है मसलन डेंगू या स्वाइन फ्लू तो उसे हम जांच के लिए कहते हैं। इससे संक्रमण का पता चलता है और मौत होने पर हम इसका कारण भी बता सकते हैं। प्रदूषण सांस की नली में रुकावट पैदा करता है। इससे दमा, ब्रोंकाइटिस या दिल से संबंधित परेशानी बढ़ जाती है। मरीज को आइसीयू में दाखिल कराने तक की नौबत आ जाती है। वेंटिलेटर की जरूरत भी पड़ सकती है और उसकी मौत भी हो सकती है।

वायु प्रदूषण से हर साल दिल्ली-एनसीआर में कितनी मौतें होती हैं?

दुनिया भर में जहां भी अध्ययन हुए हैं, वहां पाया गया है कि वायु प्रदूषण से ज्यादातर मौतें सांस की परेशानी से पीड़ित लोगों और बुजुर्गों की होती हैं। ऐसे लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और उनके फेफड़े कमजोर होते हैं। प्रदूषण होने पर वे पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं ले पाते। प्रदूषण के कारण दिल्ली-एनसीआर में हर साल करीब तीस हजार लोगों के मरने का अनुमान है। साल दर साल प्रदूषण बढ़ रहा है। यही कारण है कि स्मॉग होने पर सांस संबंधी मरीजों की संख्या 20 फीसदी तक बढ़ जाती है।

वायु प्रदूषण से जुड़े अध्ययन क्या कहते हैं?

1999 में एक अध्ययन एम्स ने किया था। उस समय भी प्रदूषण का स्तर खतरनाक था। सर्दियों के मौसम में सांस और दिल के मरीजों की संख्या बढ़ जाती थी। वर्ष 2000 में दिल्ली में सीएनजी की बसें आने के बाद प्रदूषण का स्तर कम हुआ था। लेकिन, अब फिर पहले जैसे हालात हो गए हैं। हम इसका अध्ययन कर रहे हैं। अलग-अलग मौसम में प्रदूषण के स्तर का डेटा जुटाया जा रहा है।

सीएनजी वाहन आने के बावजूद प्रदूषण में कमी नहीं होने का क्या कारण है?

यह ठीक है कि सीएनजी लाया गया। लेकिन, इसके बाद यह भी सोचा जाना चाहिए था कि पांच साल बाद क्या कदम उठाएंगे। दस साल बाद इस समस्या से निपटने के लिए क्या उपाय करने पड़ेंगे। दूरगामी योजना बननी चाहिए थी। सीएनजी भी अदालत के आदेश पर लाया गया था। उसके बाद गाड़ियों की संख्या बढ़ती रही। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्‍था पर ध्यान नहीं दिया गया। इससे हालात सुधरने के बजाय फिर से वहीं पहुंच गए।

मास्क वगैरह प्रदूषण से बचाव में कितने कारगर हैं?

मास्क ज्यादा असरकारी नहीं होता। इसे कस के बांधने पर ही फायदा होता है, लेकिन ऐसा करने पर सांस लेने में परेशानी होने लगती है। ज्यादा देर मास्क कस कर बंधा रहने पर घुटन भी होने लगती है। एन-95 या एन-99 जैसे मास्क भी काफी देर तक नहीं बांधे जा सकते। इसे समस्या का स्थायी समाधान नहीं माना जा सकता। 

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