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अब 'महामहिम’ के लिए बजेगा बिगुल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निर्भर करेगा 'तुरुप’ का पत्ता
मुरली मनोहर जोशी समेत अन्य संभाव‌ित उम्मीदवार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ

विधानसभा चुनावों के परिणाम के साथ रायसीना हिल्स पर रखे राष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठने-बैठाने के लिए स्वर संगीत शुरू। अमृतसर से बनारस तक बजते रहे ढोल और शंख से इक_ïी शक्ति की परीक्षा राष्ट्रपति चुनाव में होगी। आजादी के बाद पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के चुनाव के लिए राष्ट्रीय राजनीति में अंदर-बाहर मंथन,खींचतान, विवाद, जोड़-तोड़, असंतोष, दलीय विद्रोह तक की गतिविधियां होती रही हैं। निश्चित रूप से केंद्र में सत्ताधारी पार्टी और प्रादेशिक स्तर पर विधानसभाओं में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दलों का वर्चस्व रहता है लेकिन यह भी नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। 1950 में स्वतंत्र गणतंत्र घोषित होने के बाद संविधान सभा ने सर्वसम्‍मति से डॉ. राजेंद्र प्रसाद को चुना। लेकिन इतिहास साक्षी है कि इस चुनाव से पहले भी कांगे्रस के शीर्ष नेताओं सी. राजगोपालाचारी (आजादी के बाद बने पहले गवर्नर जनरल), पं. जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद और तनाव का अल्पकालिक दौर आया। यह विवाद सार्वजनिक हुआ कि इस पद पर राजाजी बैठें या राजेंद्र बाबू? राजेंद्र बाबू के पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नेहरू के साथ वैचारिक-नीतिगत मतभिन्नता का रिकार्ड दोनों के बीच हुए पत्राचार में भी उपलब्‍ध है। यही नहीं 1957 के चुनाव में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की उम्‍मीदवारी पर तो गंभीर मतभेद और तनाव दिखाई दिया। वे देश में संविधान निर्माता एवं प्रतिष्ठित राजनेता थे। आखिरकार राजेंद्र बाबू ही स्वीकारे गए। फिर नीलम संजीव रेड्डïी की उम्‍मीदवारी पर 1969 और 1977 में बड़ी राजनीतिक खींचातानी हुई। 1969 में तो श्रीमती इंदिरा गांधी की दृढ़ता एवं बड़े समर्थन के कारण कांगे्रस पार्टी तक विभाजित हुई और नीलम संजीव रेड्डïी पराजित हो गए। संभवत: अब तक के इतिहास में वह चुनाव सर्वाधिक संघर्ष और कटुता से भरा था। उनके समर्थकों ने 1977 में इंदिरा गांधी की बड़ी चुनावी पराजय के बाद प्रतिशोध लिया और रेड्डïी राष्ट्रपति चुने गए। इस अपवाद को छोडक़र पिछले 70 वर्षों के दौरान कोई ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर नहीं पहुंचा, जिसने स्वयं सपना पालकर जोड़-तोड़ की हो। अधिकांश ने तो इस पद पर पहुंचने की कभी इच्छा या कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें अपने असाधारण सामाजिक, राजनीतिक और वैयक्तिक योगदान के आधार पर एक या कई पार्टियों ने मिलकर राष्ट्रपति पद पर आसीन किया। इसी तरह सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाले हर राष्ट्रपति ने संवैधानिक आदर्शों, परंपराओं और निष्पक्षता के साथ अपना दायित्व निभाया। यह माना जाना चाहिए कि दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में सत्ता, प्रतिपक्ष, न्यायपालिका, सेना और जनता का ऐसा कोई संरक्षक नहीं है।

इस पृष्ठभूमि में 2017 का राष्ट्रपति चुनाव ऐतिहासिक होगा, क्‍योंकि पहली बार भारतीय जनता पार्टी और उसके एकछत्र नेतृत्वकर्ता नरेन्द्र मोदी अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों-आदर्शों के अनुरूप किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनवाएंगे। इस सफलता के लिए भी उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनाव बेहद महत्वपूर्ण थे। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान राज्यों के विधायकों के मतों की मूल्य शक्ति 5,49,474 है और सर्वाधिक ताकत उ.प्र. के 83,824 मतों की है। इसके बाद महाराष्ट्र (50,400), पश्चिम बंगाल (44,394), बिहार (42,039), आंध्र-तेलंगाना (43,512) और तमिलनाडु (41,184) की मत शक्ति निर्णायक भूमिका निभाएगी। लोकसभा-राज्य सभा की 5,49,408 मत शक्ति में भाजपा के पास बहुमत है और राजनीतिक चातुर्य एवं कुछ हद तक सौदेबाजी से कुछ अन्य पार्टियों के सांसदों, विधायकों का समर्थन प्राप्त किया जा सकेगा। इसलिए पूरे देश की नजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लगी हुई है, क्‍योंकि इंदिरा गांधी के बाद वह सबसे शक्तिशाली राजनेता के रूप में अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरगामी हितों की दृष्टि से अपने पसंदीदा विश्वसनीय व्यक्ति को राष्ट्रपति बनवाएंगे। पार्टी में उन्हें चुनौती देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है।

शरद यादव के साथ व‌िपक्षी दलों के नेता

सो, मिलियन नहीं 125 करोड़ का सवाल है-'मोदी किसको बनाएंगे राष्ट्रपति’? यह भेद जो महारथी जानता हो, सचमुच वह रातोंरात करोड़पति बन सकता है क्‍योंकि नया राष्ट्रपति आने वाले महीनों में अति महत्वपूर्ण सुरक्षा, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों, विवादों, कानूनों, शीर्ष संवैधानिक पदों की नियुक्तियों पर अंतिम मुहर लगाने के साथ 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद नई सरकार बनाने का निमंत्रण यही राष्ट्रपति देंगे। पहले ऐसे अवसर आए हैं, जब  स्पष्ट जनादेश आने पर राष्ट्रपति ही किसी नेता को निमंत्रण देकर सदन में बहुमत साबित करने को कह देते हैं। इसी तरह राज्यपालों की नियुक्ति या बर्खास्तगी, न्यायपालिका और सेना से जुड़े मामलों में राष्ट्रपति की अनुमति अनिवार्य होती है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस दृष्टि से बहुत योग्य एवं  अनुभवी व्यक्ति का चयन करना होगा। याद करें, अटलजी के सत्ताकाल में डॉ. ए.पी.जे. अब्‍दुल कलाम के नाम पर व्यापक सहमति बनने में आसानी हो गई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शैली सदा चौंकाने वाली रही है। वह राजनीति से हटकर किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम भी अपनी पार्टी और अन्य दलों के सामने रख सकते हैं। वह विज्ञान, शिक्षा, दर्शन, योग, संविधान या सुरक्षा क्षेत्र से भी हो सकता है। जहां तक भारतीय जनता पार्टी के अनुभवी नेताओं की बात है, पूर्व पार्टी अध्यक्ष और अटल सरकार में रहे वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। यों उन्हें मार्गदर्शक मंडल में रखा गया है, लेकिन संसदीय मामलों में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। हाल में उन्हें पद्म पुरस्कार से भी सम्‍मानित किया गया है और संघ के संगठन और विचारों से जुड़े रहते हुए अन्य दलों में भी उन्हें सम्‍मान मिलता है। इसी तरह दूसरा बड़ा नाम पार्टी की प्रखर नेत्री और विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज का है। लगभग 40 वर्षों से उन्होंने बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक चुनौतियों को स्वीकारा, उत्तर से दक्षिण तक के चुनाव लड़ीं। हिंदी-अंगे्रजी ही नहीं संस्कृत और कुछ भारतीय भाषाओं पर उनका अधिकार है। 2014 से पहले उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार भी माना जाता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी का नाम तय होने और भारी बहुमत के बाद उन्होंने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से विदेश मंत्री का दायित्व निभाया। प्रधानमंत्री ने एक-दो अवसरों पर सार्वजनिक रूप से सुषमाजी की सराहना की। फिलहाल उनके नाम के साथ स्वास्थ्य की समस्या जुड़ सकती है और उनकी स्वयं की इच्छा एवं स्वीकृति पर भी निर्भर है। महिला नेत्री के रूप में लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन भी अनुभवी एवं योग्य मानी जाती हैं। लोकसभा के सात चुनाव जीतना कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन उनका नाम आने पर लोकसभा अध्यक्ष चुनने की नई कठिनाई सामने आ सकती है। दक्षिण भारत की राजनीतिक आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर पार्टी के पूर्व अध्यक्ष एवं अनुभवी केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू के नाम को भी एक वर्ग ने आगे बढ़ाया हुआ है। इसी प्रकार दलित चेहरे के रूप में मध्यप्रदेश के वरिष्ठ नेता थावरचंद गहलोत का नाम भी स्वीकार्य हो सकता है।

सोन‌िया गांधी के साथ शरद यादव

यों राष्ट्रपति पद के चुनाव में पहले उप राष्ट्रपति पद पर आसीन नेता को भी जिम्‍मेदारी मिलने के अवसर आए हैं। इसलिए विभिन्न दलों के सर्वमान्य नेता के रूप में उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का नाम भी विचारार्थ रह सकता है। लेकिन भाजपा के साथ संघ की सहमति को लेकर सबसे बड़ी बाधा दिखाई देती है। दूसरी तरफ ऐसे महत्वपूर्ण चुनाव में प्रतिपक्ष से विचार-विमर्श की परंपरा भी रही है। प्रतिपक्ष में कांगे्रस, जनता दल (यू), तृणमूल कांगे्रस, समाजवादी पार्टी, द्रमुक या अन्नाद्रमुक, बहुजन समाज पार्टी जैसे विभिन्न दलों के बीच विचार-विमर्श करना होगा। पिछले महीनों के दौरान सरकार और प्रतिपक्ष के बीच गंभीर टकराव रहने से यह उम्‍मीद कम ही है कि किसी राजनेता पर सर्वानुमति बने। इस परिस्थिति में प्रतिपक्ष एक अनुभवी नेता को राष्ट्रपति पद के चुनाव में अपना उम्‍मीदवार बना सकता है। राजनीतिक गलियारों में 1974-75 से राजनीतिक संघर्षों और चुनावों में अग्रणी रहने वाले शरद यादव का नाम सर्वोपरि है। जे.पी. आंदोलन के समय वह जेल में रहकर लोक सभा चुनाव लड़े और विजयी रहे। कांगे्रस नेता परिवार में जन्म के बावजूद समाजवादी विचारों से जुड़े होने के कारण जनता पार्टी, लोक दल, जद (यू) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के अलावा वह अटल सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, देवेगौड़ा, शरद पवार के साथ पुराने संबंधों के अलावा श्रीमती सोनिया गांधी एवं ममता बनर्जी के साथ भी उनका अच्छा संवाद रहा है। बिहार में जद (यू) और कांगे्रस की साझेदारी में भी उनकी भूमिका रही है। मतभेदों के बावजूद भाजपा में भी कई वरिष्ठ नेताओं से उनके संबंध आज भी बहुत अच्छे हैं। मतलब, राष्ट्रपति चुनाव भी पूरे जोर-शोर और राजनीतिक दांव-पेंच के साथ संपन्न होगा। लोकतांत्रिक सत्ता संतुलन का यह अध्याय भी दिलचस्प और ऐतिहासिक बनने वाला है।

 

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