Advertisement

कांग्रेस और सीआइए का वह गठजोड़

छह दशक पहले केरल में निर्वाचित नंबूदीरिपाद सरकार को राज्य में उपद्रव के बहाने बर्खास्त करके केंद्र की कांग्रेस सरकार ने लोकतांत्रिक और प्रगतिशील सुधारों को पहला झटका दिया
पहली निर्वाचित वाम सरकारः पांच अप्रैल 1957 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते नंबूदीरिपाद

साठ साल पहले, अप्रैल 1957 में केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार बनी। कम्युनिस्ट पार्टी और उसके समर्थित निर्दलीयों ने विधानसभा चुनाव में 126 में से 65 सीटों पर जीत हासिल की। संसदीय प्रणाली के तहत कम्युनिस्ट पार्टी की बहुमत हासिल कर सरकार बनाने की यह पहली घटना थी, इसलिए पूरी दुनिया में उसकी धमक सुनाई दी। इसके पहले 1945 में इटली के उत्तर-पूर्व में स्थित छोटे से देश सान मारिनो में ऐसा उदाहरण मिलता है, जिसकी आबादी उस समय 30 हजार से भी कम थी। फिर, वह कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी की गठबंधन सरकार थी। ईएमएस नंबूदीरिपाद के मुख्यमंत्री के तौर पर पांच अप्रैल 1957 को शपथ लेने के साथ पहली बार एक प्रगतिशील सरकार का गठन हुआ। पांच अप्रैल 1957 से 31 जुलाई 1959 को बर्खास्त किए जाने के बीच इस सरकार के उठाए कदमों ने केरल और राष्ट्रीय राजनीति पर व्यापक प्रभाव डाला। ये कदम सामंतवाद के सफाए और सामाजिक न्याय पर आधारित जनवादी समाज की बुनियाद रखने की दिशा में अहम थे।

28 महीने के संक्षिप्त कार्यकाल में ईएमएस सरकार ने भूमि सुधार, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने तथा मजदूर वर्ग के कल्याण के ‌लिए अग्रणी कदम उठाए और जन समर्थक पुलिस नीति को सामने रखा।

भूमि सुधारों की पहल

सरकार बंटाईदारों को बेदखली से बचाने के लिए पहले अध्यादेश लाई। फिर, कृषि सुधार बिल लाया गया। कृषि संबंध विधेयक ईएमएस सरकार का सबसे महत्वपूर्ण विधायी कार्य था। गहन चर्चा के बाद केरल विधानसभा ने जून 1959 में इसे मंजूरी दी, लेकिन इस पर राष्ट्रपति की मुह‌र लगने से पहले ही सरकार बर्खास्त कर दी गई।

कृषि संबंध विधेयक क्रांतिकारी एजेंडे से नहीं निकला था। यह तो उसी कार्यक्रम का हिस्सा था, जिसका स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस ने किसानों और जनता से वादा किया था। खेत बंटाई की अवधि तय करने, बंटाई की रकम कम करने, बंटाईदारों के अधिकार पुख्ता करने और जमीन मालिकों को मुआवजा देकर जोतदार को जमीन का मालिक बनाने के लिए मामूली सुधार किए गए थे। विधेयक में दो फसली जमीन के मालिकाना हक की अधिकतम सीमा 15 एकड़ तय की गई थी। इस जरूरी लोकतांत्रिक कृषि सुधार का बुर्जुआ-जमीन मालिक वर्ग ने जबरदस्त विरोध किया।

इसके अलावा शिक्षा विधेयक का भी जबरदस्त विरोध हुआ। यह शिक्षकों की नियुक्ति और सेवा शर्तों को नियमित करने के लिए था। इसमें शिक्षकों का वेतन सरकारी खजाने से देने का प्रावधान किया गया था। इसके अलावा कानून का उल्लंघन करने वाले शैक्षणिक संस्थानों के अधिग्रहण का भी प्रावधान था। लेकिन निजी शैक्षणिक संस्थानों पर राज्य के नियंत्रण का कोई प्रस्ताव नहीं था। फिर भी, कैथोलिक चर्च ने सरकार के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया और उसके साथ जाति और संप्रदाय आधारित संगठन जुड़ गए, जिनका शिक्षा के क्षेत्र में निहित स्वार्थ था। आजादी के वक्त कम्युनिस्टों ने जो कहा था, ईएमएस सरकार उसी रास्ते पर चली। जमींदारी और सामंती निहितस्वार्थों के साथ सांठगांठ के कारण बुर्जुआ वर्ग ने जनवादी क्रांति को आगे बढ़ने से रोका। पहली कम्युनिस्ट सरकार के सभी विधेयकों और कदमों का समग्र मूल्यांकन करें तो वे किसी भी तरह से समाजवादी नहीं थे। वे लोकतांत्रिक सुधार थे जो समाज के लोकतांत्रिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की कम्युनिस्ट पार्टी की सोच से पैदा हुए थे। यह ऐसा काम था जो आजादी के बाद से अधूरा था।

त्रिवेंद्रम एयरपोर्ट पर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगवानी करते मुख्यमंत्री

नई पुलिस नीति

ईएमएस सरकार ने पुलिस के लिए जन समर्थक नीति का नया रास्ता दिखाया। उसने साफ किया कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कामकाजी वर्ग के उत्पीड़न का पुलिस हथियार न बने। कामकाजी लोगों के आंदोलन को कुचलने में पूंजीवादियों और जमींदारों के मददगार बनने की पारंपरिक भूमिका पुलिस न निभाए। यह भी आरोप लगाया गया कि कम्युनिस्ट पुलिस को पंगु बनाकर उसकी जगह ‘काडर राज’ लाना चाहते हैं। जैसा कि ईएमएस ने कहा था, “इस नीति का मर्म यह है कि पुलिस का काम ट्रेड यूनियन को कुचलना, किसानों और किसी भी संगठन के जनांदोलन या किसी भी राजनैतिक दल के संघर्ष को दबाना नहीं है। पु‌लिस का काम ऐसे लोगों को पकड़ना और सजा दिलवाना है जो अपराधों को अंजाम देते हैं।” ईएमएस सरकार की अपनायी पुलिस नीति भविष्य में वाम नेतृत्व वाली सरकारों के लिए मॉडल बनी। पश्चिम बंगाल की संयुक्त मोर्चा सरकार ने 1967 और 1969 में यही नीति लागू की, जब ज्योति बसु गृह मंत्री थे।

मजदूर वर्ग का कल्याण

पहली कम्युनिस्ट सरकार ने साबित किया कि सीमित दायरे में भी मजदूर वर्ग के जीवन स्तर में सुधार के लिए राज्य सरकार कदम उठा सकती है। 18 उद्योगों और कृषि श्रमिकों के ‌लिए न्यूनतम मजदूरी के नियम ने मजदूर वर्ग के वेतन में पर्याप्त वृद्धि की। कृषि उत्पादक ऋण राहत अधिनियम ने किसानों को सूदखोर-साहूकारों से पर्याप्त राहत दी। मातृत्व लाभ अधिनियम ने महिलाओं को उनके बहुप्रतीक्षित अधिकार दिए। राष्ट्रीय और पर्व-त्योहारों की छुट्टी अधिनियम से मई दिवस सहित सात वैतनिक छुट्टी का रास्ता साफ हुआ। ये कदम और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित वेलफेयर बोर्ड के गठन ने न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान करने, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिहाज से केरल को एक अनूठा राज्य बना दिया। यह अनुभव बताता है ‌कि मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में कोई राज्य सरकार सीमित शक्तियों के बावजूद मजदूर वर्ग के कल्याण के लिए काम कर सकती है।

विकेंद्रीकरण

जब हम केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार का प्रदर्शन देखते हैं तो पता चलता है कि कैसे उन नीतियों की पहुंच व्यापक थी। हालांकि सरकार ने कई बिल पेश किए, जो सिरे नहीं चढ़ पाए लेकिन उस सरकार ने जो नीतियां अपनाईं, उसने भविष्य का रास्ता दिखाया। मसलन, पंचायत विधेयक और जिला परिषद विधेयक ने पहली बार सत्ता के विकेंद्रीकरण का रास्ता खोला। इनमें भी अड़ंगा डाला गया। हालांकि पहली कम्युनिस्ट सरकार ने जो शुरुआत की उसे बाद की वामपंथी सरकारों ने आगे बढ़ाया, जिससे केरल में पंचायती राज मजबूत हुआ। ईएमएस सरकार ने प्रशासनिक सुधारों का मसला भी गंभीरता से उठाया था। ईएमएस सरकार ने राज्य में खाद्यान्न की कमी को दूर करने में भी गंभीरता दिखाई। लोगों की खाद्य समितियां स्‍थापित कीं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की निगरानी के लिए इसमें चुने हुए प्रतिनिधियों को शामिल किया। तब विपक्ष ने इसे कम्युनिस्ट पार्टी का चंदा जुटाने का हथकंडा बताकर इसका विरोध किया।

कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी

कम्युनिस्ट सरकार के फैसलों, खासकर कृषि संबंध और शिक्षा कानून का जातिवादी और सांप्रदायिक ताकतों ने विरोध किया। कैथोलिक चर्च और नायर सेवा समिति ने कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के साथ मिलकर ‘विमोचना समारम (मुक्ति संग्राम)’ शुरू किया। शुरुआत में यह एजुकेशन बिल, कृषि सुधार बिल और आरक्षण के विरोध में था, लेकिन दूसरे चरण में इस संघर्ष का लक्ष्य सरकार को उखाड़ फेंकना हो गया।

कम्युनिस्ट विरोधी गठबंधन श्रमिक, किसान और कामकाजी वर्ग के खिलाफ वर्ग संघर्ष का क्रूर चेहरा दिखाता है। इस संघर्ष में व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई। ऐसी हर चीज जिससे व्यापक पैमाने पर लोग प्रभावित होते जैसे सरकारी स्कूल, कोऑपरेटिव संचालित ताड़ी की दुकानें, राज्य परिवहन की बसों को मुख्य रूप से निशाना बनाया गया। 1959 में पुलिस पर हमला करने और उसे गोलीबारी के लिए उकसाने की रणनीति की शुरुआत हुई। इस तरह की गोलीबारी में हुई मौतों का उस समय इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने और ‘कानून-व्यवस्‍था खराब’ होने का आरोप लगाने के लिए आधार तैयार करने में किया गया, ताकि केंद्र हस्तक्षेप करने को मजबूर हो ।

अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग

जिस तरीके से जुलाई 1959 में सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल किया गया, वह मिसाल ही बन गया। गवर्नर की रिपोर्ट एक दिन बाद ही मद्रास से हवाई सेवा से आनी थी, सो, इंटेलिजेंस ब्यूरो से कहा गया कि मद्रास में ही हवाई जहाज से रिपोर्ट हासिल करे और टेलीफोन से रिपोर्ट के बिंदुओं के बारे में नई दिल्ली को बताए। पूरी रिपोर्ट फोन पर लिखवाई गई। यही रिपोर्ट राष्ट्रपति शासन लागू करने का आधार बनी। जिस तरीके से राज्यपाल की रिपोर्ट प्राप्त की गई और उसका इस्तेमाल हुआ, वह बाद की केंद्र सरकारों के लिए एक अलोकतांत्रिक मिसाल बनी। इसी के बाद अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग बंद करने की मांग देश की लोकतांत्रिक ताकतों के लिए अहम मुद्दा बना।

सीआइए दखल

दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनने पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का भी ध्यान उधर गया, जिसने कम्युनिस्ट दुनिया के खिलाफ शीतयुद्ध छेड़ रखा था। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फोस्टर डुल्स ने सितंबर 1957 में एक संवाददाता सम्मेलन में भारत और इंडोनेशिया के स्‍थानीय चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत को एक खतरनाक चलन बताया था। इसके बाद कम्युनिस्ट सरकार के स्‍थानीय विरोधियों को अमेरिका से मदद मिली। अमेरिका ने कांग्रेस नेतृत्व को कम्युनिस्ट सरकार को बेदखल करने के लिए पैसे दिए, जिसकी बाद में पुष्टि हुई। भारत में अमेरिकी राजदूत रहे डेनियल पैट्रिक मोयनिहान ने अपने संस्मरण ‘ए डेंजरेस प्लेस’ में इस बात की पुष्टि की है कि सीआइए ने कांग्रेस नेतृत्व को दो मौकों पर कम्युनिस्टों से मुकाबले के लिए पैसे दिए। पहली बार केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार बनने के दौरान और दूसरी बार साठ के दशक में पश्चिम बंगाल में।

अग्रणी भूमिका

बाद में केरल में जब-जब वाम नेतृत्व वाली सरकार बनी उसने पहली कम्युनिस्ट सरकार की योजनाओं और नीतियों को आगे बढ़ाया। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे दूसरे राज्यों में जहां वाम नेतृत्व वाली सरकार बनी भूमि सुधार और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया। पहली कम्युनिस्ट सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई, लेकिन 28 महीने के कार्यकाल में ही उसने कृषि सुधार और लोकतांत्रिक बदलाव की जो शुरुआत की उसका प्रभाव देश आज भी महसूस करता है।

छह दशक बाद, उस सरकार के काम को आगे बढ़ाने के लिए देश के सामने एक प्रगतिशील एजेंडा और एक वाम तथा लोकतांत्रिक विकल्प का होना जरूरी है। ऐसे दौर में जब दक्षिणपंथ की आक्रामकता अपने शबाब पर है इस प्रयास को आगे बढ़ाना सबसे ज्यादा जरूरी है। 

(लेखक माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य और पूर्व महासचिव हैं) 

Advertisement
Advertisement
Advertisement