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मीरामय गीतों से गुलजार संगीत

भक्ति प्रधान फिल्मों में मीरा के भक्ति और प्रेम के संयोजन से बने गीतों ने खूब रंग जमाया
एमएस सुब्बलक्ष्मी अभ‌िनीत मीरा फ‌िल्म का कोई तोड़ नहीं

सत्तर के दशक में हिंदी फिल्मों में भक्ति प्रधान फिल्मों का भी बोलबाला रहा। इसी के चलते मीरा के भक्तिपूर्ण प्रेमभाव के कथानक के प्रति भी निर्माताओं का आकर्षण रहा है। ऐसी फिल्मों में मीरा द्वारा सृजित पदों को गीतों के रूप में प्रस्तुत करना न सिर्फ जरूरी था बल्कि फिल्म की अंतर्कथा का खास तत्व भी था। प्रेम, त्याग और श्रद्धा के गुणों से भरे हुए मीरा के चरित्र को उभारने में कथानक से ज्यादा उन गीतों का योगदान रहा। 

हिंदी फिल्मों के बोलती फिल्मों के दौर में मीराबाई पर बनी पहली फिल्म सागर मूवीटोन की जुबेदा और जाल मर्चेंट अभिनीत मीराबाई (1932) थी। इस फिल्म का संगीत एस. पी. राणे ने दिया था। हालांकि फिल्म में 19 गीत थे जिनमें 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’, 'नाथ तुम जानत हो घट की’, 'दरस बिन दूखन लागे नैन’ जैसे पारंपरिक भजन भी शामिल थे। अफसोस ये गीत अब कहीं नहीं मिलते। सन 1945 में तमिल में बनी फिल्म मीरा (1947) हिंदी में भी परदे पर आई और इसमें एम.एस. सुब्बलक्ष्मी ने अभिनय भी किया और लगभग सभी गीत गाए। मीरा के भजनों को गीत रूप में ढालने वाले पंडित नरेंद्र शर्मा थे। संगीतकार थे एस. वी. वेंकटरमण, रामनाथ और नरेश भट्टाचार्य। इस फिल्म की खासियत एम.एम. सुब्बलक्ष्मी की अप्रतिम गायकी थी। 'बसो मोरे नैनन में नंदलाल’ की शास्त्रीय हरकतें, 'चाकर राखोजी’ की छोटी तानों से भरी अभिव्यक्ति, 'घनश्याम आया री’ की तल्लीनता, 'मेरे तो गिरधर गोपाल’ का खमाज आधारित सौंदर्य, 'गिरिधर गोपाला चाला’ का कर्नाटक शैली का उद्गार, 'मैं हरि चरणन की दासी’, 'वृंदावन कुंज भवन नाचत गिरधारी’, 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे’ जैसे गीतों का माधुर्य इस फिल्म के संगीत को सुब्बलक्ष्मी की यादगार प्रस्तुति के रूप में स्थापित करते हैं।

सन 1947 में ही शालीमार पिक्चर्स, पुणे के डब्ल्यू. जेड. अहमद द्वारा निर्देशित मीराबाई फिल्म भी प्रदर्शित हुई जिसके गीत रूपांतरकर्ता पंडित भरत व्यास थे और संगीतकार एस.के. पाल थे। फिल्म के सभी गीतों को स्वर दिया था कानपुर की सितारा ने। 'कौन गली गयो श्याम’ में बांसुरी के सुंदर प्रयोग और कीर्तन जैसे वाद्य संयोजन के साथ ठुमरी मिश्रित भजन की शैली से एक उत्कृष्ट रचना का निर्माण एस. के. पाल ने किया था। पर पाल द्वारा संगीतबद्ध भजन सुब्बलक्ष्मी द्वारा गाए मीरा के भजनों के सामने टिक नहीं पाए। आखिर परदे पर अभिनेत्री नीना, सुब्बलक्ष्मी वाली शास्त्रीयता और पावनता कहां से ला पातीं?

रणजीत मूवीटोन की केदार शर्मा निर्देशित और दिलीप कुमार तथा नर्गिस अभिनीत जोगन (1950) में भी मीराबाई रचित कुछ भजनों को संगीतकार बुलो सी. रानी ने बड़ी खूबसूरती से संगीतबद्ध कर गीता दत्त से गवाया था। जैसी सहजता इन गीतों में आई है, उनकी पुनरावृति हिंदी फिल्मों में फिर कोई नहीं कर पाया। सितार के सुंदर प्रयोग के साथ कहरवा में, 'घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे’ और 'जोगी-मत जा मत जा’ को गीता ने इस सहज प्रवाह से गाया कि गानों में हम पहले डूबते हैं और बाद में सोचते हैं कि पहला गीत दरबारी से अधिक जौनपुरी लगता है और दूसरी रचना भैरवी आधारित है। इसी तरह संभवत: बिलावल थाट पर आधारित, 'ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ की तरंगों के बीच एकतारे का बड़ा सम्मोहक प्रयोग है। जोगिया आधारित, 'उठ तो चले अवधूत’, 'मैं तो गिरधर के घर जाऊं’ और 'प्यारे दर्शन दीजो आज’ भी बड़े सुंदर गीत थे। विडंबना कि हम इन गीतों को भूल गए हैं।

1955 के चित्रभारती, मुंबई से निर्मित राजरानी मीरा (1956) में एस. एन. त्रिपाठी ने सुंदर धुनों की रचना की थी पर गीत लोकप्रिय नहीं हुए। परंपरा से हट कर तेज गति से सृजित, 'पायोजी मैंने राम रतन धन पायो’ (गीता, साथी), 'मैं तो हरि से प्रीत करूंगी’ (लता), 'आओ रे हे गिरधारी’ (लता), 'मोहे लागी लगन हरि चरनन की’ (लता), 'दूखन लागे नैन दरस बिन’ (लता), भैरवी आधारित 'तेरे संग प्रीत किए दुख होई री’ (लता) जैसे गीतों में एस. एन. त्रिपाठी की लाक्षणिक रस की सृष्टि वैसे हर जगह नजर आती है।

गुलजार निर्मित मीरा (1979) के संगीत के लिए पंडित रविशंकर को चुना गया था। कारण जो रहा हो पर लता इस फिल्म में गाने को तैयार नहीं हुईं तब रविशंकर ने वाणी जयराम से गवाया। शास्त्रीय संगीत का राजस्थानी संदर्भ में भजनों के लिए उपयोग वाकई सुंदर था और यमन आधारित, 'जो तुम तोड़ो पिया’, भैरवी आधारित 'श्याम मेरे चाकर राखोजी’, गुजरी तोड़ी पर सृजित, 'ए री मैं तो प्रेम दीवानी’, खमाज आधारित 'मेरे तो गिरधर गोपाल’, जयजयवंती आधारित 'प्यारे दर्शन दीजो’, गुजरी तोड़ी पर आधारित 'बाला मैं बैरागन’ मल्हार आधारित 'बादल देख डरी’ और देस आधारित 'मैं सांवरे के रंग’ जैसे गीत बहुत अच्छे बने। 'ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ की रेकॉर्डिंग के समय तो रविशंकर ने वाणी जयराम से आठ-आठ बार 'ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ और 'मेरा दर्द न जाने कोय’ पंक्तियों को ऊंची पट्टी पर गवा कर एक साथ ऐसा मिलाया कि अचंभित करने वाला इको इफेक्ट पैदा हो गया। फिल्म असफल रही और इन गीतों को भी अधिक लोकप्रियता नसीब नहीं हुई। एक अच्छी बात यह हुई कि वाणी जयराम को इन गीतों के लिए फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ गायिका का पुरस्कार मिला था। मीरा के कई पदों का कभी पूर्ण रूप से तो कभी आंशिक रूप से कुछ ऐसी फिल्मों में भी प्रयोग हुआ जिनका कथानक मीरा पर केंद्रित न होकर अलग था। जैसे नौबहार (1952) के रोशन द्वारा शुद्ध निषाद के प्रयोग के साथ राग भीम पलासी पर आधारित, 'ए री मैं तो प्रेम दीवानी’ (जिसे लता ने 1967 में अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में स्थान दिया), झनक झनक पायल बाजे (1955) के भैरवी आधारित, 'जो तुम तोड़ो पिया मैं नाहीं तोड़ूं’ (लता-वसंत देसाई) और आंदोलन (1975) के जयदेव द्वारा बेहद सशक्त तरीके से कंपोज किए गए 'पिया को मिलन कैसे होई रे मैं जानूं नाही’ (आशा) तो हिंदी फिल्म संगीत के सदाबहार गीतों के रूप में हमेशा प्रतिष्ठित रहेंगे।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)

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