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मास्टर ब्लास्टर की बॉक्स ऑफिस पर नई इनिंग

सचिन पर बनी और जल्द ही प्रदर्शित होने वाली एक डॉक्यू-फिल्म को लेकर उनके चाहने वाले बहुत उत्साह में हैं लेकिन उनके इंतजार के साथ असल न्याय तब होगा जब फिल्म नायक के जीवन में आए उतार-चढ़ाव को समान ढंग से दिखाएगी
सच‌िन तेंदुलकर

इस महीने सचिन तेंदुलकर की वापसी हो रही है। जाहिर है,  बैटिंग क्रीज पर नहीं बल्कि सिनेमा हॉल के परदे पर एक ऐसी फिल्म के माध्यम से, जो उन्हीं के जीवन से प्रेरित है। सचिन : ए बिलियन ड्रीम्स नामक इस फिल्म का ट्रेलर आ चुका है और उनके चाहने वाले लाखों लोगों के दिलों की धडक़न तेज हो गई है। खिलाड़ियों की जिंदगी पर बनी और प्रदर्शित हुई हालिया फिल्मों की तरह यह कोई बायोपिक नहीं है बल्कि वृत्तचित्र शैली में बनाई गई फिल्म (डॉक्यू-फिल्म) है। इसमें खुद सचिन नजर आएंगे। फिल्म के प्रचार से जुड़े लोगों की मानें तो उनके पारिवारिक जीवन और बचपन से लेकर जवानी तक के कुछ अनदेखे फुटेज भी इसमें शामिल हैं। फिल्म का ट्रेलर अब तक दस लाख से ज्यादा बार देखा जा चुका है। एक झलक ही इस बात की ओर संकेत करती है कि सुनहरे परदे की यह अगली ब्लॉकबस्टर होगी।

सचिन के प्रशंसक भले ही 26 मई को इसके प्रदर्शन का इंतजार बेसब्री से कर रहे हों, वे इस उम्मीद में भी हैं कि अपने पसंदीदा क्रिकेटर की जिंदगी के कुछ अनजाने पहलुओं को देखने का उन्हें मौका मिलेगा और यह फिल्म सराहना में डूबे वॉयस-ओवर और महान बल्लेबाजी के यादगार पलों का घिसा-पिटा घालमेल नहीं होगी जहां नायक की विफलताओं या कमजोरियों की झलक तक नहीं मिलती। आम तौर से भारतीय खिलाड़ियों पर बनी बायोपिक फिल्में प्रशंसापूर्ण चरित्र चित्रण से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। सवाल उठता है कि आखिर हमारे फिल्मकार मानवीय पहलुओं को कैसे छोड़ देते हैं, उन इंसानी कमजोरियों और असुरक्षाओं को क्यों नहीं परदे पर उतारते जो किसी भी अच्छी पटकथा की रीढ़ हो सकते हैं?

जिन निर्देशकों ने खिलाड़ियों के जीवन पर जमीनी फिल्में बनाई हैं, उनका मानना है कि खेल बायोपिक का जिक्र आते ही निर्माता ऐसे भाग खड़ा होता है जैसे 100 मीटर की स्प्रिंट दौड़ लगा रहा हो। राकेश ओमप्रकाश मेहरा जिन्होंने ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी हिट फिल्म बनाई जिसमें फरहान अख्तर ने महान धावक का किरदार निभाया था, आउटलुक को बताते हैं, ‘मैं जब भाग मिल्खा भाग बनाने की सोच रहा था,  उस वक्त तक मेरे सामने कुछ चुनौतियां थीं। खिलाड़ी के जीवन पर कोई भी फिल्म बनाने को तैयार नहीं था। ऐसी फिल्म कोई भी नहीं चाहता जिसमें प्रेम कथा न हो, हीरो-हीरोइनों का नाच न हो और कोई आइटम गीत न हो। मेरे पीछे रंग दे बसंती की कामयाबी खड़ी थी, बावजूद उसके इन फिल्मों के लिए लोगों को तैयार करने में मुझे पांच साल लग गए।’

मिल्खा सिंह पर अपनी फिल्म में मेहरा ने काफी मेहनत से दिखाया है कि कैसे भारत का सबसे मशहूर धावक संघर्षों से टक्कर लेता है और उसका बचपन कितना त्रासद रहा है। उसने विभाजन के वक्त अपने परिजनों को मरते हुए देखा है। आम तौर से भारतीय खिलाड़ियों पर बनी बायोपिक में वास्तविकता को विकृत कर उसकी एक भव्य और अतिरंजित तस्वीर पेश की जाती है। भारत को हॉकी विश्व कप में अकेले विजय दिलवाने वाले कप्तान अजितपाल सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस किस्म की सभी फिल्में देखी हैं और इन सबमें हकीकत की नामौजूदगी से निराश हैं। वह पूछते हैं, ‘हीरो-हीरोइन के बारे में अहम सूचनाओं को दबाया नहीं जाना चाहिए। आप अगर उनका सकारात्मक पक्ष दिखा रहे हैं, तो उसके चरित्र की गड़बड़ियां भी आपको दिखानी चाहिए। मसलन, उसने कब-कब रिश्वत ली और कौन से मैच फिक्स किए। दर्शक तो वैसे भी हकीकत जानता ही है, फिर उन चीजों को दबाने से क्या लाभ?’ वह मानते हैं कि फिल्मकार अपना माल बेचने के लिए उसमें मसाला डालता है। वह आमिर खान की दंगल का उदाहरण देते हैं जिसमें खिलाड़ी गीता फोगाट के पिता बने आमिर खान को उसका कोच 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान कमरे में बंद करवा देता है ताकि वह अपनी बेटी को मैच के बीच में निर्देश न दे सकें। वह कहते हैं, ‘हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। यही ‘मसाला’ है। मसाला न डालें तो उनका बायोपिक चलेगा नहीं। इसके अलावा उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होता है कि जो पैसा लगा है कम से कम उसकी वसूली हो जाए।’

सचिन : ए बिलियन ड्रीम्स के लंदन स्थित मशहूर निर्देशक जेम्स एर्सकीन मानते हैं कि खेल के नायकों के हर पक्ष को दिखाया जाना चाहिए। वह आउटलुक से कहते हैं, ‘मैं नहीं जानता कि भारतीय दर्शकों के बारे में टिप्पणी करने के योग्य मैं हूं या नहीं लेकिन मेरा मानना है कि फिल्म में बिना डर के नायक की जिंदगी में आई ऊंच-नीच को दिखाना चाहिए। बिना नकारात्मक तत्वों के सकारात्मकता का क्या मतलब रह जाता है?’ अजहर के निर्देशक टोनी डिसूजा इस आरोप को नकारते हैं कि भारतीय बायोपिक खिलाड़ियों की केवल प्रशस्ति होती है। वह दावा करते हैं कि उन्होंने खिलाड़ी का दूसरा पक्ष भी दर्शाया है। वह कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि हम जो कुछ भी करते हैं वह इस पर निर्भर होता है कि हमारे पास सूचनाएं क्या हैं। अगर मेरी फिल्म पर मुझे कहना हो तो मुझे लगता है कि मैंने वही दिखाया है जो दिखाना चाहता था।’ राकेश ओमप्रकाश मेहरा कहते हैं कि यह निर्देशक के अधिकार क्षेत्र में है कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्या दिखाए और क्या छोड़ दे।’ वह कहते हैं, ‘फीचर फिल्म एक फिक्‍शन होती है जिसमें कुछ हकीकत होती है और बाकी नाटकीयता। यह पूरी तरह फिल्मकार के अख्तियार में है कि वह अपनी कहानी कैसे सुनाना चाहता है। कोई बाध्यता जैसी बात नहीं है। मसलन, भाग मिल्खा भाग में मैं एक गुम हो चुके बचपन की कहानी सुनाना चाहता था। मेरी ऐसी कहानी कहने में कोई दिलचस्पी नहीं कि मिल्खा सिंह कहां जन्में, कहां पढ़े-लिखे, उनके कितने बच्चे हैं, यह तो डॉक्यूमेंट्री का विषय है।’ लेकिन वह यह भी मानते हैं कि भारत के लोग हकीकत का सामना नहीं करना चाहते। वह कहते हैं, ‘बतौर राष्ट्र हम हकीकत को नहीं पचा पाते और फिल्मकार सच्चाई का बयान करने का साहस नहीं जुटा पाते।’

ऐसे में यह देखना है कि सचिन : ए बिलियन ड्रीम्स फिल्म में निर्देशक इरस्किन और निर्माता रवि भागचंदका क्या लेकर आते हैं। भागचंदका कहते हैं, ‘फिल्म आपको उनके निजी जीवन की झलक दिखाती है। हम उनके परिवार का नजरिया भी लेकर आए हैं। हमने कुछ ऐसे घरेलू वीडियो भी हासिल किए हैं जो अभी तक नहीं देखे गए हैं। हम सचिन का बतौर क्रिकेटर और मानवीय पक्ष दोनों दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।’ तेंदुलकर के खराब प्रदर्शनों और चोट वगैरह के बारे में क्या है? वह कहते हैं, ‘हां, हम उनके संघर्षों को दिखाने जा रहे हैं। फिलहाल मैं फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता सकता।’

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद पर बॉयोपिक का शायद निर्देशन करने जा रहे रायजादा रोहित जयसिंह वैद का कहना है कि हर बड़े नायक के परिजन चाहते हैं कि कहानी उनके अनुसार बनाई जाए। वह कहते हैं, ‘कोई आदमी भगवान नहीं होता, सबसे गलतियां और गड़बड़ियां होती हैं। महानता की कहानी पर यकीन कीजिए मगर उन मानवीय भावनाओं और कमजोरियों को दिखाने से न हिचकिये, जिससे नायक को गुजर कर आगे बढऩा पड़ा है।’  वैसे भी भारत खेल को अधिक तवज्जो देने वाला देश नहीं है मगर ध्यानचंद,  प्रकाश पादुकोण,  मैरी कॉम और मिल्खा सिंह जैसे महान नायक भी यहां हुए हैं, जिनके जीवन में बड़े परदे पर फिल्माने लायक काफी नाटकीय पहलू हैं। बिलियर्ड के महान खिलाड़ी माइकल फरेरा सोचते हैं कि खेल की दुनिया के भारतीय नायकों के बारे में बॉयोपिक के जरिए लोगों को बताना वाकई महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं, ‘भाग मिल्खा भाग वाकई मील का पत्थर है। फिल्मकारों को अब उन्हें तलाशना और फिल्म बनानी चाहिए,  जिनकी कहानी अभी तक जाहिर नहीं हुई है।’ ऐसे ही एक अनोखे खिलाड़ी भारतीय हॉकी के कप्तान बलबीर सिंह हैं। तीन बार ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता की जादूगरी अब फिल्म ‘गोल्ड’ में परदे पर दिखाने जा रही हैं निर्देशक रीमा कागती। अक्षय कुमार बलबीर की भूमिका में होंगे।

प्रियंका चोपड़ा को लेकर मैरी कॉम बनाने वाले उमंग कुमार का कहना है कि बॉयोपिक का मामला चल पड़ा है लेकिन लोगों को थोड़ा धीरज रखना होगा। वह बताते हैं, ‘सभी बॉयोपिक एक ही साथ नहीं बनेंगे क्योंकि फिर यह भी ‘मैं भी’, ‘मैं भी’ सा हो जाएगा। थोड़ा रुक-रुक कर करना होगा। हर कोई नामी खिलाड़ियों के पीछे दौड़ रहा है,  अगर हर कोई ऐसे ही पीछे पड़ने लगा तो बॉयोपिक बनाने का मजा ही खत्म हो जाएगा। राकेश ओमप्रकाश मेहरा कहते हैं कि ध्यानचंद पर बॉयोपिक तो सपने का साकार होने जैसा होगा। वह कहते हैं, ‘मैं इसे व्यावसायिक कामयाबी के लिए नहीं करना चाहता। लेकिन जब लोग ऐसे सवाल पूछना बंद कर देंगे तब मैं इस कहानी पर काम करने वाला पहला आदमी होऊंगा। हमारे हॉकी के नायकों अजितपाल सिंह,  परगट सिंह, अशोक कुमार या असलम शेर खान के बारे में महान किस्सों को बयान करना तो अभी बाकी है।’

तीन स्वर्ण पदक जीतने वाले हॉकी के जादूगर ध्यानचंद आजादी के बाद युवा देश के वाकई निर्विवाद महान खेल नायक थे। वह लाजवाब सुपर हीरो हैं। उनके घटनाप्रधान जीवन की नाटकीयता देश के नाटकीय दौर में ही आसमान छू रही थी। यह कहानी तो बड़े परदे के लिए एकदम माकूल है। पांच साल पहले निर्माता पूजा शेट्टी और निर्देशक रायजादा रोहित जयसिंह वैद ने ध्यानचंद के बेटे पूर्व भारतीय कप्तान अशोक कुमार से एक करार किया लेकिन यह परियोजना आगे नहीं बढ़ सकी। करीबी सूत्रों का कहना है कि करार लगभग खत्म हो चुका है, बस कुछ, ‘कागजी काम बाकी’ रह गया है। हालांकि इला बेदी के साथ पटकथा लिखने वाले वैद कहते हैं, ‘यह साल फिल्म के लिए बड़ी संभावना वाला है और भगवान की कृपा से जल्दी कुछ धरातल पर दिखने लगेगा।’

अगर यह परियोजना आगे नहीं बढ़ती है तो वाकई दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि अपनी जादूगरी से हर किसी को, यहां तक कि 1936 में बर्लिन ओलंपिक में फासीवादी नाजी नेताओं को भी मंत्रमुग्ध कर देने वाले ध्यानचंद भारत के महानत खिलाड़ी हैं। यहां तक कि अमर चित्र कथा ने भी परंपरा तोड़कर उन पर एक अंक निकाला। इसमें दो राय नहीं कि दुनिया भर में महान सेंटर फारवर्ड के दीवाने बड़े परदे पर उनकी कहानी देख मंत्रमुग्ध होना चाहेंगे।

फिलहाल तो क्रिकेट के दीवानों समेत देश में सभी की निगाहें तेंदुलकर पर बनने वाली फिल्म पर लगी हैं। निर्देशक इरस्किन कहते हैं, ‘इस फिल्म को लिखने, निर्देशन और संपादन करने में लगभग तीन साल लगे। हम दुनिया भर में गए और बारीकी में जानने की कोशिश की। हमारी उम्मीद तो यही है कि यह फिल्म भी उसी तरह लोगों को दीवाना बनाएगी,  जैसी सचिन के प्रति दीवानगी है। लोगों को यह प्रेरणा देगी और संतुष्ट कर देगी।’ इरस्किन इस महानायक पर दूसरी बॉयोपिक बनाने से इनकार नहीं करते। उम्मीद है उनकी ताजा फिल्म महानायक के जीवन के एकाकीपन और उनके संघर्षों की कथा भी लेकर आएगी, महज उनके जाने-पहचाने शानदार क्षणों को ही नहीं।

 

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