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हम भी किसी से कम नहीं

जिंदगी की तमाम ऊंच-नीच, हारी-बीमारी को झेलते हुए कई महिला उद्यमियों ने लिखी सफलता की नई इबारत, एमबीए डिग्रीधारियों या धन-दौलत के उत्तराधिकारियों से नहीं साबित हुईं कमतर
आरती पांडेय, रियो लर्निंग ऐंड टेक्नोलॉजीज, नई दिल्ली

आरती पांडेय ने तो कभी उद्यमी बनने का सपना तक नहीं देखा था। वे तो एक बड़े प्रकाशक के यहां नौकरी करती थीं और वहां 12 से 14 घंटे तक रोजाना रहती थीं। लेकिन उनके मन में इस बात को लेकर कसक थी कि उन्हें जितनी पहचान या पैसा मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिलता। वे छोटे बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखना चाहती थीं पर उनके मालिक इसके लिए कतई तैयार नहीं थे। ऐसे में उनके मन में अकेले आगे बढ़ने का विचार पहली दफा 2011 में आया। संयोगवश, इसी दौरान उनकी शादी भी टूटने के कगार पर थी। इतना ही नहीं, अब वह उस तरह की किसी चीज का हिस्सा नहीं बनना चाहती थीं जिसके बारे में वह भावुक या इच्छुक नहीं थीं। आठ साल पूरे करने के बाद 2015 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी।

वह कहती हैं, “मेरी शुरू से ही स्वतंत्र प्रवृत्ति रही है। आठ साल तक मैंने उच्च शिक्षा के लिए सामग्री लिखी लेकिन मैं बच्चों के लिए लिखना चाहती थी।” जब उनके नियोक्ता इसके लिए अनिच्छुक दिखे तो उन्होंने ठान लिया कि अब वह खुद का काम शुरू करेंगी। आज वह खुद का प्रकाशन संस्थान ‘रियो लर्निंग ऐंड टेक्नोलॉजीज’ चलाती हैं। यहां 50 लोग काम करते हैं।

आरती और उनकी टीम अच्छा काम कर रही है पर रोजाना का संघर्ष जारी है। वह कहती हैं, “जब आप संघर्ष करते हैं तो कोई आपकी आर्थिक मदद नहीं करता, अगर आप औरत हैं तो और भी नहीं। जब औरत घर के लिए कर्ज लेना चाहती है तो जमानतदार (गारंटर) खोजा जाता है जबकि पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है।” आरती आज भी वैसे लोगों से मिलती हैं जो उन्हें नाकामयाब बताकर खारिज कर देते हैं। निपट मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाली आरती को केवल बाहर से ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लोग उनके प्रयासों का मजाक तक उड़ाया करते थे। वह मुस्कुराते हुए कहती हैं, “उत्तर भारत में खासतौर पर वही महिलाएं व्यवसाय करतीं हैं जिनका या तो जन्म उद्यमी परिवार में हुआ हो या किसी अमीर आदमी से उनकी शादी हुई हो। लेकिन अब काफी लोग यह मानने लगे हैं कि मैं कुछ सार्थक काम कर रही हूं। आखिरकार, मैं अपने कर्मचारियों को वेतन देने में सक्षम हूं।”

आरती ने ‘रियो’ में काम करने की अपनी शैली अपना रखी है और लगातार इसे बरकरार रखती हैं। वह साझीदारों के लिए अलग से समय निकालती हैं। यहां लोग पाठ्यपुस्तकें लिखते हैं और इंटरप्राइजेज रिसोर्स प्लानिंग (उद्यम संसाधन योजना) के नाम से स्कूलों के लिए तकनीकी समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराते हैं। भारत में जिस तरह से शैक्षिक सामग्री लिखी जा रही है उससे उपजा असंतोष भी आरती के महिला उद्यमी बनने का मन बनाने में महत्वपूर्ण कारण बना। उनकी शिकायत है कि भारत में पाठ्यपुस्तकें जरूरत के अनुरूप संशोधित नहीं होती हैं।

उद्यम के सफल संचालन के लिए तीन चीजें ‘कोशिश, लगन और ऊर्जा’ आरती के मूल मंत्र हैं, जिन्हें वह अपनी थाती मानती हैं। वह कहती हैं, “मेरे पास कोई प्लान बी नहीं है।” उनका मानना है कि बच्चों की किताबों में रचनात्मकता की ज्यादा जगह है जबकि बड़े छात्रों और उच्चतर शिक्षा की किताबों में ऐसा नहीं है। वह कहती हैं, “बच्चे ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इनके लिए लिखते समय आपको निष्पक्ष रहना होगा। आप इतिहास से गलत बातों का उदाहरण नहीं दे सकते। आप बच्चों के सामने झूठी धारणाओं का प्रदर्शन नहीं कर सकते, खास कर सौंदर्य को लेकर।” आरती के अनुसार, “क्षेत्रीय पक्षपात और तथ्यों की गलतियां पूरी पीढ़ी को नुकसान पहुंचा सकती हैं।”

रीना वर्मा, शुभांगी बैंक्वेट्स, नोएडा

उत्तर प्रदेश की 27 साल की रीना वर्मा की कहानी कुछ अलग ही है। उनके पिता की 2014 में मौत हो जाती है। इसके बाद रीना पर मां, दो भाई और बड़ी बहन की जिम्मेदारी आ जाती है। इससे पहले 2012 में वह गहरे अवसाद में चली गई थीं और दो महीने तक घर से बाहर नहीं निकलीं। वह कहती हैं, “मैं चाहती थी कि मैं मर जाऊं।” रीना के अनुसार, “मेरी मां को पेंशन के रूप में काफी कम राशि मिलती थी और मुझे अपनी बड़ी बहन की शादी के लिए पैसा जुटाना था और दो भाइयों को पढ़ाना भी था।” ऐसे में रीना ने नोएडा अथॉरिटी में संपर्क अधिकारी की नौकरी मिलने से पूर्व नोएडा में कई नौकरियां की। लेकिन वह इस बात को अच्छी तरह से जानती थीं कि एक दिन उन्हें अपना व्यवसाय शुरू करना है।

यह पूरी तरह से संयोग ही था कि एक जन्मदिन पार्टी में उनकी मुलाकात सुकुमार मुखर्जी से हुई। यहां उन्होंने खुद की जन्मदिन पार्टी के लिए उनकी जगह के इस्तेमाल करने पर कुछ छूट की मांग की। इसी दिन सुकुमार की मां का भी जन्मदिन था। यहीं से दोस्ती की शुरुआत हुई और रीना ने सुकुमार से कहा, “चलो साथ में व्यापार करें।” अब ये बिजनेस पार्टनर के रूप में ‘शुभांगी’ चलाते हैं। शुभांगी बैंक्वेट की एक श्रृंखला है जो कैटरिंग, विवाह और कॉरपोरेट पार्टियों का आयोजन करती है। रीना लोगों से संपर्क करती है और बड़े लोगों की शादी के ठेके भी लेती है। हाल ही में उसने भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी व्यवसायी के आयोजन का ठेका लिया जिसने इनसे नोएडा में थ्री स्टार होटल बनाने के लिए फंड देने का वादा किया। इन लोगों ने इसके लिए जमीन की पहचान भी कर ली है।

मनीषा अहलावत, वीवाफिट फिटनेस सेंटर्स, गुरुग्राम

मनीषा अहलावत ने अलग तरह से संघर्ष कर अपनी मंजिल हासिल की। जब भी वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में अपने अभिभावकों के घर जाती तो वहां के हलचल भरे माहौल में अलग तरह की शांति छा जाती थी। 43 वर्षीय मनीषा कहती हैं, “जब वह कहती थीं कि मैं महिलाओं के समान व्यवहार के साथ खड़ी हूं और चुपचाप भेदभाव को नहीं मानूंगी, तब घर के लोग चुप्पी साध लेते थे।” परिवार को यह समझ नहीं आता था कि वे कैसे मनीषा का सामना करें। ऐसे में घरवालों ने मात्र 19 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं वह भाग न जाए।

आज समृद्ध और परंपरागत परिवार की यह महिला स्वतंत्र व्यवसायी बन चुकी है। उसके दो बच्चे हैं जो बड़े हो चुके हैं और अपनी मां से अलग रहते हैं। वह गुरुग्राम में रहती हैं और वीवाफिट नाम से फिटनेस सेंटर की श्रृंखला चलाती हैं। मनीषा कहती हैं, “महिला उद्यमी होना काफी कठिन है।” वह कहती हैं, “सबसे बड़ा संघर्ष परिवार से होता है। एक दशक से पहले तलाक होने के पूर्व मैं अमेरिका में रही। वहां भी कार्यस्थल पर भेदभाव है और घरेलू हिंसा होती है लेकिन परिवारों में बेटे और बेटियों में भेदभाव नहीं होता। लेकिन भारत में ठीक इससे उल्टा है।” मनीषा को अपने घर में उस वक्त विरोध का सामना करना पड़ा जब उन्होंने पुर्तगाल के फिटनेस ब्रांड पर उत्तर भारत की फ्रेंचाइजी के लिए बोली लगाई।

अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने कुछ नौकरियां भी की। इसके बाद अपना व्यवसाय शुरू किया। यह काफी कठिन था। इसके लिए उन्होंने अपने गहने गिरवी रख दिए, दोस्तों से उधार लिया और आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ किया। वह कहती हैं, “अगर परिवार का सहयोग मिले तो हम हर लड़ाई जीत सकते हैं पर यदि ऐसा नहीं हुआ तो बहुत मुश्किलें आती हैं।”

जल्दबाजी में विस्तार करने, सेंटर को स्थानांतरित करने या घाटा होने के बाद जब वह अकेली पड़ जातीं, तब उन्हें घरवालों की निराशाजनक बातें सुननी पड़ती थीं। वे कहते थे, “लौट आओ। महिला व्यवसायी बनने की बात भूल जाओ।” ऐसे हतोत्साहित करने वाले शब्द उन्हें हर बार अपने लोगों से सुनने पड़ते थे। केवल एक बहन और उसके पति ऐसे थे जो इनसे भिन्न नजरिया रखते थे। लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया। मनीषा कहती हैं, “घर लौटना मतलब हार को स्वीकार करना था।”

किसी ने ठीक ही कहा है कि व्यवसाय में महिला की सफलता और साहस का सबसे बड़ा कारण अक्सर घरवालों का यह कहना होता है कि, “तुम यह नहीं कर सकती, इसे छोड़ दो।” यह कम से कम मनीषा के मामले में तो पूरी तरह सही है। मनीषा का व्यवसाय पुनर्गठन के बाद 2015 से अच्छा चल रहा है। इतना ही नहीं, फिर से विस्तार की भी तैयारी चल रही है। इस बार ज्यादा सचेत रहने की उम्मीद के साथ वह कहती हैं, “मैं केवल अपनी पहचान बनाने के लिए काम करती हूं, पिता और भाइयों से अलग।”

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