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निराशा के दौर में जलते-बुझते आशा के दीये

हम उस दौर में जी रहे हैं, जहां हिंसा के दृश्य आम हैं लेकिन जनवार कैसल, सब्बाह हाजी और अमित-जयश्री ऐसे नाम हैं जो शिक्षा के अलख से उजियारा भर रहे हैं
शिक्षा की ऊंचाईः जम्मू के डोडा जिले में लगभग 7500 फुट की ऊंचाई पर चार सौ छात्र पंद्रह गांवों से पढ़ने आते हैं

“अब सब संपूर्ण है,” मन्नन गुप्‍ता ने मुझसे कहा। “अब काम ही मेरी जिंदगी है।” “क्या मतलब,” मैंने पूछा, “कॉलेज से निकलने के बाद जब मैंने पहली बार एक प्रौद्योगिकी संस्थान में बतौर इंजीनियर नौकरी शुरू की तो मुझे लगा कि मैं दो हिस्सों में बंट गया हूं। कार्यस्थल पर मैं कुछ और ही होता था। ऑफिस में काम करते समय मेरी रुचि और मेरा वजूद बेमानी लगता था। हालांकि मेरा पैकेज ठीक था, फिर भी मैं जैसे जड़ हो गया था।” 26 साल के मन्नन गुप्‍ता से मेरी पहली मुलाकात इसी साल दिल्ली में हुई थी, डिजिटल एम्पावरमेंटफाउंडेशन द्वारा आयोजित सोशल मीडिया फॉर एम्पावरमेंट (एसएम4ई) पुरस्कार समारोह में। साथ में, मध्यप्रदेश के गांव जनवार से अलरिक रेनहार्ड द्वारा स्‍थापित जनवार कैसल प्रोजेक्ट से आई 12 वर्षीय आदिवासी बच्ची आशा गोंड भी थी। मन्नन यहां कम्युनिटी मोबिलाइजेशन कैटेगरी में स्केटबोर्डिंग के माध्यम से सामाजिक बदलाव को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार ग्रहण करने आए थे।

मनोनीत और पुरस्कृत प्रतिभागी जब परिचर्चा के दौरान अपने काम और सपनों को साझा कर रहे थे तभी आशा ने बताया कि वह लंदन जाने की तैयारी कर रही है। एक महीने के प्रवास के दौरान उसे वहां अंग्रेजी सिखाई जाएगी। अपने गांव से विदेश जानी वाली आशा पहली बालिका है।

एक महीने बाद मैंने आशा से फेसबुक मैसेंजर पर बात की। हमारी तरह उसके पास भी स्मार्टफोन है, जिसमें फेसबुक मैसेंजर उसने ले रखा है। मैंने उससे इंग्लैंड के अनुभव के बारे में पूछा। गांव में जब भी सिग्नल मिलता तो मन्नन मोबाइल से बात करते। हमारी बातचीत में अमूमन व्यवधान, स्केटबोर्डिंग, कनेक्टिविटी, शिक्षा और कला जैसे शब्द ही रहते।

मन्नन ने कहा, “शहर की तुलना में यहां रहना शायद ज्यादा कठिन है। लेकिन फिलहाल ठीक है। मेरे पास करने को कुछ खास है। मुझे लगता है मेरा काम असर दिखा रहा है, क्योंकि जनवार कैसल सतत रूप से आगे बढ़ रहा है।”

जनवार गांव मध्यप्रदेश के पन्‍ना जिले में खजुराहो के पास है। यहां स्केटिंग के लिए पार्क है।

स्केटबोर्डिंग के आने के बाद जाति, वर्ग, लिंग और उम्र के तमाम दायरे टूट गए हैं। इससे धीरे-धीरे ही सही, लेकिन यहां के गोंड और यादव समुदायों में आमूलचूल और सकारात्मक बदलाव देखा जा सकता है। अब दोनों समुदायों के बच्चे आपस में खेलते हैं जो पहले मुश्किल था। इससे गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की उपस्थिति में काफी इजाफा हुआ है। यहां के बच्चे देशभर में दूसरे प्रोजेक्ट और आर्ट वर्कशाप में तो शिरकत करने जाते ही हैं, साथ ही जनवार सीखने और सिखाने के लिए आने वाले कलाकारों का हब बन चुका है।

पति और स्कूल में पढ़ रहे अपने तीन बच्चों के साथ मैं राजधानी दिल्ली के एक उपनगर में रहती हूं। हमारे दिन की शुरुआत आमतौर से अखबारों के पन्ने पलटते हुए होती है। स्मार्टफोन पर हम सोशल मीडिया पर चल रहे घटनाक्रम पर नजर दौड़ाते हैं। गैरजरूरी संदेशों को डिलीट और ब्लॉक करने के मामले में मैं माहिर हूं।

हमारे दौर के सामाजिक-राजनीतिक माहौल में एक निराशा दिखाई देती है। जैसे नसों में लगी ड्रिप की तरह न्यूज, फेक न्यूज और ओपिनियन दिनभर हमारे दिलो-दिमाग में घुसपैठ करते रहते हैं। हमारी ऊर्जा इसी में खर्च होती रहती है कि इन पर प्रतिक्रिया दें या फिर अनदेखा करने के लिए जूझते रहें। डॉक्टरों के प्रतीक्षा कक्ष, रेस्तरां और शोरूमों में टीवी स्क्रीनों पर आदर्श मनोरंजन के तौर पर जो अनवरत चलता रहता है वह अमूमन होता है-गरमा-गरम बहस, हिंसा और मॉब लिंचिंग के दृश्य।

बतौर अभिभावक कोई भी यह महसूस कर सकता है कि वह बड़े होते अपने बच्चों को यह बताए कि दुनियाभर में जो कुछ होता दिख रहा है, उससे अलग दुनिया वाकई में कैसी है। मैं देखती हूं कि मुझे आए दिन हो रही हिंसा के बारे में अपने बच्चों के बहुत से सवालों पर कहना पड़ता है, “यह नहीं होना चाहिए था, बेटा। यह ठीक नहीं है। हमें सुरक्षित होना चाहिए। स्वतंत्र होना चाहिए। हम सवाल पूछ सकते हैं, हम असहमत हो सकते हैं और अपनी असहमति जाहिर भी कर सकते हैं। यही है लोकतंत्र का अर्थ।” वे सहमति में सिर हिलाते हैं। मैं नहीं बता सकती कि उन्होंने मेरी बात पर कितना यकीन किया। मैं हैरान हूं कि अभिभावक की बात में दम भी कितना हो सकता है।

पिछले महीने मेरे बच्चे स्कूल से एक पत्रिका घर लेकर आए। उन्होंने बड़े गर्व से इसे मुझे दिखाया। हमारी सबसे बड़ी बेटी को अभी हाल में ही स्कूल में संपादकीय बोर्ड में शामिल किया गया है। कला और बाल कविता के बीच महात्मा गांधी को लेकर एक आलेख छपा था। वह उनके व्यक्तित्व के स्याह पक्ष को लेकर था। काश, मैं कह सकती कि यह लेख पर्याप्‍त शोध पर आधारित है, या इसमें पूरे तथ्यों के साथ उस महान व्यक्तित्व की समालोचना होती, जिनके जन्मदिवस पर देशभर में सार्वजनिक अवकाश रहता है। इसके बजाय यह भारत में फेक न्यूज का कारोबार करने वालों के तीखे व्हाट्स ऐप संदेश की तरह था। इसे घटिया तर्क के साथ तोड़-मरोड़कर पेश किया गया था। लेखक की जगह “अज्ञात” लिखा था।

एक बार फिर मुझे बच्चों से कहना पड़ा, “यह नहीं होना चाहिए था।” स्कूल का आशय ही होता है आपकी जिज्ञासा को प्रोत्साहित करना, जहां आप समाधान ढूंढ़ने की क्षमता हासिल कर सकें। न कि यह कि आप वहां नफरत फैलाने वाले संदेशों को कॉपी-पेस्ट करना सीखें।

ब्रेसवाना एक हिमालयी गांव है। यह जम्मू के डोडा जिले में 7500 फीट की ऊंचाई पर है। सबसे नजदीकी सड़क तीन किलोमीटर के पैदल रास्ते के बाद है और करीबी शहर डोडा भी वहां से एक घंटा कार चलाने के बाद आता है। करीब एक दशक पहले सब्बाह हाजी और उनके परिवार ने अपने गांव लौटकर हाजी पब्लिक स्कूल की शुरुआत की थी। तब वहां नर्सरी में गांव के ही 30 विद्यार्थी थे। आज वहां 400 छात्र हैं, जो आसपास के 15 गांवों से पढ़ने आते हैं।

सब्बाह ने स्कूल चलाने की चुनौती का सामना करने के लिए सोशल मीडिया पर स्वयंसेवी शिक्षकों की आवश्यकता निकाली। स्कूल को बड़ी संख्या में स्वयंसेवी शिक्षक मिले। वे हर सत्र में वहां पहुंचते हैं और हाजी पब्लिक स्कूल के छात्रों को उनके जरिए गांव से बाहर की दुनिया और संस्कृति को जानने-समझने का अवसर मिलता है।

अपने स्कूल और समुदाय की खास तरक्की के लिए यहां के छात्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी सुर्खियां बन चुके हैं।

एक अलग-थलग समुदाय अपने अस्तित्व के लिए बाहर की दुनिया से संपर्क करता है, बदले में वहां आने वालों को अनुभव और प्रेरणा देता है।

सब्बाह हाजी कहती हैं, “हम अपने छात्रों को ऐसा वातावरण देना चाहते हैं जिसमें वे अच्छे, बुद्धिमान और समर्थ इंसान बन सकें। मैं वही कर रही हूं, जो मुझे लगता है शिक्षा को करना चाहिए, जिससे लोग तमाम तथ्यों को जानें-समझें और तार्किक ढंग से सोचें।”

इम्तियाज लतीफ देव और अमजद लोहार यहां के सीनियर स्टूडेंट हैं। वे अब उच्च शिक्षा के लिए किश्तवाड़ चले गए हैं। अमजद लोहार का बेटा होने के साथ ही परिवार का पहला पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी है। उच्च शिक्षा के सपने को पूरा करने के लिए वह स्कॉलरशिप भी हासिल कर चुका है।

बुरी खबरों से उपजी निराशा और हिंसा से निपटने का एक तरीका अपनी पसंद की एजेंसी का चुनाव करना भी है। प्रतिक्रियाएं देने के बजाय अपने ही संसाधनों से कुछ रचना बेहतर विकल्प है।  

जून 2016 में मैं चित्रकूटधाम, कर्वी में मंदाकिनी नदी के किनारे ऐसी महिलाओं के एक समूह के साथ थी, जो स्मार्टफोन से धड़ाधड़ वीडियो बना रही थीं। इसके पहले पिछले साल मैं दिल्ली में खबर लहरिया के ऑफिस में इन महिलाओं के साथ मोबाइल जर्नलिज्म पर वर्कशॉप कर चुकी थी। खबर लहरिया बुंदेली, अवधी और दूसरी बोलियों में उत्तर प्रदेश की खबरें कवर करने वाला सिर्फ महिलाओं द्वारा संचालित समाचार संस्थान है। मैं प्रशिक्षु पत्रकारों के एक बड़े समूह को तकनीकी प्रशिक्षण देने बुंदेलखंड आई हूं।

गर्मियों के लंबे दिनों के दौरान फ्रेम शॉट्स, इंटरव्यू लेने और फिल्मांकन सिखाने के दौरान मैंने सफीना, लाली, संगीता, मनीषा, बबीता, सरोज, श्यामकली, सुनीता, मीरा और कविता की स्टोरी सुनी। सबकी आपबीती में गरीबी, जातिगत भेदभाव, घरेलू हिंसा, शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भता के लिए संघर्ष शामिल था। साथ ही धैर्य, व्यंग्य और कुछ कर गुजरने का संकल्प देखा जा सकता था। उन सबका फोकस अपनी धरती और अपने लोगों की स्टोरी को अपने मुताबिक कहने पर था।

जनवार के आदिवासी बच्चों के स्केटबोर्ड्स की तरह बुंदेलखंड में निम्न जातियों की महिला पत्रकारों के हाथ में स्मार्टफोन भी पदानुक्रम और पारंपरिक सामाजिक समीकरणों को बदलने के रूप में सामने आया है।

आज खबरलहरिया डॉट ओआरजी (khabarlahariya.org) के पास न सिर्फ वीडियो न्यूज और फीचर्स हैं, बल्कि वे “द कविता शो” भी संचालित करते हैं, जिसमें कविता राष्ट्रीय खबरों के परिप्रेक्ष्य में स्‍थानीय खबरों को दिखाती हैं। उनका फोकस स्थानीय खबरों पर रहता है, संभवत: इसीलिए उनकी अपील दूरगामी है। ग्राउंड रिपोर्ट की वजह से उनका कंटेंट उनके दर्शकों के लिए विश्वसनीयता बनाए रखता है।

उम्मीद महज एक शुरुआत है, लेकिन एक्शन के लिए उम्मीद जरूरी है। जेम्स बैल्डविन के शब्दों में, “हर वह चीज जिसका हम सामना करते हैं, बदली नहीं जा सकती। लेकिन, बगैर सामना किए भी कुछ भी नहीं बदला जा सकता।” अभिभावक की एक आवाज उनके अलगाव को मिटा सकती है। यह आवाज दूसरों का साथ पाकर अधिक ताकतवर होकर उभरेगी।

मध्यप्रदेश के सेंधवा में विंध्याचल की एक पहाड़ी पर आधारशिला नाम का एक और स्कूल है। अमित और जयश्री ने 1998 में भील आदिवासी बच्चों के लिए इस आवासीय विद्यालय की नींव रखी थी। अब यह स्कूल अपने आप में एक अध्ययन का विषय बन चुका है।

इस स्कूल ने दिखा दिया है कि स्थानीय भाषा, समझ और पारिवारिक इतिहास को पढ़ाने के तौर-तरीकों को शामिल कर किस तरह संपूर्ण शिक्षा दी जा सकती है।

जब भी यह सोचकर परेशानी हो कि भारत में निजी स्वतंत्रता और समानता के लिए संघर्ष कहीं खो गया है, तब इसी निराशा का रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है। दर्द ही दवा बन सकता है।

जब हमें अहसास हो जाए कि हम वर्तमान में कहां हैं और कहां होना चाहिए था, तो वहीं से बदलाव की शुरुआत होती है।

क्या यह आदर्शवाद का अंत है? जो हम तय करते हैं, वही हमारे आदर्श होते हैं।

क्या ये अब सिर्फ आंदोलनों के पोस्टरों और चुनावी नारों तक सीमित रह गए हैं या फिर हम एक-दूसरे के कामकाज से इसकी प्रेरणा लेते हैं। विशुद्ध संदेह भी कोरे आदर्शवाद की तरह निरीह है।

आधारशिला के कई पूर्व छात्र आज पीएचडी स्कॉलर और युवा प्रोफेशनल के रूप में अपने स्कूल की मदद करने पहुंच रहे हैं।

जनवार में मन्नन अपने बारे में युवा शिवराज की बात का हवाला देते हैं। शिवराज के मुताबिक, “जब आप (मन्नन) शहर से पहली बार यहां आए तो एकदम शहरी युवक की तरह ही दिखते थे, लेकिन अब आप परिपक्व हो गए हैं। अब आप एक बड़े आदमी लगते हैं।”

हर पीढ़ी में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो पुराने ढांचे को ध्वस्त कर फिर से नई शुरुआत करते हैं। उनकी कहानी में बहुत कुछ ऐसा होता है जो व्यक्ति और समुदाय को पोषित, प्रेरित करता है। सफलता की ऐसी कहानियों में उम्मीद और ताकत होती है, जिनकी गूंज दूर तक सुनाई देती है।

 (लेखिका स्वतंत्र फिल्मकार और मीडिया ट्रेनर हैं और माई डॉटर्स मम इनकी कृति है)

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