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व्यापारी हलकान, नहीं हो रहा समाधान

खेल का सामान बनाने वाले से लेकर कपड़ा और चमड़ा उद्योग से जुड़े कारोबारियों समेत कामगारों की बढ़ती जा रही है परेशानी। रोजगार के अवसर भी हो सकते हैं कम
संकटः लखनऊ में चिकन के काम में मशगूल कारीगर को भविष्य की है चिंता

गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के मुद्दे पर, मेरठ के प्रसिद्ध कारोबारी और ऑल इंडिया स्पोर्ट्स गुड्स मैन्युफैक्चरर्स फेडरेशन के अध्यक्ष पुनीत मोहन शर्मा बिना लाग-लपेट के साफ लफ्जों में कहते हैं कि एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वस्थ जीवन और उसके लिए दैनिक योग का संदेश देते हैं, वहीं दूसरी ओर योग करने की चटाई (मैट) पर 28 फीसदी जीएसटी लगा दिया गया है, जो पहले शून्य था। रमा रबर इंडस्ट्रीज के मालिक पुनीत मोहन शर्मा कहते हैं, “अब तो दौड़ और एथलेटिक्स में प्रयोग आने वाली सीटी पर भी 28 फीसदी जीएसटी लग गई है, जिससे पता चल जाता है कि केंद्र सरकार खेलकूद को लेकर कितनी गंभीर और सजग है।” जुलाई 2017 में लागू जीएसटी के अंतर्गत न केवल औद्योगिक इकाइयों का पंजीकरण अनिवार्य हो गया है, बल्कि सामान बेचने वाली तथा इस प्रक्रिया में भागीदार सभी घटकों और आपूर्ति करने वाली संस्थाओं और यहां तक कि कामगारों के लिए भी यह पंजीकरण अनिवार्य हो गया है। हालांकि लागू होने के 100 दिन के भीतर ही देश भर में व्यापारियों और लोगों की परेशानियों के मद्देनजर छह अक्टूबर को ही मोदी सरकार ने न केवल जीएसटी दरों में कुछ बदलाव किए, बल्कि प्रक्रिया को भी सरल करने का प्रयास किया है। फिर भी व्यापारियों को अभी और राहत की दरकार है जिससे उनका व्यापार पहले की तरह पटरी पर लौट आए।

पहले जहां सरकार ने हर महीने जीएसटी रिटर्न भरने की बाध्यता रखी थी, वहीं अब डेढ़ करोड़ तक के टर्नओवर वाली कंपनियों पर यह प्रक्रिया त्रैमासिक कर दी गई है, लेकिन इससे किसी भी तरह की राहत से शर्मा सख्त लहजे में नकारते हैं। वह कहते हैं, “यह केवल एक लॉलीपॉप से अधिक कुछ नहीं है, क्योंकि व्यापारी को तो हर महीने जीएसटी जमा करना ही पड़ेगा, चाहे वह रिटर्न त्रैमासिक दायर करे या हर महीने। इससे व्यापारी को कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।” वैसे सरकार ने कंपोजीशन स्कीम की सीमा भी 75 लाख रुपये से बढ़ा कर एक करोड़ कर दी है, जिसके अंतर्गत आने वाली छोटी कंपनियों को एक प्रतिशत टैक्स देना होगा और वह जीएसटी की प्रक्रियाओं से व्यावहारिक रूप से मुक्त हो जाएंगी। फिर भी व्यापारियों ने ‘ऊंट के मुह में जीरे’ वाली संज्ञा देकर इस छूट को नकार दिया है। मेरठ की स्पोर्ट्स इंडस्ट्रीज, निर्यात मिला कर, सालाना करीब 2,000 करोड़ रुपये का कारोबार करती हैं।

“जीएसटी से हमारा कारोबार एकदम खत्म हो रहा है। किसी भी आधुनिक व्यापार में भुगतान का चक्र तीन से छह महीने का होता है, लेकिन जीएसटी के अंतर्गत हमें हर महीने टैक्स की राशि जमा करनी पड़ती है। इस कारण हमारे सामने वर्किंग कैपिटल की विकट समस्या खड़ी हो गई है...मेरठ में कई इकाइयां दीवालिया होने की कगार पर आ गई हैं।” यह कहते हुए शर्मा ने यह भी दावा किया कि अगर जल्द ही हालात नहीं सुधरे तो इस उद्योग का कुल व्यापार 25 फीसदी से भी कम रह जाएगा, वहीं तकरीबन एक लाख लोग स्थाई रूप से बेरोजगार भी हो जाएंगे।

लखनऊ के चिकन उद्योग का बुरा हाल

दुनिया भर में मशहूर लखनऊ चिकन की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। पहले तो जीएसटी की मार से उद्योग चरमरा गया था और हाल ही की जीएसटी काउंसिल की बैठक में भी इस पारंपरिक उद्योग को कोई खास लाभ नहीं मिला। चिकन उद्योग से संबंध रखने वाले नवाब मसूद अब्दुल्लाह, जो लखनऊ के तत्कालीन शासक नवाबों के खानदान से ताल्लुक रखते हैं, कहते हैं कि चिकन जैसे पारंपरिक उद्योगों को सरकार से मदद मिलनी चाहिए थी न कि उस पर और अधिक टैक्स का बोझ डालना चाहिए था। वह कहते हैं, “पहले इस उद्योग के ज्‍यादातर उत्पादों में शून्य टैक्स भार था, लेकिन अब 18 फीसदी तक टैक्स लगा दिया गया है। यहां तक कि कारीगरों द्वारा निर्माण यानी जॉबवर्क पर भी पांच फीसदी जीएसटी देय है। हमारी सेल आधी से भी कम हो गई है, वहीं कारीगर बेरोजगार हो गए हैं और अन्य छोटे धंधों में लगने को मजबूर हैं।”

इसी प्रकार चिकन उद्योग से जुड़ी एक अन्य सम्मानित संस्था ‘सेवा चिकन’ की संस्थापक रुना बनर्जी कहती हैं कि उनकी संस्था में करीब 8000 महिलाएं जुड़ी हुई हैं और जीएसटी आने के बाद उनके लिए अपनी संस्था का संचालन कर पाना भी काफी कठिन हो गया है। बनर्जी ने कहा, “हाल ही में मुंबई की एक प्रदर्शनी में हमने भाग लिया था। ऐसे आयोजनों में जहां पहले रोजाना बिक्री का स्तर 10 लाख रुपये तक हो जाता था, वहीं अब 30-35 फीसदी ही सेल रह गई है।”

कानपुर का चमड़ा उद्योग भी अछूता नहीं

उद्योगों की बहाली से कानपुर का मशहूर चमड़ा उद्योग भी अछूता नहीं है। काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट्स के क्षेत्रीय अध्यक्ष जावेद इकबाल बढ़े हुए 28 फीसदी जीएसटी और हर महीने टैक्स भरने के कारण वर्किंग कैपिटल की दिक्कतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि उद्योगपति और व्यापारी व्यापार करे या फिर नई कर प्रणाली के अंतर्गत जाटिल प्रक्रियाओं को सीखे और उसकी पूर्ति करे।

देश के चमड़ा उद्योग को करीब 3,500 करोड़ रुपये के वर्किंग कैपिटल की दरकार है, जिससे यह परंपरागत व्यापार निर्बाध रूप से चल सके। लेकिन अभी तक इस उद्योग को कोई राहत नसीब नहीं हुई है। उन्होंने दर्द भरे अंदाज़ में कहा, “हद तो ये है कि कच्चे चमड़े और उद्योग में इस्तेमाल होने वाले रसायनों पर भी अब कर राशि पांच फीसदी से बढ़ कर 18 फीसदी हो गई है। जहां तक बात है जीएसटी काउंसिल द्वारा उद्योगों को सहूलियत देने की तो इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि बड़ी इकाइयों में तो भिन्न कार्यों के लिए अलग कर्मचारी होते हैं, मगर, छोटी-छोटी इकाइयों में मुसीबत पहली की ही तरह बनी हुई है।”

होजरी उद्योग भी परेशान

करीब 500 करोड़ रुपये सालाना व्यापार वाला कानपुर का होजरी उद्योग, जो कि एक लाख लोगों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से रोजगार मुहैया कराता है, जीएसटी आने के बाद सुस्ती के दौर से गुजर रहा है। तिरुपुर (तमिलनाडु) और कोलकाता (पश्चिम बंगाल) समेत कानपुर भारत में होजरी के लिए तीन अग्रणी केंद्रों में से एक है। कानपुर में करीब 500 सूती होजरी की इकाइयां हैं। इसके अलावा यहां हजारों छोटी-बड़ी होजरी संबंधित सिलाई, बुनाई एवं रंगाई के उद्यम मौजूद हैं। उद्यमियों की सबसे बड़ी शिकायत है कि उनके करीब 80 प्रतिशत संगठित ग्राहक छोटे एवं मझोले व्यापारी और दुकानदार हैं, जो दूरदराज के इलाकों और कस्बों में स्थित हैं और ज्यादातर को कंप्यूटर का ज्ञान भी नहीं है। दूसरा, वैसे तो 20 लाख की आय तक के प्रतिष्ठान जीएसटी के दायरे से बाहर हैं, मगर यह व्यावहारिक रूप से लागू नहीं है। ट्रांसपोर्ट कंपनियां माल ढुलाई की बुकिंग तभी कर सकती हैं जब बेचने या खरीदने वाले में से कम से कम एक जीएसटी के अंतर्गत पंजीकृत हो। इस वजह से, ज्‍यादातर छोटे व्यापारी अपना सामान एक स्थान से दूसरे स्थान भेज पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और व्यापार प्रभावित हो रहा है।

आगरा का चमड़ा, जूता उद्योग भी निराश

आगरा के फुटवियर उद्योग में भी जीएसटी काउंसिल द्वारा दी गई सहूलियतों को लेकर निराशा का भाव है क्योंकि उनके उद्योग से संबंधित कोई भी नई बात निकल कर नहीं आई है। हालांकि उद्योग के प्रतिनिधियों ने इस संबंध में पहले ही सरकार के सामने अपना पक्ष और मांगों का पुलिंदा रखा था। आगरा फुटवियर मैन्युफैक्चरर्स एंड एक्सपोर्टर्स चैंबर के अध्यक्ष एवं आगरा के एक प्रमुख फुटवियर निर्यातक पूरन डावर ने कहा कि चमड़ा उत्पादों को विलासिता की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। उन्होंने कहा, “हमारी मांग है कि चमड़ा उद्योग को कपडे़ की भांति समझना चाहिए और उसपर सामान रूप से टैक्स लगाना चाहिए। जहां टेक्सटाइल्स पर पांच फीसदी टैक्स दर है, वहीं चमड़े से बने जूतों और बैग पर 18 फीसदी से अधिक जीएसटी लगता है, जो पहले वैट प्रणाली में 12 फीसदी के आसपास था।” उन्होंने कहा कि चमड़े की बेल्ट और पोशाकों में तो जीएसटी 28 फीसदी की दर से प्रभावी है। उन्होंने कहा कि चमड़ा उद्योग एक मूलभूत उद्योग है और इसमें ज्‍यादातर गरीब कामगार जुड़े हैं, जबकि 90 फीसदी के करीब व्यापार लघु उद्योगों की श्रेणी में आते हैं।

बहरहाल, उद्योग ने केंद्र सरकार के समक्ष अपना प्रतिवेदन रख दिया है और उम्मीद जताई है कि जल्द ही जीएसटी काउंसिल एवं सरकार चेतेगी और व्यापार को सुगम बनाने के लिए ठोस निर्णय भी लेगी।

 

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