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जमीन की जंग से धर्मयुद्ध तक

धर्मांतरण और भूमि अधिग्रहण से संबंधित दो विधेयकों के विरोध में आंदोलन की सुगबुगाहट
गुस्साः धर्मांतरण विधेयक का विरोध करते पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

झारखंड में जमीन के लिए युद्ध कोई नया नहीं है। अंग्रेजों के शासनकाल से ही यहां जल, जंगल और जमीन की हिफाजत के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है। आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और 1949 में संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) बना। इसके साथ जब भी छेड़छाड़ का प्रयास हुआ, झारखंड सुलग उठा। मौजूदा रघुवर दास सरकार ने यही काम किया और राज्य के सबसे अधिक गंभीर मुद्दे पर हाथ रख दिया।

सरकार ने पहले अध्यादेश के रूप में और फिर विधानसभा से विधेयक पारित कर दोनों अधिनियम की कुछ धाराओं को बदलने का प्रयास किया। राजनीतिक दलों के साथ-साथ कई संगठनों ने राष्ट्रपति व राज्यपाल तक इसपर विरोध दर्ज कराया। राज्यपाल ने विधेयक को वापस भेजा। सरकार बैकफुट पर गई और विधेयक को वापस लेने की घोषणा हुई। पर यहां मामला शांत नहीं हुआ है। सरकार ने इसमें संशोधन के लिए सभी से बात कर रिपोर्ट देने के लिए दो कमेटियों का गठन कर दिया है। विधानसभा से धर्मांतरण रोकने और भूमि अधिग्रहण से संबंधित (दोनों) विधेयक पारित कर राज्यपाल के पास भेज दिया है। विपक्ष को मुद्दा मिल गया और झारखंड फिर जमीन युद्ध से लेकर धर्मयुद्ध के बीच फंस गया।

सीएनटी और एसपीटी एक्ट आदिवासियों की जमीन की हिफाजत के लिए हैं। इस कानून के तहत आदिवासी जमीन को कोई भी गैरआदिवासी नहीं खरीद सकता है। विशेष परिस्थिति में यदि आदिवासी अपनी जमीन को बेचना चाहते हैं तो जिला के उपायुक्त की अनुमति से उसी पंचायत का कोई आदिवासी ही खरीदार होगा। सीएनटी की धारा-21, धारा-49 (1), धारा-49 (2) और धारा 71 (ए) में संशोधन किया गया। धारा 21 में गैर कृषि उपयोग को विननियमित करने की शक्ति दी गई। धारा-49 (1) में कहा गया है कि कोई भी जोत या जमीन मालिक सरकारी प्रयोजन हेतु सामाजिक, विकासोन्मुखी एवं जनकल्याणकारी आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिसूचित की जाने वाली परियोजनाओं के लिए जमीन हस्तांतरित कर सकेंगे।

धारा 49 (2) में प्रावधान किया गया है कि जिस प्रयोजनार्थ जमीन का हस्तांतरण हुआ है, उससे भिन्न उपयोग नहीं हो सकेगा। जिस प्रयोजनार्थ भूमि हस्तांतरित की गई है, यदि उसके लिए पांच साल तक उपयोग नहीं होगा, तो वह मूल रैयत को वापस हो जाएगी। इसके लिए पूर्व में हस्तांतरण संबंधी दी गई राशि भी वापस नहीं होगी।

सीएनटी एक्ट की धारा-71 (ए) की उप धारा-2 को समाप्त करने का फैसला किया गया। अध्यादेश प्रारूप में भी इसे समाप्त करने का प्रावधान किया गया था। इस उप धारा के समाप्त होने से आदिवासियों की जमीन मुआवजा के आधार पर किसी को हस्तांतरित नहीं की जा सकेगी। एसपीटी की धारा-13 में संशोधन किया गया। इसके स्थान पर धारा 13 (क) स्थापित की गई है। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार समय-समय पर ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में भूमि के गैर कृषि उपयोग को विनियमित करने के लिए नियम बनाएगी। राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे उपयोगों को अधिसूचित किया जाएगा। राज्य सरकार गैर कृषि लगान लगाएगी। इसकी मानक दर भूमि के बाजार मूल्य के एक प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। मानक दर अधिसूचना की तिथि से पांच साल के लिए मान्य होगी।

इस बीच, सरकार ने मानसून सत्र के आखिरी दिन धर्मांतरण और भूमि अधिग्रहण से संबंधित दो विधेयक पारित कर राज्यपाल के पास भेज दिया। पहले को झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक-2017 और दूसरे को भूमि अर्जन पुनर्वासन एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता का अधिकार (झारखंड संशोधन) विधेयक-2017 नाम दिया गया है।  धर्मांतरण रोकने  संबंधी विधेयक के अनुसार यदि कोई पुरोहित किसी का धर्मांतरण कराने के लिए स्वयं संस्कार का आयोजन करते हैं या उसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं तो उन्हें जिला दंडाधिकारी से अनुमति लेनी होगी। दूसरी ओर धर्मांतरित व्यक्ति पूरे तथ्यों के साथ जिला दंडाधिकारी को समय सीमा के अंदर सूचित करेगा। इन दोनों नियमों का उल्लंघन करने वालों को एक साल की कैद की सजा और पांच हजार रुपये जुर्माना हो सकता है।

इनसे विपक्ष को एक नया मुद्दा मिल गया है और बड़े आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। अब राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने और आंदोलन किस ओर जाता है, इसका इंतजार किया जा रहा है।

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