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ममता बनर्जीः मोर्चे पर हमेशा आगे

बंगाल की मुख्यमंत्री में है मोदी से टकराने का माद्दा
ममता बनर्जी

ताकत: बंगाल में शक्त‌िशाली, मोदी से सीधे टकराने का दमखम

कमजोरी: अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप

मौका: वाम मोर्चे की छीजती ताकत से राष्ट्रीय स्तर पर अहमियत

आशंका: तृणमूल नेताओं के चिटफंड घोटाले में फंसने से दबाव

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाले विपक्षी नेताओं में तृणमूल कांग्रेस की मुखिया तथा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रमुख हैं। नोटबंदी, राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी को लेकर मोदी विरोधी राजनैतिक लाइन अख्त‌ियार कर ममता ने जता दिया कि वे प्रधानमंत्री से टकराने का माद्दा बखूबी रखती हैं। तीस्ता जल बंटवारे की संधि पर भी ममता बनर्जी ने मोदी सरकार से दो-दो हाथ किए थे। तृणमूल कांग्रेस के सांसदों को शारदा चिटफंड घोटाले में सीबीआइ द्वारा हिरासत में लिए जाने के बावजूद ममता की केंद्र के विरुद्ध लड़ाई क्षीण नहीं पड़ी।

ममता का यह जुझारूपन ही उनकी ताकत है और इसी ताकत की बदौलत वे राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बनी हुई हैं। सत्तर के दशक में कांग्रेस के छात्र संगठन से जुड़कर बंगाल की राजनीति में प्रवेश करने वाली ममता अनवरत सड़क से संसद तक अपने ढंग से लड़ती-भिड़ती रहीं। इसी तरह लड़ते-भिड़ते उन्होंने वाम मोर्चा से सत्ता छीनी। सरकार में आने के बाद भी उनके ये तेवर बरकरार हैं। पिछले दिनों राज्य में भड़की हिंसा को लेकर राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी से उन्होंने नाहक विवाद किया। तथ्य तो यही है कि उनका प्रशासन उत्तर 24 परगना से लेकर दार्जिलिंग तक में हिंसा रोकने में विफल रहा। राज्य में हिंसा की इन घटनाओं में उनके कथित तुष्टीकरण को लेकर भाजपा आक्रामक है।

ममता सरकार की सबसे बड़ी उपलब्ध‌ि माओवाद ग्रस्त जंगलमहल और पहाड़ में शांति कायम करना मानी जाती रही है। दार्जिलिंग पिछले छह वर्षों तक शांत था लेकिन वहां राज्य मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित करने और बांग्लाभाषा संबंधी राज्य सरकार की अधिसूचना जारी होते ही पहाड़ फिर उबलने लगा। मुख्यमंत्री द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के विभिन्न समुदायों जैसे राई, लेपचा और शेरपा के लिए अलग-अलग विकास परिषदों का गठन किए जाने से भी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नाखुश था क्योंकि राज्य सरकार से आर्थिक मदद सीधे उन विकास परिषदों को जाने लगी जिससे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का महत्व कम हो गया था। इसीलिए विमल गुरुंग उपयुक्त समय की तलाश में थे।

दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र तथा कुछ अन्य स्थानों पर स्थिति अशांत है और बंगाल में ममता भले समस्याओं से जूझ रही हों लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पूछ बढ़ी है, खास तौर पर विपक्ष में। वाम दलों खासकर माकपा और भाकपा का सिमटना तेज हुआ है और उसके एवज में उन्हीं के गढ़ बंगाल से निकली तृणमूल कांग्रेस बंगाल ही नहीं, धीरे-धीरे दूसरे प्रदेशों में भी अपना जनाधार बढ़ा रही है। पिछले साल तो चुनाव आयोग ने तृणमूल कांग्रेस को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता भी दे दी। बंगाल के बाहर पूर्वोत्तर के तीन प्रदेशों-असम, अरुणाचल प्रदेश तथा मणिपुर में उसके कुछ विधायक चुने जाते रहे हैं। झारखंड में भी उसका सांसद था। उत्तर प्रदेश की एक विधानसभा सीट पर भी तृणमूल कांग्रेस को एक बार विजय मिली थी।

ममता को बेहतर बोध है कि बंगाल के बाहर उनकी ताकत बढ़ेगी तो राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पूछ और बढ़ेगी। वे जान चुकी हैं कि कांग्रेस के लिए यह कठिन समय है। उधर, वाम दल भी पहले से ज्यादा कमजोर हुए हैं। वाम दलों खासकर माकपा में इतनी शक्त‌ि नहीं बची है कि तीसरे मोर्चे के गठन में फिर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। ऐसे में, ममता बनर्जी अगर तृणमूल कांग्रेस की ताकत बढ़ाते जाने में सफल होती हैं तो राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाएगी। इसीलिए वे फेडरल फ्रंट बनाने की बात कह रही हैं। मुश्किल यह है कि देश के दूसरे हिस्सों में भी ममता की स्वीकार्यता बढ़ तो रही है लेकिन राष्ट्रीय नेता बनने के लिए जिस तरह की दृष्टि और सदाशयता की जरूरत होती है, उसका परिचय ममता कई बार नहीं देतीं।

बंगाल और उसके बाहर ममता की बढ़ती स्वीकार्यता की सबसे बड़ी वजह उनकी सादगी और ईमानदारी है। आज भी ममता हवाई चप्पल पहनती हैं। कोलकाता के कालीघाट की अपनी पुरानी झोपड़पट्टी में रहती हैं। माना जाता है कि ममता बनर्जी की स्वच्छ छवि और गरीबों के लिए उनके संग्राम के कारण ही पश्चिम बंगाल में छह साल पहले परिवर्तन आया। मोदी सरकार के खिलाफ भी ममता समझौताविहीन संग्राम कर रही हैं। इसीलिए विपक्ष मोदी विरोधी कोई संघर्ष ममता के सहयोग के बगैर नहीं चला सकता।

 

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