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नए निजाम के मायने

नवाज की विदाई के बाद फौज की चुप्पी से मुस्लिम लीग की सत्ता आसान नहीं
नजर भविष्य परः नवाज शरीफ के भाई शहवाज शरीफ

पाकिस्तान के इतिहास में नवाज शरीफ का नाम कुछ खास अंदाज में दर्ज हो सकता था, बशर्ते उनके मौजूदा कार्यकाल के आखिरी 10 महीने पूरे हो जाते। तब वे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले प्रधानमंत्री कहलाते। सात दशकों में पाकिस्तान का एक भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। पिछले तीन दशकों से लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद वहां मोटे तौर पर फौज का ही हुक्म चलता रहा है। फौज दूसरी संस्थाओं पर भारी पड़ती रही है, निर्वाचित सियासी नेता फौजी जनरलों के रहमोकरम के आसरे रहे हैं। हालांकि इस बार पाकिस्तान की शीर्ष अदालत ने निर्वाचित प्रधानमंत्री को झटका दिया और उनकी विदाई तय कर दी। नवाज शरीफ और उनकी राजनैतिक उत्तराधिकारी बेटी मरियम सहित, उनके बच्चों के ‌खिलाफ पनामागेट भ्रष्टाचार मामला भारी पड़ा। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने नवाज को अयोग्य करार दिया, जिसके कारण उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस तरह पाकिस्तान एक बार फिर राजनैतिक अनिश्चितता के चक्र में फंसता जा रहा है।

हालांकि पूर्व भारतीय राजनयिक एम.के. भद्रकुमार कहते हैं कि पाकिस्तान के “हिंसा और अराजकता” के दौर में फिसल जाने की आशंका कम ही है। एक वेबसाइट में उन्होंने लिखा, “उथल-पुथल तो है, मगर यह सत्ता के गलियारों और  दलगत राजनीति तक ही सीमित रहेगी।” लेकिन अदालत के फैसले को लेकर विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कुछ का मानना है कि यह सेना के उकसावे पर न्यायपालिका द्वारा किया गया तख्तापलट है।

डॉन अखबार के स्तंभकार जाहिद हुसैन की राय है, “संदेह के बावजूद यह बड़ा फैसला है, संवैधानिक ढांचे और व्यवस्था के तहत लिया गया है।” वे कहते हैं कि फैसला, कार्यपालिका से स्वतंत्र न्यायपालिका के विकास में मील का पत्थर है।

अब से लेकर जून 2018 में नेशनल असेंबली के कार्यकाल पूरा होने और चुनाव होने तक पाकिस्तान में क्या कुछ घटेगा, यह एक बड़ा सवाल है। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री और शरीफ के करीबी शा‌हिद खाकन अब्बासी फिलवक्त नवाज की जगह ले चुके हैं। समझा जा रहा है कि नवाज के छोटे भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री शहवाज शरीफ के नेशनल असेंबली में पहुंचने तक अब्बासी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहेंगे। माना जा रहा कि शहवाज के पुत्र हमजा पिता की जगह पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे।

दरअसल सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए यह शरीफ परिवार की सोची-समझी रणनीति है। 1980 के बाद से ही पाकिस्तान की राजनीति में शरीफ परिवार काफी प्रभावशाली रहा है। अब सवाल है कि फौज शरीफ परिवार की योजनाओं को कामयाब होने देती है या नहीं। भद्रकुमार के मुताबिक, “बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अगले साल जून में सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक शहवाज किस तरह सरकार चलाते हैं।” भद्रकुमार कहते हैं, “नवाज शरीफ को अभी खारिज नहीं किया जा सकता। उनके साथ गलत हुआ है। वे कई बार मुश्किल हालात से उबर कर आगे आए हैं।”  

यह देखना भी दिलचस्प है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के असर को कम करने के लिए फौज ने शरीफ परिवार को तवज्जो दी और अब दोनों में खटास पैदा हो गई है। शरीफ खानदान मूलत: एक बिजनेस करने वाला परिवार है। राजनीति में शरीफ किसी आदर्श के तहत पाकिस्तान की जनता की सेवा करने नहीं, बल्कि अपने कारोबार और दौलत की हिफाजत करने के लिए आए हैं। जुल्फिकार अली भुट्टो देश में स्टील प्लांट्स जैसे अहम उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे। इसकी प्रतिक्रिया में शरीफ राजनीति में आए।

फौज की मदद से ही वे 1990 में पहली बार प्रधानमंत्री बने। लेकिन दोनों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव रहे। नवाज शरीफ 1997 में बड़े जनादेश के साथ सत्ता में लौटे और परमाणु परीक्षण की अनुमति देने के कारण फौज से शुरुआत में उनके संबंध अच्छे रहे। लेकिन भारत के साथ शांति की पहल करने के नतीजे में 1999 में करगिल युद्ध हुआ। जनरल परवेज मुशर्रफ ने ही उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया। मुशर्रफ पर देशद्रोह के केस के कारण 2013 से शुरू हुआ शरीफ का तीसरा कार्यकाल भी अधर में ही रह गया।

नवाज शरीफ के सामने अब क्या विकल्प है? दुबई में परवेज मुशर्रफ कहते हैं, “हम मुल्क को तबाह नहीं कर सकते, देश की रक्षा के लिए संविधान की थोड़ी-बहुत अनदेखी की जा सकती है।”

इसका मतलब यह लगाया जा रहा है कि शायद फौज शरीफ खानदान को अलग-थलग कर पीटीआइ के इमरान खान को आगे कर दे। क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान कई साल से सेना की नजरे-इनायत का इंतजार कर रहे हैं। 

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