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जवाबदेही पर ‘जुमलों’ की पॉलिश

मोदी सरकार के तीन साल धर्मनिरपेक्ष भारत की मूल अवधारणा पर साबित हुए भारी चोट
मेहनतकश वर्ग

चुनावी लोकतंत्र में सत्तासीन सरकार का मूल्यांकन होता ही है। लेकिन इसके लिए सरकार को काम करने का थोड़ा वक्त जरूर दिया जाना चाहिए। लोकतांत्रिक राजनीति में इस मोहलत को बड़ा प्यारा नाम दिया गया है-हनीमून पीरियड! अब, मोदी सरकार के तीन वर्ष पूरे होने के बाद ऐसे किसी मूल्यांकन का यह बिलकुल सही समय है। सरकार के मूल्यांकन के साथ-साथ अगले चुनाव के लिए अपना मन बनाने का यह सही वक्त है।

परंपरागत तौर पर किसी सरकार को उसके चुनावी वादों के आधार पर परखा जाता है। हालांकि, वर्तमान सरकार तथ्यों पर बात करने से परहेज करती है। इसलिए उसके प्रदर्शन पर उठाए गए हरेक सवाल को मजाक में उड़ा दिया जाता है। पूछे गए हरेक सवाल को इस जवाब से टकराना पड़ता है कि ऐसे सवाल उठाना राष्ट्र-विरोधी है। किसी निष्पक्ष मूल्यांकन की राह में यह न सिर्फ एक बड़ी बाधा है बल्कि इससे विचारहीनता और भय भी उत्पन्न होता है। विवेकपूर्ण तर्कों की जगह एकतरफा रवैए और दमनकारी टिप्पणियों ने ले ली है।

चुनाव प्रचार के दौरान आबादी के एक बड़े तबके के जीवन और रोजी-रोटी से जुड़े सवालों को हल करने के लिए वादे किए गए थे। रोजगार, जरूरी वस्तुओं की महंगाई, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे छाए हुए थे। खेती-किसानी में लगे लोगों की हालत खराब थी। उद्योग-धंधे भी सुस्ती की मार झेल रहे थे। रोजमर्रा की परेशानियों से जनता त्रस्त थी। इस स्थिति से निजात पाने की छटपटाहट का असर जानदेश पर पड़ा।

जिस तरीके से चुनाव लड़ा गया था, उसी से अंदाजा था कि नई सरकार काफी अलग होगी। संसदीय चुनाव प्रेसिडेंशियल मुकाबले में तब्दील कर दिया गया। एक खास बात यह रही कि भारत का पूरा कॉरपोरेट जगत एक स्वर से 'अबकी बार, मोदी सरकार’ का समर्थन कर रहा था। मानो अर्थव्यवस्था की उलझनें और निवर्तमान सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा एक महानुभाव के छूने मात्र से दूर हो जाएगा। ऐसे माहौल में नीतियों पर बहस की गुंजाइश काफी कम हो जाती है। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और ऐसी तमाम समस्याओं के हल के लिए नए-नए नारे गढ़े गए। और हां, घोषित नेता के पौरुष में उन समस्याओं के समाधान के लिए कोई रोडमैप नहीं था, जिन्हें हल करने का दावा वह कर रहे थे। इस श‌क्तिशाली छवि को गढ़ने के लिए दो अलग-अलग ताकतें-भारतीय व्यावसायिक घराने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हो गईं।

भारत के व्यावसायिक घरानों को इस बात का अंदाजा था कि मुश्किल वैश्विक हालात में आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं की जा सकती। वैसे ऐसी आर्थिक वृद्धि हर हालत में गैर-बराबरी को बढ़ाती ही है। ऐसे मुश्किल माहौल में व्यावसायिक घरानों के लाभ को सुनिश्चित करने वाली नीतियां प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा ही हासिल की जा सकती थीं। कॉरपोरेट के इस उत्साह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूत करने और हिंदू राष्ट्र की स्थापना के मंसूबों को आगे बढ़ाने का सुनहरा अवसर भांप लिया था।

'प्रधानमंत्री के लिए मोदी’ अभियान के समर्थकों का दावा था कि वर्ष 2002 के मोदी अब एक ताकतवर और जिम्मेदार नेता बन चुके हैं। इस तर्क को पुष्ट करने के लिए 'गुजरात मॉडल’ का हौवा खड़ा किया गया। यह भी सच है कि इस मॉडल की हकीकत जानने की कोई कोशिश नहीं हुई जबकि वह न सिर्फ गैर-बराबरी बढ़ाने वाला बल्कि नागरिक अधिकारों पर चोट और पहचान के आधार पर लोगों की रोजी-रोटी पर संकट पैदा करने के साथ-साथ बेशर्मी से व्यावसायिक घरानों का पक्षधर था।

मोदी सरकार के तीन साल के शासन में इन प्रवृतियों के दबदबे की गवाही देते हैं। अब इसमें जवाबदेह होने की आवश्यकता को पूरी तरह खारिज करना भी जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कथित लड़ाई, जिसे काले धन के विरुद्ध अभियान के रूप में लड़ा गया, वह भी 'जुमला’ ही साबित हुई। हर सवाल को अवमानना के रूप में देखा जा रहा है। करों में भारी भरकम छूट, बैंकों के कर्ज की अदायगी न होने और डिफॉल्टरों को भाग जाने देना जैसे मुद्दों को छिपाने के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं।

 लेकिन उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में भयावह स्थिति पैदा हो रही है जो पहले से चली आ रही समस्या का विस्तार नहीं, बल्कि इससे भी ज्यादा कुछ है। नतीजन प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगार पैदा करने का दावा हवा-हवाई हो गया है। संसद में पूछे गए सवालों के जवाब में पता चला कि वास्तव में रोजगार के अवसर घटे हैं। इसी तरह, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सरकार कृषि क्षेत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की प्रतिबद्धता से सीधे तौर पर मुकर गई है जबकि किसानों की आत्महत्या के मामले काफी बढ़े हैं। असंगठित क्षेत्रों में लगे श्रमिक असहाय हैं, क्योंकि न्यूनतम मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है। विमुद्रीकरण ने उनकी परेशानी को वास्तव में और बढ़ा दिया है। इन सब मु्द्दों को छिपाने का सरकार के पास एक ही तरीका है कि गणना का तरीका ही बदल दिया जाए।

हिंदुत्व के विभाजनकारी एजेंडे के चलते लोगों का ध्यान उनकी समस्याओं से हटाकर आपसी घृणा और हिंसा की तरफ मोड़ना जरूरी था। पिछले तीन वर्ष की घटनाएं इसका सबूत हैं। लव जिहाद, घर वापसी, बीफ जैसे मुद्दों के साथ अल्पसंख्यक और मुस्लिम निशाने पर रहे हैं, जो हमारे संविधान की भावना के खिलाफ है। कश्मीर के सवाल और पाकिस्तान को लेकर विदेश नीति के मामले में इस राष्ट्रीय सहमति की अनदेखी की जा रही है कि कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है। घाटी में अपने ही नागरिकों के ऐसे अलगाव की चुनौती का भारत को पहले कभी सामना नहीं करना पड़ा। दलितों और सामाजिक रूप से पीड़ित समुदायों पर हमले इन तीन वर्षों की एक और खास बात है।    

कुल मिलाकर भारत में विविधता के सवालों को एकरूपता के संकुचित दृष्टिकोण में समेटा जा रहा है, जो धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य को आर्थिक और सामाजिक असमानता वाले तानाशाही धर्मशासित हिंदू राष्ट्र में बदलने का एक प्रयास है। इसलिए लोग क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, क्या बोलेंगे, क्या लिखेंगे, क्या सोचेंगे इसके आदेश दिए जा रहे हैं।

इससे इतर सब कुछ राष्ट्र विरोधी करार दिया जाएगा। इस तरह, पिछले तीन साल न केवल रोजमर्रा की जिंदगी और रोजी-रोटी के सवाल पर बल्कि संविधान में वर्णित विविधता और एकता वाले भारत के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में भी हमारे सामने हैं।

(लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के वरिष्ठ नेता हैं।)

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