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न नीति, न खरीद, निर्बल अर्द्धसैनिक बल

केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लिए नक्सली और आतंकी ऑपरेशनों को लेकर अभी तक कोई योजना नहीं बनी है, सुरक्षा के मानक तय न होने से सैकड़ों सैनिक-अफसर गंवाते हैं जान
हर कदम खतराः सीआरपीएफ के अफसर अपनी सुविधा से नियम बनाते हैं, जिससे जोखिम में रहते हैं सैनिक

हमारी-आपकी सुरक्षा में सदैव मुस्तैद रहने वाले देश के सबसे बड़े अर्द्धसैनिक बल केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के लड़ाके खुद अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं रह गए हैं। सुरक्षा का तय मानक न होने के कारण सीआरपीएफ के जवान और काडर अफसर जान-माल का भारी नुकसान झेल रहे हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात इन लड़ाकों की सुरक्षा का मापदंड अमूमन बल के उन महानिदेशकों (डीजी) की रुचि या सुविधा पर टिका रहता है, जो अपनी सेवानिवृत्ति से एक-दो साल पहले इस बल में मुखिया बनकर आते हैं। किसी डीजी को माइनिंग प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी) जवानों की सुरक्षा के लिहाज से ठीक लगते हैं तो दूसरा अफसर नक्सली या आतंकवाद प्रभावित इलाकों में जवानों को पैदल चलने का फरमान जारी कर देता है। जवानों की सुरक्षा का मजाक यहीं पर आकर खत्म नहीं होता। कुछ डीजी ऐसे भी रहे हैं, जिन्हें यह सब पसंद नहीं। वे कहते हैं कि नक्सली इलाकों में हमारे जवानों को बाइक पर ही चलना चाहिए।

नतीजा, दिन-रात नक्सलियों और आतंकियों से लड़ रहे जवानों को इसका खामियाजा अपनी जान देकर भुगतना पड़ता है। इतना ही नहीं, बल को उसकी सुरक्षा के लिए जो हथियार, वाहन एवं दूसरे उपकरण मिलने होते हैं, वे भी महानिदेशकों की रुचि में फंस कर रह जाते हैं। इस साल अगस्त तक नक्सली क्षेत्रों में सीआरपीएफ के 40 से अधिक जवान शहीद हुए हैं, जबकि दर्जनों घायल हो चुके हैं। पिछले साल भी 65 से अधिक जवान मारे गए थे।

सीआरपीएफ के तेज-तर्रार अफसर और सर्जिकल ऑपरेशन के विशेषज्ञ रहे वीपीएस पंवार (सेवानिवृत्त) का कहना है कि तीन-चार साल पहले सीआरपीएफ को जो थोड़ी बहुत बुलेट जैकेट मिली थी, उसके लिए जवानों को पंद्रह साल लंबा इंतजार करना पड़ा था। सुरक्षा के तय मानक न होने के कारण गृह मंत्रालय और सीआरपीएफ मुख्यालय के बीच फाइलों का ट्रैफिक जाम होना अब आम बात हो चली है।

कड़वा सच यह भी है कि बल के आला अफसर (आइपीएस) खुद नहीं चाहते कि जवानों की सुरक्षा या उपकरणों को लेकर कोई तय मानक बने। इतने बड़े अर्द्धसैनिक बल में नक्सली और आतंकी ऑपरेशनों को लेकर अभी तक कोई योजना नहीं बनी है। बल में आने वाले डीजी नक्सली क्षेत्र या जवानों की सुरक्षा को लेकर अपनी एक अलग राह अख्तियार करते हैं। जब तक उसका अच्छा-बुरा नतीजा सामने आता है, तब तक वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं या किसी दूसरे बल में जा चुके होते हैं। बतौर पंवार, तय मानक स्थापित करने से ये अफसर डरते हैं। वे जानते हैं कि अगर यह हो गया तो उनकी एक निश्चित जिम्मेदारी बन जाएगी। चाहे जवानों की सुरक्षा का मामला हो या नक्सली ऑपरेशनों का, तय मानकों से उनकी मनमर्जी खत्म हो सकती है। बल की खुफिया इकाई और उसके कार्यों के लिए भारी मात्रा में धन, कथित तौर पर कहां जा रहा है, इसका पता नहीं चलता है। यही वजह है कि वे तय मानक जैसी कोर्ई नीति, बल के लिए लाने से डरते हैं। घायल अफसरों और जवानों को अस्पताल तक लाने के लिए सीआरपीएफ को भारी दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं।

अपना एक एयरक्राफ्ट तक नहीं

सबसे बड़ा अर्द्धसैनिक बल होने के बावजूद सीआरपीएफ के पास खुद का एक भी एयरक्राफ्ट नहीं है। नक्सली क्षेत्रों में तैनात अर्द्धसैनिक बलों को मुट्ठीभर माइनिंग प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी) से काम चलाना पड़ रहा है। पर्याप्त संख्या में बुलेटप्रूफ जैकेट और हेलमेट भी नहीं हैं। इस साल अप्रैल में करीब तीन सौ से ज्यादा नक्सलियों ने सुकमा में घात लगाकर जब सीआरपीएफ जवानों पर हमला किया तो उसका जवाब देने के लिए जवानों के पास जीवन रक्षक उपकरणों का भारी अभाव था। हमले के दौरान जवानों के पास एमपीवी नहीं था। अधिकतर जवान पैदल चल रहे थे।

हमले की सूचना मिलने के बाद एक एमपीवी घटनास्थल के लिए रवाना किया गया। इसकी मदद से जवानों तक गोला-बारूद पहुंचाने, घायलों को बाहर निकालने और मारे गए जवानों के शव अपने कब्जे में लेने जैसी कार्रवाई संभव हो सकी। अफसरों की एक राय न होने के कारण अभी तक इस बल को खुद की एयरविंग नहीं मिल सकी है, जबकि सीआरपीएफ की तुलना में काफी कम संख्या होने के बावजूद बीएसएफ के पास अपनी एयरविंग है। तीन साल पहले छत्तीसगढ़ के लिए ऑल टेरेन व्हीकल (एटीवी) का सफल ट्रायल हुआ था, मगर बाद के डीजी की प्राथमिकताओं में न होने के कारण इसकी खरीद अभी तक नहीं हो सकी।

नाकाफी रह गए प्रयास

वर्ष 2011 में राज्यसभा सदस्य श्रीगोपाल व्यास ने संसद में एमपीवी खरीद का मुद्दा उठाया था। इसके अलावा पूर्व अतिरिक्त गृह सचिव डीआरएस चौधरी ने सीआरपीएफ के तत्कालीन डीजी एएस गिल को एमपीवी खरीद प्रक्रिया 31 अक्टूबर 2009 से पहले पूरी करने का निर्देश दिया था।

पूर्व गृह सचिव आरके सिंह ने भी इस प्रक्रिया को तेज करने की बात कही थी, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आ सका। सीआरपीएफ में एडीजी (काडर अफसर) रहे एक अफसर का कहना था कि बल के डीजी गृह राज्यमंत्री या आंतरिक सुरक्षा से जुड़े दूसरे नेताओं का दिमाग घुमाने में माहिर होते हैं। इसी की बदौलत सीआरपीएफ के महानिदेशकों ने माइनिंग प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी) एवं दूसरे उपकरणों को लेकर समय-समय पर अपनी मनमर्जी से नीति बदली है।

अपनों की चिंता नहीं

तय मानक न होने का एक उदाहरण देखिए। पूर्व डीजी प्रणय सहाय ने जब बल की कमान संभाली तो उनसे एमपीवी की कम संख्या और अधिक मारक क्षमता नहीं झेलने को लेकर एक सवाल पूछा गया। जवाब कोबरा के आइजी डॉ. एनसी अस्थाना ने दिया। आइजी ने कहा कि अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौज के पास करीब 18 हजार ऐसे वाहन (एमपीवी) हैं, लेकिन फिर भी वहां सैकड़ों जवानों की मौत हो चुकी है।

जब उनसे पूछा गया कि नक्सलियों के पास दूसरे देशों के हथियार भी मिल रहे हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘नक्सलियों को नेपाल से महज एक लाख रुपये में एके-46 राइफल मिल सकती है।’’ आइजी को अपने जवानों की सुरक्षा से कोई मतलब नहीं था, जबकि वे नक्सलियों को सस्ते हथियार कहां से मिल सकते हैं, यह सलाह देते हुए जरूर दिखे।

गृह मंत्रालय को अफसरों पर भरोसा नहीं

सीआरपीएफ की समस्याओं का निदान करने के लिए गृह मंत्रालय को अपने अफसरों पर ही भरोसा नहीं है। जवानों में तनाव दूर करने के लिए प्राइवेट कंपनियों के महंगे सलाहकारों की मदद लेने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन डीजी दिलीप त्रिवेदी ने कहा था कि जो अफसर 30-32 साल से जवानों के बीच में है, उसकी बात को तवज्जो नहीं दी जाती। जिन्हें जमीनी स्तर पर सीआरपीएफ की कोई जानकारी नहीं है, उनसे योजनाएं बनवाई जा रही हैं।

एमपीवी का जुगाड़ तलाशने की सलाह

बल के 78 वें स्थापना दिवस पर मौजूदा डीजी राजीव भटनागर ने कहा था कि जवानों को स्थानीय स्तर पर एमपीवी का कोई विकल्प तलाशना चाहिए। हालांकि खरीद प्रक्रिया चल रही है। उन्होंने कहा, एक जुगाड़ की वजह से पिछले दिनों हमारे सभी जवान एक आतंकी हमले में सुरक्षित रहे थे।

एमपीवी मिलने की राह आसान नहीं

सीआरपीएफ को जबलपुर आयुध फैक्टरी से 40 एमपीवी खरीदने की मंजूरी मिली थी। लेकिन इसमें भी बड़ा पेंच फंस गया है। ये एमपीवी यूरो-2 मॉडल के तहत बने हैं। इस वजह से अब किसी भी राज्य में इनका पंजीकरण संभव नहीं है। नियमानुसार अब यूरो-4 के वाहनों का ही पंजीकरण होता है। सेना को इस नियम से बाहर रखा गया है।

सीआरपीएफ ने गृह मंत्रालय से नई एमपीवी का पंजीकरण सेना से पास कराने या फिर उन्हें यूरो-2 के नियम से छूट देने की मांग की थी, जिसे मना कर दिया गया है। फिलहाल जो एमपीवी हैं, उनकी क्षमता केवल 10 किलोग्राम विस्फोट की मार झेलने की है, जबकि नक्सली 50 किलो तक का आइईडी ब्लास्ट कर रहे हैं।

जरूरत 668 एमपीवी की, हैं 126

सीआरपीएफ के पास फिलहाल 126 एमपीवी हैं। इनमें एक चौथाई खराब हैं। बल को 668 एमपीवी की जरूरत है। यह चिंता का विषय है। देश के नक्सली क्षेत्रों में तैनात बीएसएफ और आइटीबीपी के अलावा दूसरे सुरक्षा बलों की हालत भी कुछ ऐसी ही है। अभी तक उनके पास जो एमपीवी हैं, उनकी विस्फोट सहने की क्षमता बेहद कम है। वाहन का निचला हिस्सा महज 10 किलोग्राम तक का टीएनटी विस्फोट सह सकता है। अगर किसी वाहन के टायर के नीचे 14 किलोग्राम वजन का विस्फोट होता है तब भी उस पर सवार जवान पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं। सूत्रों का कहना है कि नए एमपीवी की क्षमता भी 14 किलोग्राम रखी गई है।

 

तारीखों में बड़े हमले

मार्च 2011

असम के कोकराझार इलाके में बोडो उग्रवादियों ने बीएसएफ के आठ जवानों को घेर कर मार डाला। वे सभी जवान एक मिनी बस में सवार थे। जांच में कहा गया कि अगर जवानों के पास सामान्य वाहन की जगह माइनिंग प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी) होता तो उनकी जान बच सकती थी।

फरवरी 2012

ओडिशा के मलकानगिरी में नक्सलियों ने आइईडी लगाकर सीआरपीएफ के एक सामान्य वाहन को उड़ा दिया। विस्फोट में गाड़ी के टुकडे़ करीब 50 मीटर दूर जाकर गिरे।  एक कमांडिंग अफसर सहित चार सीआरपीएफ कर्मी शहीद हो गए।

मार्च 2012

महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के एक वाहन को आइईडी (इंप्रोवाइस्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) लगाकर उड़ा दिया। 12 जवान शहीद हो गए और 28 घायल हुए।

जुलाई 2016

बिहार के औरंगाबाद में सीआरपीएफ की एलीट बटालियन ‘कोबरा’ के दस जांबाज आइईडी बलास्ट में मारे गए। इनके पास भी माइनिंग प्रोटेक्टेड व्हीकल नहीं था।

अप्रैल 2017

छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ की रोड ओपनिंग पार्टी को घेर कर चारों तरफ से फायरिंग की गई,  जिसमें 25 जवान शहीद हो गए। यहां पर जवानों के पास एमपीवी नहीं थे। जवानों के पास जो हथियार और संचार के साधन थे, नक्सली उन्हें भी लूट ले गए।

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