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मुनाफे की खिसकती जमीन

आर्थिक खस्ताहाली और नोटबंदी तथा जीएसटी की मार ने जमीन से निवेशकों को दूर किया तो दाम आधे से भी नीचे आ गए
नहीं रहा वह दौरः निजी क्षेत्र की जमीन में रुचि घटी तो सरकारी परियोजनाओं के लिए आसान हुआ अधिग्रहण

आर्थिक उदारीकरण के बाद प्रॉपर्टी बूम ने बड़े-बड़े जमींदारों को रातो-रात प्रॉपर्टी डीलर और डेवलपर बना दिया था। यह देखने के लिए आप दिल्ली से किसी भी दिशा में 20-30 किलोमीटर निकल जाइये। कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते खेत-खलिहान दिख जाएंगे। भू-स्वामियों को मालामाल करती जमीन खेती-बाड़ी जैसे परंपरागत काम-धंधों को निरर्थक साबित करने लगी थी। लेकिन आजकल इस माहौल में अजीब-सी उदासी छायी है। आधी-अधूरी इमारतें और खाली पड़े प्लॉट रियल एस्टेट की मौजूदा सुस्ती को बयान कर रहे हैं। प्रॉपर्टी बाजार में इस सुस्ती की अपनी वजहें और दुष्चक्र हैं जिनके सिरे नोटबंदी, जीएसटी और काले धन पर नकेल की कोशिशों में लिए गए सरकार के फैसलों से जुड़ते हैं। निवेश के विकल्प के तौर पर जमीन से उपजी संभावनाएं कैसे धाराशायी हो चुकी हैं, यह बताने के लिए पिछले एक दशक से प्रॉपर्टी कारोबार से जुड़े मनोज कुमार हमें मेरठ बाइपास से सटे अपने गांव जटौली ले जाते हैं। मेरठ के पुराने शहर की चौहद्दी के बाहर यह इलाका दिल्ली को देहरादून और हरिद्वार से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर-58 के किनारे है। 2000 के बाद यह क्षेत्र बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों का गढ़ बनकर उभरा। देखते ही देखते इस बाइपास पर नए मेरठ का अक्स दिखने लगा। हाइवे किनारे कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, होटल-रेस्तरां की कतारों ने जटौली जैसे दर्जनों गांवों की कायापलट कर दी। जटौली सरीखे दर्जनों गांव रियल एस्टेट बूम का अनुभव करने लगे। लेकिन कीमतों में उछाल का वह बुलबुला अब फूटने लगा है। 

मनोज कुमार बताते हैं कि जमीन की खरीद-फरोख्त में अच्छे मुनाफे के बाद 2012 में उन्होंने मेरठ बाइपास के पास बीएड कॉलेज खोलने के लिए जमीन खरीदनी चाही। एक जमीन पसंद भी आई, जिसका रेट तब 2500 रुपये प्रति वर्ग गज था। बहरहाल, कॉलेज नहीं खुला क्योंकि एजुकेशन सेक्टर में सुस्ती के संकेत दिखने लगे थे। पहले से चल रहे कॉलेजों की सीटें खाली रहने लगीं। मनोज बताते हैं कि वर्ष 2015 में उन्होंने वही जमीन 1600 रुपये प्रति वर्गगज के रेट पर खरीदी। अब 2017 में इसी जमीन का एक हिस्सा 1200 रुपये प्रति वर्गगज के रेट पर बेचना पड़ा। इस जमीन का सर्किल रेट 2700 रुपये प्रति वर्गगज के आसपास है। मतलब अगर कोई सस्ती दरों पर जमीन खरीद भी ले तो रजिस्ट्री कराना महंगा पड़ेगा। पहले सर्किल रेट बाजार भाव से काफी कम हुआ करते थे और लेनदेन का बड़ा हिस्सा ब्लैकमनी में होता था। लेकिन आर्थिक सुस्ती, नोटबंदी, प्रॉपर्टी कीमतों में गिरावट, नकद लेनदेन पर पाबंदियों और आयकर विभाग की सख्ती ने प्रॉपर्टी खरीद-फरोख्त की समूची अर्थव्यवस्था को ठप कर दिया। असर यह हुआ कि बहुत-से खरीदार बाजार से गायब हो गए। जायज खरीदार भी सहम गए। इसकी गवाही सरकारी आंकड़े भी दे रहे हैं। मेरठ जिले में 2014-15 में प्रॉपर्टी के कुल 47,156 बैनामे हुए थे, जिनकी तादाद 2016-17 में घटकर 34,143 रह गई। यानी करीब 28 फीसदी की गिरावट!   

निवेश के विकल्प के तौर पर जमीन का जलवा उतरने के ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। शहरीकरण की जरूरतों और सदियों से जारी जमीन की भूख के बावजूद बदले आर्थिक हालात ने भूखंडों की चमक फीकी कर दी है। प्रॉपर्टी बाजार के लोगों से बातचीत करने पर मालूम पड़ता है कि दिल्ली-एनसीआर के मेरठ, गाजियाबाद, नोएडा और फरीदाबाद जैसे इलाकों में जमीन के दाम पिछले पांच साल में 30-40 फीसदी तक गिर चुके हैं। कहीं-कहीं 50 फीसदी गिरावट भी देखी गई है।

दरअसल, रियल एस्टेट में छायी सुस्ती की मार जमीन तक पहुंचते-पहुंचते गहरा जाती है। रियल एस्टेट समूह विक्‍ट्री वन के प्रबंध निदेशक सुधीर अग्रवाल बताते हैं कि जमीन की कीमतों में उच्चतम स्तर के मुकाबले तकरीबन 30 फीसदी की गिरावट देखी जा रही है। इसके कई कारण हैं। सबसे ज्यादा तो प्रॉपर्टी मार्केट पर निगेटिव सेंटीमेंट की मार पड़ रही है, जिसके लिए काफी हद तक डेवलपर्स-बिल्डर भी जिम्मेदार हैं। बड़ी तादाद में हाउसिंग प्रोजेक्ट समय पर पूरे नहीं हो पाए और खरीदारों को सड़कों पर उतरना पड़ा। इस कारण नए खरीदार भी डरे हुए हैं। फिर जिन डेवलपर्स ने डिफाल्ट किए, वे खुद उलझन में हैं। वे लैंड बैंक होने के बावजूद नए प्रोजेक्ट लाने की स्थिति में नहीं हैं। बैंक भी इनके साथ सख्ती से पेश आ रहे हैं। ऊपर से नोटबंदी, जीएसटी, नए रियल एस्टेट कानून की मार भी पड़ रही है। इस सब का मिलाजुला असर है कि नए प्रोजेक्ट आने की रफ्तार थम गई है। जाहिर है, ऐसे में जमीन की मांग और खरीदार घट गए हैं। इसे जमीन की कीमतों में गिरावट के ट्रेंड से समझा जा रहा है।

एसोटेक रियलिटी प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर महेंद्र कुमार गोयल बताते हैं कि दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के बेहद पॉश इलाकों को छोड़ दें तो जमीन की कीमतों में गिरावट साफ नजर आ रही है। वह बताते हैं कि यमुना एक्सप्रेसवे के आसपास जो जमीनें साल 2011-12 में लगभग 14 हजार रुपये वर्गगज के रेट पर बिक रही थीं, अब उनका भाव 6-7 हजार रुपये गज चल रहा है। सोने, शेयर मार्केट और एफडी के साथ-साथ जमीन भी लोगों के लिए निवेश का पसंदीदा विकल्प रहा है। निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से लेकर बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स और कंपनियां सुरक्षित निवेश के लिए जमीन का रुख करती हैं। जमीन का यह आकर्षण शाश्वत-सा है। महाभारत से लेकर जमीन की भूख को बयां करती लियो टॉलस्टॉय की एक कहानी तक जमीन के टुकड़े मनुष्य के लालच और असुरक्षा बोध को तुष्ट करते हुए शहरीकरण व औद्योगिक विकास की बुनियाद तैयार करते रहे हैं। आकर्षक रिटर्न और जायदाद के कब्जे में होने का एहसास इन्हें निवेश का लोकप्रिय विकल्प बनाए हुए था। लेकिन बदली परिस्थितियों में जमीन का यह आकर्षण आर्थिक जोखिम में तब्दील होता जा रहा है।

इंतजार उपभोक्ताओं काः गुड़गांव में परियोजनाएं लटकीं तो जमीन की मांग घटी

हजारों एकड़ के लैंड बैंक तैयार करने वाले रियल एस्टेट डेवलपरों के लिए आज यही जमीन परेशानी का सबब बन गई है। इस बारे में महेंद्र गोयल बताते हैं कि प्रॉपर्टी बूम के वक्त बहुत-से डेवलपरों ने लैंड बैंक बनाने में निवेश किया। बहुत-से बिल्डरों ने प्रोजेक्ट पूरा होने से पहले ही खरीदारों से मिले पैसे को जमीन में लगा दिया। उन्हें उम्मीद थी कि आने वाले दिनों में प्रॉपर्टी की मांग बढ़ेगी और लैंड बैंक उनके लिए फायदे का सौदा साबित होंगे। लेकिन जैसे ही बाजार में सुस्ती आई और खरीदार कम हुए, लैंड बैंक के मंसूबे धरे रह गए। यूनिटेक, जेपी और आम्रपाली जैसे डेवलपरों पर अब अपनी जमीनें बेचकर खरीदारों को पैसा या मकान देने का दबाव बढ़ता जा रहा है। कभी देश की दूसरी सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी रही यूनिटेक पर 16 हजार से ज्यादा खरीदारों की देनदारी और 6733 करोड़ रुपये का कर्ज है। खबर है कि इससे उबरने के लिए कंपनी अपने छह बड़े भूखंड बेचने की कोशिश कर रही है। लेकिन इसके लिए खरीदार मिलने में समय लग रहा है। दिवालिया होने की प्रक्रिया से गुजर रहे जेपी इंफ्राटेक तो समूचे यमुना एक्सप्रेसवे प्रोजेक्ट को ही बेचना चाहता है। नोएडा में 20 से ज्यादा डेवलपर आवंटित प्लॉटों को नोएडा अथॉरिटी को वापस लौटा चुके हैं। इनमें वेब इन्फ्राटेक ने नोएडा के पॉश इलाके में 152 एकड़ में से 110 एकड़ का प्लॉट वापस कर चुका है। उसने सेक्टर 18 में भी 2500 वर्गमीटर का प्लॉट वापस कर दिया है। जमीन पर काबिज होने की होड़ एक मायने में जमीन से पिंड छुड़ाने में बदलती जा रही है।

बडे़ डेवलपरों के अलावा जमीन की गिरती कीमतों से ऐसे छोटे निवेशकों को भी झटका लगा है जो इसे सुरक्षित निवेश का साधन मान रहे थे। नई दिल्ली की एक कामकाजी महिला अनुपमा अग्रवाल बताती हैं कि उन्होंने 2005 में उत्तरी दिल्ली से लगे ट्रोनिका सिटी में 5400 रुपये प्रति गज के भाव पर एक प्लॉट खरीदा था। 2012 में इस प्लॉट का दाम 30 हजार रुपये गज तक पहुंच गया। लेकिन इस साल जब जरूरत पड़ने पर प्लॉट बेचा तो बड़ी मुश्किल से 11 हजार रुपये का रेट मिला। अनुपमा बताती हैं कि बरसों तक वह गलतफहमी में रहीं कि उनका निवेश पांच-छह गुना बढ़ चुका है जबकि हकीकत में यह 12 साल में दोगुना हो पाया। रियल एस्टेट में निवेश को लेकर उनकी धारणा एक झटके में बदल गई। अब उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जमीन में पैसा न लगाएं तो कहां लगाएं? बैंकों में जमा की ब्याज दरें पहले ही घटती जा रही हैं। 

महेंद्र गोयल मानते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में पॉश इलाकों को छोड़कर जमीन के दाम 2011-13 के बीच सर्वोच्च स्तर को छूने के बाद से 40 फीसदी तक गिर चुके हैं। बहुत-से पुराने प्रोजेक्ट पूरे न होने, नए खरीदारों के अकाल और नए प्रोजेक्ट शुरू न होने का असर जमीन की मांग और दाम पर पड़ रहा है। गोयल के मुताबिक, जिन रियल एस्टेट डेवलपरों ने बड़े-बड़े लैंड बैंक बनाए थे, वह रणनीति भी मौजूदा माहौल में कारगर साबित नहीं हुई। ज्यादातर जमीन अलग-अलग जगह हैं और प्राइम लोकेशन पर बड़े प्लॉट कम हैं जहां हाउिसंग प्रोजेक्ट लांच कर मकान बेचे जा सकें। गोयल बताते हैं कि खुद एसोटेक रियलिटी ने सिरडी में नौ हजार वर्ग मीटर का भूखंड लेने की योजना बनाई थी, जिससे कदम खींच लिए हैं।

मकानों के खरीदारों में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की होती है, जो रिहाइश के लिए मकान खरीदते हैं। लेकिन प्लॉट के मामले में विशुद्ध निवेशकों की तादाद अधिक होती है जो जमीन को निवेश का सुरक्षित और आकर्षक विकल्प मानते हैं। साल 2008 की आर्थिक सुस्ती से पहले प्रॉपर्टी बूम में जमीन के ये टुकड़े पैसा उगल चुके हैं। इसे देखकर जमीन में निवेश करने वाले बहुत से लोगों को हाल के वर्षों में झटका लगा है। यमुना एक्सप्रेसवे और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने 2009 में 60 से लेकर 500 गज के प्लॉट 4200-4500 रुपये गज के दाम पर बेचे थे। आज 8 साल बाद ये प्लॉट 9-10 हजार रुपये गज के भाव पर बिक रहे हैं। प्रॉपर्टी बाजार के इस बदले हाल की वजह से ही सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर भू-स्वामियों का रुझान तेजी से बदला है। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआइ) के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि बाजार भाव अधिक होने की वजह से पहले कई लोग भूमि अधिग्रहण का विरोध करते थे। अब हालत यह है कि कई जगह भू-स्वामियों के बीच जमीन देने की होड़ मच गई है क्योंकि मुआवजे का रेट मौजूदा बाजार भाव से कहीं ज्यादा है। इससे परियोजनाओं की लागत बढ़ी है लेकिन जमीन का बेहतर दाम मिल रहा है। यह बदलाव 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के बाद आया है। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने पिछले तीन साल में करीब 23 हजार हेक्टेअर जमीन का अधिग्रहण कर लगभग 47 हजार करोड़ रुपये का मुआवजा बांटा है।  

रियल एस्टेट डेवलपर्स की संस्था क्रेडाई के एनसीआर चैप्टर के प्रेसिडेंट पंकज बजाज बताते हैं कि पिछले साल भर के दौरान तीन चीजों ने रियल एस्टेट बाजार को खासतौर पर प्रभावित किया है। इसका असर भूखंडों पर भी पड़ा। नोटबंदी के दौरान प्रॉपर्टी कारोबार तकरीबन ठप हो गया था। कुछ महीने बाद कामकाज शुरू हुआ मगर घटी कीमतों के साथ। इसके बाद रियल एस्टेट (नियमन एवं विकास) अधिनियम, 2016 (रेरा) और फिर जीएसटी की मार। बजाज मानते हैं कि 2013-14 के मुकाबले महानगरों के आसपास जमीन की कीमतों में 25 फीसदी तक की गिरावट आई है। पहले कुछ साल प्रॉपर्टी के दाम न बढ़ना और फिर गिरावट के चलते जमीन खरीदारों के लिए इससे बेहतर मौका कोई नहीं हो सकता। लेकिन डेवलपर फिलहाल अपनी परेशानियों से घिरे हैं और मकानों के खरीदार कम हैं इसलिए मार्केट को उबरने में वक्त लगेगा। फिर भी बजाज का मानना है कि 5-8 साल की अवधि के लिहाज से यह जमीन में निवेश करने का उपयुक्त समय है क्योंकि जमीन की कीमतें काफी कम हैं। कम दाम में खरीदे गए भूखंडों का फायदा भविष्य में बाजार के उबरने पर मिल सकता है।

जो बात बजाज समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कई लोग उसे बखूबी समझते हैं। इसलिए ठंडे पड़े प्रॉपर्टी बाजार और नए प्रोजेक्ट की लॉन्चिंग के अकाल के बावजूद जमीन में निवेश का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। पिछले महीने एनएच-58 पर प्लॉट खरीदने वाले विश्वजीत सिंह बताते हैं कि तकरीबन आधे दाम पर मिल रही जमीन का लालच वह छोड़ नहीं पाए और बाजार में सुस्ती के बावजूद प्लॉट में पैसा लगाने का फैसला किया। उन्हें यकीन है कि आगे चलकर यह फायदे का सौदा साबित होगा। जाहिर है, जमीन-जायदाद को लेकर लोगों को स्वाभाविक रुझान बना हुआ है। समस्या उन लोगों के सामने है जो पुराने निवेश को भुनाना चाहते हैं।

जमीन की कीमतों में आई गिरावट का सीधा संबंध इकोनॉमी और रियल एस्टेट सेक्टर की सुस्ती से है। रियल एस्टेट कंसल्टेंट ‘नाइट फ्रैंक इंडिया’ की रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी से जून 2017 के बीच मुंबई में नए हाउसिंग प्रोजेक्ट की लांचिंग में 36 फीसदी की गिरावट आई है जबकि पिछले साल के मुकाबले बिक्री आठ फीसदी कम रही है। नाइट फ्रैंक इंडिया के चीफ इकोनॉमिस्ट सामंतक दास का कहना है कि फिलहाल डेवलपरों का पूरा जोर पुराने प्रोजेक्ट पूरे करने और उन्हें बेचने पर है। देश के बाकी शहरों की तरह मुंबई में भी प्रॉपर्टी कीमतें गिरावट के दौर से गुजर रही हैं। दिल्ली समेत देश के सात प्रमुख महानगरों में नए हाउसिंग प्रोजेक्ट की लांचिंग 41 फीसदी तक घटी है। यहां तक कि इस बार दीवाली भी प्रॉपर्टी बाजार में रौनक नहीं लौटा पाई। रियलिटी पोर्टल ‘प्रॉप इक्विटी’ के मुताबिक, गत जुलाई से सितंबर के बीच देश के आठ प्रमुख शहरों में मकानों की बिक्री पिछले साल के मुकाबले 35 फीसदी गिरी है। जबकि नए मकानों के निर्माण में 83 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इसी तरह ‘कुशमैन विकफील्ड’ की रिपोर्ट बताती है कि इस साल जनवरी से सितंबर के दौरान देश के टॉप आठ महानगरों में नए मकानों के निर्माण में 33 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, इस दौरान 50 लाख रुपये से कम कीमत वाले मकानों की मांग रही है। यह इस बात का सबूत है कि बाजार में अब वास्तविक खरीदार ही बचा है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ‘क्रिसिल’ की रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि मकानों की मांग अगले 12 से 18 महीनों तक भी सुधरने के आसार नहीं हैं। यह तस्वीर तभी बदल सकती है जब खरीदारों को भरोसा हो जाए कि रेरा जैसे उपाय उनके लिए कारगर साबित हो रहे हैं। तब जाकर  बिक्री बढ़ेगी, नए प्रोजेक्ट शुरू होंगे और जमीन की चमक लौटेगी।

 

एनसीआर में दस से बीस फीसदी कम हुए बैनामे

एनसीआर में जमीनों की खरीद-फरोख्त लगातार घट रही है। आंकड़ों पर नजर डालें तो आसपास के कई इलाकों में पिछले तीन-चार सालों में दस से बीस फीसदी बैनामों में कमी आई है। गाजियाबाद में साल 2014-15 में प्रॉपर्टी के कुल 98188 बैनामे हुए थे। यह संख्या 2016-17 में घटकर 80248 रह गई है। एनसीआर के बाकी शहरों का भी यही हाल है। कई इलाकों में तो संपत्ति के बाजारी दाम ही सर्किल रेट से काफी कम हो गए हैं, इसके बावजूद बाजार में खरीदार नहीं हैं।

रियल एस्टेट कंसल्टेंट ‘जेएलएल इंडिया’ के मैनेज‌िंग डायरेक्टर (लैंड सर्विसेस) मयंक सक्सेना का कहना है, ‘‘एनसीआर में जमीनों के दामों में खासी गिरावट आई है। प्रॉपर्टी के सौदों में कमी इसकी एक बड़ी वजह है। खरीदारों की कमी को देखते हुए डेवलपर भी जमीन की खरीद-फरोख्त करने से फिलहाल कतरा रहे हैं। अफोर्डेबल हाउसिंग प्रोजेक्ट के लिए यह अच्छा संकेत है क्योंकि पहले जमीन महंगी होने की वजह से बहुत से प्रोजेक्ट इस दायरे से बाहर थे। इसलिए जिन लोगों के पास लैंड बैंक है, उन्हें मार्केट में सुधार आने पर फायदा मिल सकता है। लेकिन इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा।’’ 

जमीन कारोबार से जुड़े विषु कुशवाह कहते हैं, ‘‘पहले जमीन के बाजारी दाम सर्किल रेट से तीस चालीस फीसदी ज्यादा होते थे। बैनामे के बाद यह ज्यादा दाम ही उसका मुनाफा होते थे। लेकिन अब यह बाजारी दाम और सर्किल रेट कहीं बराबर हैं तो कहीं सर्किल रेट भी कम हो गए हैं। गिरते दामों के कारण निवेशक जमीन खरीदने में दिलचस्पी नहीं ले रहे। यह हाल नोएडा, गाजियाबाद और गुड़गांव सभी जगह देखा जा सकता है।’’ तहसील बार एसोसिएशन गाजियाबाद के पूर्व अध्यक्ष वेदपाल कहते हैं, ‘‘पहले जमीनों के जिस तरह बैनामे होते थे अब वह 25 से 30 फीसदी कम हो गए हैं। इसका मुख्य कारण नोटबंदी और तीन-चार वर्षों से आयकर विभाग से जारी विमिन्न सरर्कुलर भी हैं। तीन-चार वर्षों से जमीन की ब्रिकी का ग्राफ लगातार गिर रहा है। अब बीस हजार से ज्यादा की रकम का भुगतान चेक से करना होता है जिसके कारण ज्यादा समस्या आ रही है। अभी जो बैनामे हो रहे हैं उन्हें वास्तविक खरीदार कह सकते हैं।" रजिस्ट्री विभाग से जुड़े एक अधिकारी कहते हैं, संपत्ति सौदों में जारी गिरावट की एक वजह हाल के वर्षों में आयकर विभाग के सख्त प्रावधान बड़ी वजह हैं।

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