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सवैधानिक दर्जे पर किसी को एतराज नहीं

साक्षात्कार
शरद यादव

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के केंद्र सरकार के कदम ने पिछड़ा वर्ग की राजनीति में भी खलबली मचा दी है। पिछड़ा वर्ग को नौकरी और शैक्षणिक आरक्षण के मुद्दे पर संसद और संसद के बाहर लगातार मुखर रहने वाले सांसद और जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता शरद यादव के साथ आउटलुक के एसोसिएट एडिटर अजीत सिंह ने इस मुद्दे पर लंबी बातचीत की। प्रमुख अंश:

 

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाने की कोशिशों को आप किस नजरिये से देखते हैं?

देश में बेरोजगारी बड़ी भारी समस्या है। इसके लिए लंबी लड़ाई लड़ने की जरूरत है। आजकल यह गलतफहमी फैली हुई है कि आरक्षण नौकरी पाने का शार्टकट है, जबकि हकीकत इससे अलग है। बड़े पैमाने पर नौकरियां तो प्राइवेट सेक्टर में चली गई हैं। सरकारी नौकरियां बची ही कितनी हैं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि हर साल दो करोड़ नौकरियां देंगे। यानी पांच साल में 10 करोड़ नौकरियां केंद्र सरकार को देनी थीं। किसानों की हालत बहुत बुरी है। उनकी आमदनी दोगुनी करने का वादा किया गया था। यह सरकार सही रास्ता पकड़ती तो पांच साल में कम से कम 50 करोड़ लोगों की जिदंगी में सुधार आता। जो लोग आज इधर-उधर की बातें कर रहे हैं, उन्हें आंकड़े निकालने चाहिए कि अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी की नौकरियों का बैकलॉग कितना बड़ा है।

आपका कहना है कि अगर रोजगार के अवसर बढ़ जाते तो विभिन्न समुदायों की ओर से आरक्षण पाने के लिए इतनी आवाजें नहीं उठतीं?

बात यह है कि बेरोजगारी की चिंता तो है लेकिन पुरुषार्थ नहीं है। मतलब जो कमजोर वर्गों के लोग हैं, उनके हक पर निगाह डाली जा रही है जबकि नजर बड़े फलक पर होनी चाहिए। जिनके पास कुछ है ही नहीं उनका हिस्सा मारकर क्या मिलेगा। यह पुरुषार्थ नहीं है। आज भी बड़ी नौकरियों में बैकवर्ड क्लास की हिस्सेदारी महज आठ फीसदी है, जबकि होनी चाहिए 27 फीसदी। अब इस आठ फीसदी में से किसे क्या मिल जाएगा। हमारे यहां गुस्सा नीचे से ऊपर नहीं जाता। ऊपर तो सलाम मारता है आदमी, नीचे वाले को दबाना चाहता है। ये सदियों का गुण है।

ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था में किस तरह के सुधार की जरूरत आप मानते हैं?

आरक्षण में ताकत तब आएगी, जब प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण व्यवस्था लागू होगी। जरूरत है सरकार से नौकरियां दिलाने के वादे को पूरा कराने की। नौकरियां वहां हैं। लेकिन इस बड़ी लड़ाई को लोग लड़ना नहीं चाहते।

क्या ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाना और कानून बदलना जरूरी है? अगर ऐसा है तो राज्यसभा में विरोध क्यों हुआ?

देखिए जैसा मैंने पहले कहा, पुरुषार्थ से कुछ हासिल करना हमारे स्वभाव में नहीं है। बैकवर्ड क्लास के सांसदों की यह काफी पुरानी मांग है कि ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए। ये सारे लोग हर प्रधानमंत्री से संवैधानिक दर्जे की मांग करते रहे हैं। लेकिन मेरा कहना है कि अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग को संवैधानिक दर्जा मिला हुआ है। ये महज ऑफिस हैं। पुरानी सरकारों ने ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की मांग नहीं मानी। इस सरकार ने मान ली। लेकिन इसका विरोध किसी ने नहीं किया। उस दिन मैं सदन में नहीं था। इस विधेयक को सेलेक्ट कमेटी को नहीं भेजना चाहिए था। यह गलत किया।

मतलब आपका मानना है कि ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने संबंधी विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में नहीं भेजा जाना चाहिए था। इसे पारित हो जाना चाहिए था?

हां, बिलकुल। इसे पास हो जाना चाहिए था। मुझे नहीं मालूम किसने इसका विरोध किया। यह तो भाजपा सांसदों की ही मांग थी और सरकार ने इसे मान लिया था। वैसे सरकार को करना यह चाहिए कि जितने भी कमीशन बनते हैं संविधान के तहत उन्हें ताकत देनी चाहिए।

उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण सही से लागू नहीं हो पा रहा है?

उच्च शिक्षा में जब अर्जुन सिंह ने ओबीसी आरक्षण लागू किया तो इसका विरोध जरूर हुआ, लेकिन उन्होंने सबके लिए सीटें बढ़ाई थीं। बैकवर्ड और जनरल सबकी सीटें बढ़ी थीं। इसके लिए बजट भी आवंटित किया गया। यह पैसा विश्वविद्यालयों को मिला था। लेकिन संस्थानों ने इस पैसे को अनाप-शनाप चीजों पर खर्च कर दिया। जेएनयू में सबसे बड़ा हाल इसी पैसे से बना है। 

क्या ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने से बैकवर्ड क्लास की स्थिति में सुधार आ सकता है?

इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। एससी, एसटी आयोग को यह दर्जा मिला हुआ है। सरकार बताए कि इन आयोगों के चलते कितनी समस्याओं का निवारण हुआ। सरकार आज तक जाति जनगणना के नतीजे तो सार्वजनिक कर नहीं पाई। दबे-पिछड़ों के साथ न्याय क्या करेगी।

क्या संवैधानिक दर्जा मिलने से नई जातियों को ओबीसी में शामिल करने की प्रक्रिया पर कोई असर पड़ेगा?

ओबीसी आयोग ज्यों का त्यों रहेगा। सिर्फ इसे संवैधानिक दर्जा मिल जाएगा। किसी जाति को शैक्षिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर ओबीसी में शामिल करने का पुराना तरीका ही लागू रहेगा। यह गलतफहमी है कि संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद आयोग के फैसलों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।

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