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कलाओं की स्वायत्तता

साहित्य कला परिषद द्वारा आयोजित नाट्य उत्सवों में सरकार द्वारा निर्धारित विषयों पर नाटक करना होगा
पहरेदारीः अब नाटकों के विषयों पर होगी दिल्लीि सरकार की नजर

वर्ष 1981 की गांधी जयंती की शाम थी। नई दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सामने लॉन पर राजधानी के सभी जाने-माने रंगकर्मी एकत्रित थे और इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि पुलिस द्वारा नाटकों को लाइसेंस दिए जाने की नई प्रणाली का किस तरह से विरोध किया जाए। इंदिरा गांधी की सरकार देश पर शासन कर रही थी और छह साल पहले लगी इमरजेंसी की यादें ताजा थीं। नई व्यवस्था यह थी कि नाटक करने वाले हर व्यक्ति को प्रस्तुति से कम से कम दो माह पहले विशेषज्ञों की समिति के अध्यक्ष के पास अनुमति के लिए नाटक की स्क्रिप्ट के साथ आवेदन भेजना होगा। उपराज्यपाल इस समिति का गठन करेंगे और इसमें संगीत नाटक अकादेमी, साहित्य कला परिषद और दिल्ली प्रशासन या केंद्र सरकार के संस्कृति विभाग का एक-एक प्रतिनिधि, प्रमुख समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के कला समीक्षक और दिल्ली पुलिस आयुक्त का एक प्रतिनिधि शामिल होगा। जब तक समिति का गठन नहीं होता, पुलिस आयुक्त ही अनुमति पत्र यानी लाइसेंस जारी करेंगे।

इस बैठक में उपस्थित सभी रंगकर्मियों ने इसे रंगकर्म की स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश बताया और इसका पुरजोर विरोध करने का फैसला लिया। प्रतिरोध अभियान चलाने के लिए एक समिति का गठन किया गया जिसमें रामगोपाल बजाज, एम. के. रैना, रति बार्थोलोम्यू , माया राव, रथीन दास, बंसी कौल, जयंत दास समेत करीब दस प्रमुख रंगकर्मियों को शामिल किया गया। पुलिस का कहना था कि यह व्यवस्था ‘स्वस्थ प्रस्तुतियों’ को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है। लेकिन कलाकारों के सशक्त विरोध के कारण इस व्यवस्था को लागू नहीं किया जा सका।

अभी दिल्ली में इतनी गंभीर स्थिति तो पैदा नहीं हुई है लेकिन जैसे संकेत मिल रहे हैं, वे बहुत आश्वस्त करने वाले नहीं हैं। देखने में तो बात छोटी-सी है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि जब एक बार बात निकल पड़ती है तो फिर अक्सर दूर तलक ही जाती है। वरिष्ठ रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने इस ओर ध्यान दिलाया है और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया को इस संबंध में पत्र भी लिखा है कि प्रशासन द्वारा संचालित साहित्य कला परिषद ने नई व्यवस्था लागू कर दी है और वह यह कि उसके द्वारा आयोजित होने वाले दो नाट्य उत्सवों में यदि किसी रंगकर्मी को भाग लेना है, तो उसे सरकार द्वारा निर्धारित विषयों में से ही किसी एक पर नाटक करना होगा। यह रंगकर्म की स्वायत्तता पर आघात है। लेकिन सिसौदिया इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि यदि सरकार को किसी विषय पर नाटक कराने की जरूरत महसूस होती है तो इस पर किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

जब सरकारों का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है, तभी वे कलाओं को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू करती हैं। क्या दिल्ली सरकार स्वतंत्र रंगकर्मियों द्वारा किए जाने वाले नाटकों को विज्ञापन समझती है? क्या कोई भी स्वाभिमानी रंगकर्मी सरकार द्वारा निर्धारित विषय पर नाटक की स्क्रिप्ट लिखेगा या लिखवाएगा और फिर उस पर नाटक तैयार करेगा? मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार और उसकी नीतियों, कार्यक्रमों और उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए यूं भी विज्ञापनों के मद में बहुत बड़ी धनराशि खर्च कर दी है। मई 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली सरकार अपने प्रचार पर 16 लाख रुपये प्रतिदिन खर्च कर रही थी। भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013-14 की तुलना में दिल्ली सरकार ने अपने प्रचार पर तीन गुना यानी 81 करोड़ 23 लाख रुपये खर्च किए। रिपोर्ट का यह भी कहना था कि यदि सरकार की अन्य प्रतिबद्धताओं को संज्ञान में लिया जाए तो यह राशि 114 करोड़ 21 लाख तक भी पहुंच सकती है।

जो सरकार अपने प्रचार पर इतना अधिक खर्च कर रही है, उसे अब नाटकों के जरिए भी अपनी नीतियों का प्रचार जरूरी लगने लगा है। क्या रंगकर्मियों में इतनी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना नहीं है कि वे अपने नाटकों के लिए स्वयं ऐसे विषय चुन सकें जो समकालीन यथार्थ और उससे उत्पन्न समस्याओं से दो-चार होते हों? इस संदर्भ में स्वयं अरविंद गौड़ और उनका रंगकर्म एक मिसाल पेश करता है क्योंकि वह लगातार सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर निर्भीक ढंग से नाटक तैयार और प्रस्तुत करते रहे हैं।

दिल्ली सरकार को समझना चाहिए कि राजधानी में रंगकर्म से जुड़े लोग कितना जोखिम उठाकर इस कला की सेवा में लगे हुए हैं। इस क्षेत्र में पैसा नाममात्र को है और समस्याएं अनगिनत हैं। प्रशिक्षित और दक्ष कलाकार टीवी और फिल्म की ओर जाने में आर्थिक सुरक्षा देखते हैं और यश की संभावना भी। राजधानी में नाटकों के रिहर्सल के लिए उपयुक्त जगह पाना दशकों से बड़ी समस्या बना हुआ है। जो रंगकर्मी किसी सरकारी संस्था से न जुड़कर स्वतंत्र रूप से सक्रिय हैं, उनके लिए तो नाटकों के लिए धन की व्यवस्था करना और साथ ही अपने जीवनयापन का भी प्रबंध करना और भी बड़ी समस्या है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय उसी तरह चलता है जिस तरह सभी सरकारी संस्थाएं चला करती हैं। जब शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं, तब दिल्ली सरकार ने ‘तुगलक’ जैसे नाटकों के भव्य मंचन के लिए अवश्य धनराशि आवंटित की थी। उसके नतीजे में कुछ यादगार नाटक तो हो गए लेकिन राजधानी में रंगमंच के लिए किसी स्थाई समर्थन प्रणाली के विकास की दिशा में कुछ खास नहीं हुआ।

आम आदमी के नाम पर सत्ता में आई सरकार अगर इस दिशा में कुछ करे तो उसके योगदान को लोग याद करेंगे। लेकिन यदि उसने रंगमंच और अन्य कलाओं को अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश की, तो फिर उसकी छवि को दागदार होने से कोई नहीं बचा सकता।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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