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सीकी से जमा मिथिला का सिक्का

लुप्तप्राय हस्त कला को आधुनिक रूप देकर मधुबनी के धीरेंद्र कुमार ने दिलाई वै‌श्वि‍क पहचान, गांव की गरीब और अशिक्षित महिलाओं की बदली जिंदगी
सृजन के रंगः भगवान बुद्ध की जीवन यात्रा को व्यक्त करती कलाकृति

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिहार के मिथिलांचल की पहचान मिथिला पेटिंग्स से रही है। अब इस कड़ी में एक और विशिष्ट कला सीकी तेजी से देश और दुनिया में अपनी पहचान बना रही है। पुराने जमाने से ही मिथिला अपनी तीन कलाओं मिथिला पेंटिंग्स, सीकी कला और पेपरमेसी कला के लिए प्रसिद्ध रहा है। लेकिन इनमें सीकी और पेपरमेसी को वैश्विक स्तर पर पहचान नहीं मिली। इससे मिथिला की यह कला कालांतर में लुप्तप्राय होती चली गई, जबकि इस दौरान मिथिला पेंटिंग को काफी तेजी से देश-दुनिया में पहचान मिली। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर कई संस्थाओं में यह कला कोर्स के रूप में सिखाई जाने लगी।

सीकी कला को विलुप्त होने से बचाने के लिए मधुबनी जिले के पंडौल प्रखंड तहत रामपुर गांव के धीरेंद्र कुमार प्रयास करते रहे। 31 साल से जारी उनकी मेहनत का असर अब दिखने लगा है। धीरेंद्र अपने फूस के घर में बैठकर एक खास प्रकार की घास, जिसे मिथिला में खस के नाम से जाना जाता है, के सहारे नई-नई कलाकृतियों को कैनवास पर उकेरते हैं। साथ ही अपने गांव की अशिक्षित और गरीब महिलाओं का इस माध्यम से वे सशक्तीकरण भी कर रहे हैं। इसके लिए बिहार सरकार की मदद से वे गांव में ‘रचना सीकी कला केंद्र’ चला रहे हैं। यहां गरीब महिलाओं को निःशुल्क प्रशिक्षण मिलता है। गांव की करीब 76 महिलाएं इससे जुड़ी हैं।

इस समय रचना सीकी कला केंद्र का सालाना 17 लाख रुपये का कारोबार है, जबकि काम के एवज में प्रति महीने एक लाख रुपये का खर्च। रामपुर गांव की गौरी देवी बताती हैं कि पति की कमाई से गुजारा मुश्किल था। ऐसे में सीकी ने संबल प्रदान किया। अब वह प्रति महीने पांच से सात हजार रुपये कमा रही हैं। मंजू बताती हैं कि वह इस कला से छह-सात साल से जुड़ी हैं। जूली 10 साल से रचना सीकी कला केंद्र से जुड़ी हैं और अन्य लोगों को भी इससे जुड़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं। इसी तरह, रामा देवी, खूशबू, रेखा, सविता देवी भी इस कला से अपनी जिंदगी संवारने में जुटी हैं।

पुराने जमाने से ही सीकी का उपयोग डलिया, मौनी वगैरह सामान बनाने के लिए किया जाता था। लेकिन, धीरेंद्र ने परंपरा से हटकर इस कला को इनोवेटिव स्वरूप दिया है। इसके बाद से ही सीकी की कला मौनी, डलिया की कैद से बाहर निकलकर दुनिया के कैनवास पर नजर आने लगी है। 1986 में बनाई अपनी पहली कलाकृति में धीरेंद्र ने भगवान शिव को विषपान करते दिखाया था। अब तक वे दो लाख से अधिक पेंटिंग बना चुके हैं। अमेरिका, थाइलैंड, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, खाड़ी देश, दक्षिण अफ्रीका आदि जगहों पर इन कलाकृतियों की मांग है। उनका कहना है कि बाजार और सरकार का साथ मिल जाए तो इस कला की तरफ ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सकता है।

सीकी कला के क्षेत्र में मधुबनी जिले के रैयाम गांव की दिवंगत विंदेश्वरी देवी का नाम भी प्रमुख है। उन्हें 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेशनल मास्टर क्राफ्ट वुमन अवॉर्ड से सम्मानित किया था। इस कला से प्रसिद्धि हासिल करने वाली अन्य महिला कलाकारों में सीतामढ़ी जिले के सुरसंड की कुमुदनी देवी, मधुबनी जिला के सरिसबपाही गांव की नूना खातून और सप्ता की गुलेंशा खातून का नाम प्रमुख है। दरभंगा का ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय भी अब अपने आयोजनों में सीकी कलाकृति से ही अतिथियों का स्वागत करता है। पांच साल पहले तक मिथिला पेंटिंग से सम्मान का चलन था। विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर अजय नाथ झा ने बताया कि संस्‍थान ने रचना सीकी हस्तकला केंद्र को पांच साल में कई ऑर्डर दिए हैं।

कतरा झाड़ से बनती है सीकी

सीकी कला की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे बनी कलाकृतियों में फंगस नहीं लगता। सीकी की लाइफ 100 से 200 वर्ष मानी जाती है। इस पारंपरिक कला पर कई विद्वानों ने शोध भी किए हैं। दरभंगा के एमआरएम कॉलेज के प्राचार्य डॉ. विद्यानाथ झा और समाजशास्‍त्र विभाग के छात्र मणिशंकर झा के हालिया शोध से पता चलता है कि मिथिला के बाढ़ग्रस्‍त क्षेत्रों में पाई जानेवाली कतरा झाड़ नामक वनस्पति, जिसे खस के नाम से जानी जाती है, से सीकी की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। कतरा घास की धरती की तापमान वृद्धि और मिट्टी की उर्वरता घटने से रोकने में बड़ी भूमिका बताई जाती है। अपने आप उगने वाले इस तृण, (कुछ मामलों में किसान इसकी रोपाई भी करते हैं) के डंठलों को अगस्त-सितंबर महीने में निकाला जाता है। सबसे खास बात यह है कि घास से डंठलों को निकालने की प्रक्रिया में सिर्फ यहां की महिलाओं को महारत हासिल है। इस अवसर पर वे समूह में विषहरा के गीत गाती हैं। डंठलों से निकालने के बाद उसे सुखाया जाता है। कलाकृति बनाने से पहले इन डंठलों को गरम पानी में रखा जाता है, ताकि डंठल मुलायम हो सकें। कलाकृतियों को आकर्षक रूप देने के लिए उन्हें विभिन्न रंगों में रंगा जाता है। रंग सूखने के बाद डंठलों को अत्यंत पतले टुकड़ों में चीरकर और काटकर मनचाही आकृतियों में ढाला जाता है।

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