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नौ दिन चले अढ़ाई कोस

पिछले पचास सालों में हिंदी रंगमंच की चुनौतियां जस की तस बनी हुई हैं, इसमें बदलाव का कोई संकेत नहीं
गजब तेरी अदा का मंचन

अंग्रेजी में एक उक्ति है जिसे हिंदी में इस तरह कहा जा सकता है, ‘चीजें जितनी बदलती हैं उतनी ही पहले की तरह रहती हैं।’ हिंदी रंगमंच के बारे में इससे सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती। आज से पचास साल पहले की किसी पत्रिका में हिंदी रंगमच की हालत पर कोई लेख छपा हो और उसे आज पढ़ा जाए तो यही लगेगा कि ये आज के रंगमंच के बारे में कहा जा रहा है! वही मौलिक नाटकों की समस्या, दर्शक की कमी, रिहर्सल के लिए जगह का अभाव, आर्थिक असुरक्षाओं के बीच जीता रंगकर्मी, ऑडिटोरियम के महंगे होते किराए-ये वे समस्याएं हैं जो पिछले कई बरसों से हिंदी रंगमंच को जकड़े हुए हैं और ये जकड़न जारी है।

फिर भी हिंदी रंगकर्म चल रहा है। आज भी हजारों की संख्या में कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक ऐसे युवा हैं जो अभिनय करना चाहते हैं। वे शौकिया थिएटर से लेकर सरकारी नाट्य प्रशिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भारतेंदु नाट्य अकादेमी (लखनऊ), मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय (भोपाल) में दाखिला लेने के लिए मारामारी मचती है। अब तो दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में भी नाटक का एक पाठ्यक्रम शुरू हो गया है। वहां इस साल प्रवेशार्थियों की भारी भीड़ थी। दिल्ली सहित हिंदी भाषी इलाकों के कुछ और शहरों में निजी नाट्य प्रशिक्षण संस्थान खुल रहे हैं। इनमें से एकाध तो छोटी कही जानेवाली जगहों पर हैं। जैसे हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में। प्रश्न उठ सकता है जब हिंदी रंगकर्म इतने संकट में है तो उसके प्रवेश द्वार पर इतना जमावड़ा क्यों?

इस प्रश्न और इसके उत्तर में ही हिंदी रंगमंच का संकट और उसके प्रति युवा वर्ग में गहरे आकर्षण के कारण मौजूद हैं। वजह है हिंदी में बढ़ता फिल्म और मनोरंजन उद्योग। इस उद्योग ने हिंदी समाज के ही नहीं बल्कि भारतीय युवा वर्ग में पर्दे पर दिखने की महत्वाकांक्षा को अंगड़ाई दी है। सामान्य चेहरे-मोहरे वाले युवक को भी लगने लगा है कि वह अमिताभ बच्चन या सलमान खान भले न बन सके लेकिन नवाजुद्दीन सिद्दीकी तो बन ही सकता है। लड़कियों को खयाल आने लगा है कि वे माधुरी दीक्षित या ऐश्वर्या राय न सही कंगना रणौत तो हो ही सकती हैं। और कुछ नहीं तो सीरियलों में तो रोल मिलने की संभावना है। अमिताभ, सलमान, माधुरी और ऐश्वर्या रंगमंच के माध्यम से फिल्मों में नहीं गए। लेकिन नवाजुद्दीन सिद्दीकी और कंगना रणौत ने थिएटर के माध्यम से फिल्मी दुनिया में दस्तक दी। नवाजुद्दीन सिद्दीकी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में थे और कंगना रणौत ने दिल्ली के अस्मिता थिएटर ग्रुप से रंगमंच की दीक्षा ली थी। आज के एक और चर्चित अभिनेता राजकुमार राव, जिनका चेहरा-मोहरा अति सामान्य है, दिल्ली के श्रीराम सेंटर से प्रशिक्षित रंगकर्मी हैं। जाहिर है अलग-अलग नाट्य विद्यालयों से लेकर चर्चित शौकिया थिएटर की रंगमंडलियों के सामने ये समस्या रहती है कि किस नवागंतुक को हां कहें और किसे ना। 

वैसे भी जो रंगकर्मी गंभीर रंगकर्म करना चाहते हैं, जो फिल्मों या टीवी में नहीं जाना चाहते और रंगमंच उनकी एकमात्र निष्ठा है उनके सामने एक समस्या रहती है कि किसके नाटक खेलें? मूल हिंदी में अच्छे नाटक कम लिखे जा रहे हैं। जो विदेशी भाषाओं से अनुवाद या रूपांतरण करके नाटक नहीं करना चाहते वे नए और मौलिक नाटकों की खोज करते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित रंगकर्मी और आजकल मुंबई की रंगकर्मी रसिका अगाशे ने अपनी रंग संस्था बीइंग एसोसिएशन के माध्यम से मौलिक हिंदी नाटकों की तलाश का नया रास्ता अपनाया। उन्होंने व्हॉट्स ऐप और फेसबुक के माध्यम से हिंदी भाषी इलाकों के अपने रंगकर्मी मित्रों को संदेश भेजा कि मौलिक हिंदी नाटक उनको भेजे जाएं। इस कड़ी में बीइंग एसोसिएशन ने तीन नाट्य निर्देशकों की समिति बनाकार तीन नाटकों का चयन किया और उसके समारोह भी मुंबई-दिल्ली जैसे शहरों में किए। ये तीन नाटक हैं संत भाषे रैदास (राजेश कुमार), पत्थर के फूल (अवनीश सिंह) और फैज अहमद फैज (बी गौरी)। दूसरे शहरों के रंगकर्मी भी नए मौलिक नाटकों की खोज कर उनका निर्देशन करने में लगे हैं। जैसे भोपाल के युवा निर्देशक दिनेश नायर हिंदी लेखिका इंदिरा दांगी के नाटक आचार्य को मंचित करने जा रहे हैं। मौलिक हिंदी नाटकों को प्रोत्साहित करने का काम एक वक्त में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक राम गोपाल बजाज ने बड़े स्तर पर किया। दिल्ली की साहित्य कला परिषद भी मौलिक हिंदी नाटकों की एक प्रतियोगिता हर साल करती है जिससे कुछ अच्छे नाटक सामने आए हैं।

आधुनिक हिंदी-रंगमंच को विकसित करने में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की बड़ी भूमिका रही इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इब्राहीम अल्काजी (हालांकि वे पहले निर्देशक नहीं थे) ने नाट्य प्रशिक्षण की जो विस्तृत आधारशिला रखी उससे ऐसे कई रंगकर्मी निकले जो आज भारतीय और हिंदी रंगमंच की शोभा हैं। निर्देशकों में ब.व. कारंत, बीएम शाह, मोहन महर्षि, राम गोपाल बजाज, भानु भारती, बंसी कौल, रंजीत कपूर, एम. के. रैना जैसे दिग्गज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से ही निकले। लेकिन अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पराभव की ओर है। खासकर मौजूदा निर्देशक वामन केंद्रे के कार्यकाल में। रंग प्रशिक्षण पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का कितना कम ध्यान है इसका अंदाजा सिर्फ दो बातों से लगाया जा सकता है। लगभग पचास-साठ करोड़ (वास्तविक लागत का अभी पता नहीं) की रकम से अगले साल होने जा रहे थिएटर ओलंपिक की वजह से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 2018 में लगभग तीन महीने कक्षाएं नहीं होंगी। लेकिन किसे परवाह? वैसे ये प्रस्तावित आयोजन भी कई वजहों से विवादास्पद हो गया है। थिएटर ओलंपिक ग्रीस का एक एनजीओ है और उसके साथ मिलकर इस आयोजन का प्रस्ताव है। इसके लिए उन्नीस साल से लगातार हो रहे भारत रंग महोत्सव नाम के पुराने ब्रांड को ध्वस्त किया जा रहा है। थिएटर ओलंपिक को ऐसे पेश किया रहा है मानो वह ओलंपिक खेलों जैसा आयोजन हो। यह बात छुपाई जा रही है कि थिएटर ओलंपिक दुनिया के चौदह रंगकर्मियों की संस्था है और उसे फायदा पहुंचाने के लिए भारत रंग महोत्सव नाम के देसी ब्रांड की हत्या की जा रही है।

हिंदी रंगमंच किस दिशा में जाए? ये फैसला करना आसान नहीं है। उसका कोई एक मॉडल बनाया भी नहीं जा सकता। एक तो इस कारण कि कोई कला किसी एक तरह से विकसित नहीं होती। वह कई राहों से गुजरती है। आधुनिक हिंदी रंगमंच के एक निर्माता अल्काजी रहे जिन्होंने पश्चिमी और भारतीय रंग परंपरा के मेल से एक नया मुहावरा विकसित किया। उससे अलग राह पर हबीब तनवीर चले जिन्होंने छत्तीसगढ़ के सामान्य लोक-कलाकारों को लेकर देशज रंगमंच का एक लोक निर्मित किया। तीसरी राह ब.व. कारंत बना रहे थे जब भोपाल रहने के दौरान वह हिंदी के अलावा बुंदेली में आधुनिक रंगमंच विकसित कर रहे थे। छत्तीसगढ़ी हो या बुंदेली या भोजपुरी, ये भी हिंदी रंगमंच ही है। हालांकि यहां यह याद रखने लायक बात है कि भिखारी ठाकुर ने अपने वक्त में भोजपुरी रंगमंच को खड़ी बोली रंगमंच के समानांतर विकसित किया।

आज हिंदी रंगमंच हिंदी भाषी इलाके में तो सक्रिय है ही, साथ ही मुंबई और हैदराबाद जैसे अहिंदी भाषी इलाके में भी पैर पसार चुका है। यही नहीं, अब तो ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका में भी हिंदी के नाटक खेले जा रहे हैं। पर एक मूल समस्या अभी भी जस की तस बनी हुई है और वह है हिंदी रंगमंच के आर्थिक रूप से स्वावलंबन की। टिकट लेकर नाटक देखने की आदत हिंदी भाषी इलाके में नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि अगर निर्देशक कोशिश करें तो समाज का समर्थन नहीं मिलेगा। मुंबई में सक्रिय रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज का कहना है कि अगर समाज को विश्वास दिलाया जाए कि रंगकर्म में वह भी भागीदार है तो आर्थिक सहयोग मिलता है। मंजुल के पास इसके उदाहरण हैं। लेकिन तथ्य ये भी है कि हिंदी रंगमंच का बड़ा हिस्सा सरकारी अनुदान पर निर्भर है जिसे प्राप्त करने में काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं। ऐसे में थिएटर के लिए वक्त कैसे निकलेगा? एक अनुमान के मुताबिक, महाराष्ट्र में कुल जनसंख्या के तीन फीसदी लोग नाटक देखते हैं। स्वाभाविक है वहां का रंगमंच ज्यादा सक्रिय है। लेकिन हिंदी भाषी समाज में लगातार नाटक देखने जाने वालों की तादाद आधा प्रतिशत भी नहीं होगी। फिर कहां से कालिदास और बर्टोल्ट ब्रेख्त आएंगे?

फिरोज अब्बास खान ने मुगल ए आजम फिल्म को नाटक के रूप में पेश किया। ये सफल लेकिन महंगी प्रस्तुति थी। पर क्या रंगमंच के ऐसे ताजमहल दूसरे नाट्य निर्देशक बना सकते हैं?

(लेखक फिल्म और थिएटर पर लिखते हैं)

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