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‘‘मजा तो ट्रेंड के उलट हिट होने में है’’

दर्शक स्क्रीन पर आदर्शवाद का अतिरेक देखना नहीं चाहते। आज के नायक सच्चाई के करीब हैं, जैसे दर्शकों को जो उन्हें देख रहे हैं, उन्हें ऐसा हीरो चाहिए जिससे वे खुद को जोड़ सकें
नवाजुद्दीन सिद्दीकी

गैंग्स ऑफ वासेपुर में फैसल खा न की छोटी-सी भूमिका से अपना सिक्का जमाने के बाद नवाजुद्दीन सिद्दीकी ऐसे अभिनेता बन गए, जिन पर सबकी आंख टिकती है। हाल में कई दिलचस्प भूमिकाओं के साथ वे बड़े नायकों की जमात में मानो जबरन अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गए हैं। अपने बोल्ड कंटेंट के लिए सेंसर बोर्ड से उलझने और कई विवादों के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर चौंकाऊ कामयाबी दिखाने वाली हालिया फिल्म बाबूमोशाय बंदूकबाज के बाद गिरिधर झा ने उनसे बात की। कुछ अंशः

 

सेंसर बोर्ड से झगड़ा और नकारात्मक समीक्षाओं के बावजूद बाबूमोशाय बंदूकबाज की व्यावसायिक सफलता हैरत भरी थी?

वयस्क कंटेंट के कारण मैं फिल्म की सफलता के प्रति थोड़ा सशंकित था। दर्शक इस फिल्म को सराहेंगे या नहीं, यह सोच कर मैं परेशान था। यह उस जॉनर की फिल्म है जो आज के समय में लोकप्रिय नहीं है। फिर भी आज तक यह हर जगह बढ़िया प्रदर्शन कर रही है। सिर्फ मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों को छोड़कर।

परंपरागत हिंदी फिल्मों के नायकों के विपरीत गालियां बकने वाला, थोड़ा गुस्सैल चरित्र निभाने का अनुभव कैसा रहा?

निर्देशक (कुशान नंदी) के पास भूमिका को लेकर बहुत सारे संदर्भ थे पर मैं चिंतित था क्योंकि यह चरित्र ऐसे लोक-लाज विहीन आदमी का था जिसके पास सामाजिक या नैतिक मूल्य नहीं थे। इस चरित्र को वास्तविक बनाने के लिए मैंने बहुत प्रयास किया। इस चरित्र को बड़े शहरों में रहने वाले लोगों के बजाय गांव या छोटे कस्बों से आने वाले लोगों ने ज्यादा पसंद किया। गांव के लोग हर हाल में अपने जीवन से खुश रहते हैं जबकि शहर के लोग फिल्म देखते वक्त भी अपनी बौद्धिकता का तड़का लगाने से नहीं चूकते।    

पहले मनोज वाजपेयी, इरफान खान जैसे अभिनेताओं वाली फिल्मों को अक्सर समानांतर सिनेमा कहा जाता था लेकिन अब ये लोग भी बॉक्स ऑफिस पर लगातार दिख रहे हैं, क्या बॉलीवुड में सितारों पर निर्भरता के दौर का अंत आ गया है?

बिलाशक मनोज और इरफान शानदार अभिनेता हैं। लेकिन स्टार सिस्टम खत्म होने में वक्त लगेगा। यह सही है कि आज के दौर में ईश्वरतुल्य समझे जाने वाले नायकों के इर्द-गिर्द घूमने वाली फिल्मों के दिन लद गए हैं। ऐसे नायकों ने दर्शकों को लुभाना बंद कर दिया है। यही वजह है कि फिल्म उद्योग अब दूसरी तरह की फिल्मों के साथ खड़ा हो गया है। लेकिन फिर भी निकट भविष्य में तो स्टार सिस्टम खत्म होने नहीं जा रहा है। 

एक वक्त था जब कला फिल्मों के शानदार सितारे नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी निर्माताओं से मुश्किल से पैसा ले पाते थे। अब बात उससे आगे बढ़ी है और व्यावसायिक और कला सिनेमा के बीच विभाजन रेखा धुंधली हुई है?

हां, यह सही है कि एक वक्त था जब बेहतरीन कला फिल्में नियमित रूप से शानदार अभिनेताओं को मौके दे रही थीं। जाहिर है, वे  हमारे जैसे महत्वाकांक्षी अभिनेताओं के लिए प्रेरणास्‍त्राेत थे। लेकिन वे लोग कमाऊ अभिनेता में तब्दील नहीं हो सके।   

लेकिन आपके जैसे अभिनेताओं ने इस चलन की शुरुआत की?

देखिए, बॉलीवुड में सबसे बड़ी दिक्कत है भेड़चाल की मानसिकता का। फिल्मों को लेकर इसके अपने दौर जैसे चलते हैं। मसलन, इन दिनों शादियों का दौर चल रहा है। दरअसल जब इंडस्ट्री नए विचारों से खाली होगी, तो ऐसी ही फिल्में बनेंगी। यह ट्रेंड पूरी इंडस्ट्री के लिए अच्छा नहीं है। असली मजा तो तब है जब फिल्म धारा के विपरीत जाकर कैश काउंटर पर धमाल करे।

आपको लगता है नेटफ्लिक्स और अमेजन जैसे नए मंच भारतीय दर्शकों की रुचि में बदलाव लाएंगे?

जिस तरह हम फिल्में देखते हैं उसमें ये मंच बड़ा असर डालेंगे। आज दर्शकों को विश्व सिनेमा आसानी से उपलब्ध है। पूरे विश्व की शानदार फिल्में देखने के बाद उन्हें महसूस होने लगा है कि बीते साठ सालों से वे बेवकूफ बन रहे थे। अब वे जान गए हैं कि अब तक बन रहीं रोमांस में डूबी फिल्मों के अलावा भी विषय हैं।  

अब दर्शक पहले की तरह उन नायकों को स्वीकार नहीं कर रहे जो बीते दौर में हर काम में माहिर होता था और दर्शकों के सामने अपनी कमजोरियां नहीं दिखाता था?

नायक की परिभाषा निश्चित रूप से बदली है। पहले की फिल्मों में हीरो का सर्वगुण संपन्न होना जरूरी था। बढ़िया कपड़े पहने अच्छा दिखने वाला, घुटने के बल बैठ कर प्रेमिका के आगे प्रणय निवेदन करने वाला और अंत भला तो सब भला के लिए विलेन के साथ मारा-मारी करने वाला। बिलकुल चाक-चौबंद। लेकिन आज के हीरो वास्तविकता के करीब हैं। वे अपनी कमियों के साथ लाग-लपेट से दूर हैं। बिलकुल अपने दर्शकों की तरह जो उन्हें थिएटर में देख रहे हैं।

तो क्या आदर्शवादी हीरोबीते जमाने की बात हो गई है?

समय के साथ सिनेमा भी बदला है। एक वक्त था जब नायक आदर्शवादी ही होता था लेकिन आज के दर्शक स्क्रीन पर आदर्शवाद का अतिरेक देखना नहीं चाहते। उन्हें ऐसा हीरो चाहिए जिससे वे खुद को जोड़ सकें। अब लोग मानने लगे हैं कि कुछ सालों में हिंदी सिनेमा उनकी इस धारणा को धुंधला कर देगा कि हीरो में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।           

एकल नायक के रूप में बाबूमोशाय आपकी पहली हिट है। भविष्य में भी क्या दर्शक आपको इस तरह की और फिल्मों में देख पाएंगे?

मेरी अगली फिल्म मंटो के जीवन पर बनी है। मैं लंच बॉक्स वाले रीतेश बतरा की अगली फिल्म में भी काम कर रहा हूं। अब मैं वही फिल्म कर रहा हूं जिसमें मैं अकेला नायक हूं। आज के नायक वास्तविकता के करीब हैं, उसी तरह जैसे दर्शक जो उन्हें देख रहे हैं। 

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