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नए समीकरणों के उलझे सवाल

नीतीश के पैंतरा बदलने से नए सियासी परिदृश्य में अपने-अपने समीकरण पुख्ता करने की तेज हुईं रणनीतियां
तेजस्वी के साथ लालू यादव

दुश्मनी जम कर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे,

जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों।

बशीर बद्र की ये पंक्तियां बिहार की हाल की राजनीति के संदर्भ में बेमानी लगती हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2013 में जब सत्रह साल पुराने सहयोगी भाजपा से नरेन्‍द्र मोदी के विरोध में अपनी राहें जुदा कर लीं और दो वर्ष बाद विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव के राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाकर ऐतिहासिक जीत हासिल की तो ऐसा लगा मानो भाजपा से उनका संबंध-विच्छेद हमेशा के लिए हो गया। लेकिन महज बीस महीने के बाद नीतीश ने न सिर्फ महागठबंधन से नाता तोड़ लिया है, बल्कि भाजपा के साथ एक नई सरकार का गठन भी कर लिया है।

नीतीश के विरोधी उनके पाला बदलने को अवसरवादिता की पराकाष्ठा मानते हैं और उन्हें एक ऐसे सत्तालोलुप नेता की संज्ञा देते हैं जिसने बिहार में न सिर्फ फिरकापरस्त ताकतों के सामने घुटने टेके, वरन उनसे गलबहियां कर जनादेश का घोर अपमान भी किया। लालू यादव तो उन पर राजनीति का ‘पलटूराम’ होने का कटाक्ष भी करते हैं। लालू के बेटे, पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी पूरे प्रदेश की जनादेश अपमान यात्रा पर हैं, जो नौ अगस्त को चंपारण से शुरू हुई।

नीतीश के निर्णय से विपक्षी एकता को निस्संदेह बड़ा झटका लगा है, खासकर ऐसे समय जब लालू जैसे नेता तमाम विरोधी दलों को एक मंच पर लाने की मु‌हिम में व्यस्त थे। विडंबना यह है कि नीतीश को बड़े पैमाने पर विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के साझा उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा था। उनकी स्वच्छ छवि और प्रशासनिक क्षमताओं का आकलन कर समकालीन इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने तो कांग्रेस से उन्हें अपना नेता चुनने तक की अपील कर डाली थी। पर नीतीश व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और राजनैतिक व्यावहारिकता के बीच की खाई को पाटने में अपनी सीमाएं जानते थे। इसीलिए उन्होंने रणनीति ही बदल डाली। अगले दो वर्षों में विशेष उथल-पुथल न हो तो आगामी चुनाव में उनकी भूमिका मोदी के एक मजबूत क्षत्रप के रूप में अब लगभग तय दिखती है।

इसमें शक नहीं कि 2019 के पूर्व नीतीश की रवानगी अब न सिर्फ विपक्ष की राजनीति, मगर देश के चुनावी समीकरण को भी प्रभावित करेगी, लेकिन क्या उनका निर्णय वाकई अप्रत्याशित था? गौरतलब है कि नीतीश का लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ना एक परिस्थितिजन्य रणनीति थी। 2014 के आम चुनाव में जद-यू, राजद और कांग्रेस की दुर्गति ने उन्हें अहसास करा दिया था कि विपक्ष की साझा चुनौती के बगैर मोदी के चुनावी रथ को रोक पाना संभव नहीं। उनकी चुनावी एकता ने बाद में बिहार में ‘मोदी मैजिक’ को निश्चय ही अप्रभावी कर दिया लेकिन उनके गठबंधन की एकता और मजबूती पर संशय बरकरार था।  

यह भी सर्वविदित है कि महागठबंधन बनने के पूर्व नीतीश और लालू के रिश्तों में इक्कीस वर्षों की आपसी तल्खी का इतिहास रहा था। 1995 के विधानसभा में अपनी नवगठित समता पार्टी का हश्र देखकर नीतीश को यह महसूस हो गया था कि लालू को सत्ताच्युत करना सिर्फ स्वयं के बलबूते संभव नहीं है। लालू उस चुनाव में पहले से अधिक मजबूत नेता के रूप में उभरे थे। ऐसी परिस्थितियों में जब लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें एनडीए में आने का निमंत्रण दिया तो वह ठुकरा नहीं सके। यह मूलतः लालू विरोध ही था जिसने नीतीश और भाजपा को एक दूसरे के निकट किया। 

नीतीश ने 2005 के बाद भाजपा से मिलकर साढ़े सात साल तक जो सरकार चलाई उसने एक पिछड़े राज्य में विकास के नए कीर्तिमान गढ़े और उनकी छवि एक विकास-पुरुष के रूप में उभरी। लेकिन नीतीश 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार की अप्रत्याशित पराजय को भूले न थे जब 2002 में हुए गुजरात दंगों को इसका एक कारण समझा गया। नीतीश ने इसीलिए अपने शासनकाल के शुरुआती वर्षों में मुसलमानों के लिए अनेक योजनाएं शुरू कीं। नीतीश इसमें बहुत हद तक सफल भी हुए और लालू के मुस्लिम गढ़ में सेंध लगाकर 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए ने उनके नेतृत्व में अप्रत्याशित सफलता अर्जित की। इसी वजह से नीतीश नहीं चाहते थे ‌कि एनडीए के नेतृत्व की कमान मोदी को सौंपी जाए, लेकिन जब भाजपा ने उनकी मांग अनसुनी कर दी तो उन्होंने अलग होने का फैसला कर लिया। उनके लिए तब सियासत और वक्त का तकाजा यही था कि वे लालू से राजनैतिक रिश्ता फिर से जोड़ लें। 

नीतीश हालांकि शुरू से वाकिफ थे ‌कि राजद के साथ उनका गठबंधन सहज नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने लालू को इस बात के लिए चुनाव पूर्व ही राजी करवा लिया था कि वे (नीतीश) ही महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इसीलिए राजद के सबसे बड़े घटक होने के बावजूद नीतीश ही मुख्यमंत्री चुने गए। लेकिन शासन चलाने में उन्हें वैसी परेशानियों का सामना करना पड़ा जैसा उन्होंने पूर्व में कभी नहीं किया था। राजद विधायक राजबल्लभ यादव के एक नाबालिग के बलात्कार केस में फंसने और मोहम्मद शहाबुद्दीन के पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड में आरोपी होने से स्थितियां बिगड़ीं। नीतीश ने हमेशा ही अपराध और भ्रष्टाचार पर जीरो-टॉलरेंस की नीति पर जोर दिया था। लेकिन असली संकट तब आया जब सरकार के उप-मुख्यमंत्री और लालू के पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे।

विश्लेषकों का भी  मानना है ‌कि तेजस्वी पर लगा आरोप नीतीश के निर्णय के पीछे का एकमात्र कारण नहीं है। दरअसल इसकी पृष्ठभूमि उसी समय से बनने लगी थी जब नीतीश ने मोदी की पाकिस्तान यात्रा, सर्जिकल स्ट्राइक और विमुद्रीकरण जैसे मुद्दों पर खुला समर्थन करना शुरू कर दिया था। इसके अलावा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत के पहले प्रदेश में समाजवादी पार्टी में हुई घमासान के कारण मोदी-विरोधी पार्टियों की एकता भी उन्हें एक मरीचिका जैसी दिखने लगी थीं। वे इस बात से भी अवगत थे कि कम से कम वह 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार नहीं हो सकते हैं।

इन परिस्थितियों में नीतीश के लिए एक विकल्प यही था ‌कि वे भाजपा के साथ गिले-शिकवे मिटाकर टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास करें। राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार  रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर उन्होंने इसकी पृष्‍ठभूमि पहले ही तैयार कर दी थी। 

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