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मध्यप्रदेश कांग्रेस में अब आगे क्या?

राज्य में नेता प्रतिपक्ष का पद एक बार फिर से अजय सिंह को सौंपा गया, हालांकि डेढ़ साल बाद चुनाव में कौन पार्टी का नेतृत्व करेगा यह यक्ष प्रश्न है
मध्यप्रदेश  कांग्रेस के बड़े नेता एक मंच पर

मध्यप्रदेश में नेता प्रतिपक्ष की असामयिक मौत के बाद एक बार फिर विधानसभा में कांग्रेस की कमान स्व. अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह के हाथ में है। पिछली बार जमुनादेवी के निधन के बाद अजय सिंह नेता प्रतिपक्ष बने थे, तो इस बार सत्यदेव कटारे की लंबी बीमारी के चलते हुई मौत के बाद अजय सिंह फिर नेता प्रतिपक्ष के पद पर आसीन हुए हैं। पिछली बार उन्हें ढाई सालका मौका मिला था। लेकिन कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई थी। इस बार उन्हें 2018 के विधानसभा चुनाव के ठीक डेढ़ साल पहले साढ़े 13 साल से मध्यप्रदेश में काबिज भाजपा के हाथ से राज्य की सत्ता झपटने की हिमालयी चुनौती मिली है। लंबे ऊहापोह के चलते सिंह की ताजपोशी के बाद सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है कि कांग्रेस के मिशन 2018 के लिए चुनावी कमान किसके हाथ आएगी? ज्योतिरादित्य सिंधिया या कमलनाथ या फिर सिंधिया और कमलनाथ साथ-साथ?
भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अगुआई में मिशन-2018 की तैयारियां तीन महीने पहले से ही शुरू कर दी हैं। कांग्रेस को भाजपा की चुनौतियों से पार पाने के लिए कम से कम दो वर्ष का वक्त चाहिए था। लेकिन चुनावी तैयारियों में 6 महीने पीछे चल रही कांग्रेस की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए कांग्रेस आलाकमान उत्तर प्रदेश के चुनाव के साथ ही सक्रिय हो चले हैं। बीते 13 सालों में भाजपा ने प्रदेश में अपनी पैठ हर गांव और बूथ तक बना ली है। इसके विपरीत यूपीए-2 के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस का गांव और बूथ तो छोडि़ए आम लोगों से कनेक्शन बेहद कमजोर हो गया है। इसकी बहाली के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने राज्य की धरती को पदयात्रा से नापने की भरसक कवायद की है। लेकिन विधानसभा का मोर्चा सत्यदेव कटारे की लंबी बीमारी के चलते बिखरा रहा। फिर अरुण यादव की पदयात्रा भी कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव के चलते जनता के दिलो-दिमाग पर गहरी छाप नहीं छोड़ सकी। गौरतलब है कि 2013 के चुनावों के पहले अजय सिंह ने भी परिवर्तन यात्रा के जरिए मध्यप्रदेश की जमीन नापने की कवायद की थी। हालांकि तब भी गुटबाजी के चलते न तो परिवर्तन यात्रा पूरी हो सकी और न सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया में ही कांग्रेस को कामयाबी मिल सकी। उलटे 2008 के मुकाबले कांग्रेस की सीटें 71 से घटकर 58 पर आ गईं। 2003 में यह मात्र 38 थी।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस को दुर्दशा की स्याह खोह से बाहर निकालने के लिए पार्टी के दो बड़े क्षत्रप बड़ी बेताबी से हाईकमान के इशारे का इंतजार कर रहे हैं। इनमें एक हैं कांग्रेस के युवातुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरे हैं अनुभव और उम्र के लिहाज से काफी बड़े कमलनाथ। दोनों नेताओं को लगता है कि वे अकेले अपने बूते पर कांग्रेस की नैया पार लगा देंगे। लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सियासत का मिजाज और फितरत कहती है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। कांग्रेस प्रदेश में सत्ता में तभी लौटी है जबकि कमोबेश गिरोहों में बंटी कांग्रेस का मजबूत गठजोड़ बना है। लेकिन बीते 3 चुनावों से तो बाकी धड़े उसको निपटाने का खेल खेल रहे हैं, जिसके हाथ में प्रदेश कांग्रेस की कमान है। 2003 में बाकी धड़ों ने दस साल से सता रहे दिग्विजय सिंह को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस की लुटिया डुबो दी थी। हालांकि इसमें दिग्विजय सिंह का खुद भी कम योगदान नहीं था। लोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं लेकिन दिग्गी राजा ने तो मानो कुल्हाड़ी पर ही पैर मारे। इसके बाद दिग्गी के धुर विरोधी सुभाष यादव को प्रदेश कांग्रेस की कमान दी गई। लेकिन चुनाव आते-आते केंद्रीय राज्यमंत्री के प्रभार से मुक्त करते हुए आलाकमान ने अपने पंडित नेता सुरेश पचौरी पर दांव खेला। चुनाव हारने के बाद दस साल के राजनीतिक वनवास की बात कहने वाले दिग्विजय सिंह कहने को खुद को प्रदेश की राजनीति से दूर रखे रहे लेकिन उन्होंने इस बात की पूरी चिंता की कि पचौरी की अगुआई में पार्टी चुनाव नहीं जीत पाए। इस राजनीति के चलते 5 साल में तीसरे मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी की खुली बगावत के बावजूद कांग्रेस को ढेर करने में कामयाब हो गए। इसके बाद कांतिलाल भूरिया और अजय सिंह की अगुआई में 2013 का चुनाव लड़ा गया। लेकिन भूरिया को पचौरी से भी खराब हार का सामना करना पड़ा। पचौरी विधानसभा का चुनाव हारे तो कांतिलाल भूरिया लोकसभा का। हालांकि दिलीप सिंह भूरिया के निधन के बाद कांतिलाल एक बार फिर उपचुनाव जीतकर संसद जा पहुंचे हैं। लेकिन पचौरी को अब भी ठौर पाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। वैसे देखा जाए तो सुरेश पचौरी ही एकमात्र नेता हैं जिनका ज्योतिरादित्य सिंधिया से बेहतर समीकरण है तो कमलनाथ से भी रिश्ते ठीक हैं। लेकिन सिंधिया की राह रोकने के लिए दिग्विजय खेमे ने कमलनाथ को दांव पर लगा रखा है। जहां तक दिग्गी राजा का सवाल है तो उनकी सूबे की राजनीति में लौटने की कोई ललक नहीं है। लेकिन वह अपने बेटे जयवर्धन सिंह के भविष्य को सुरक्षित करके चलना चाहते हैं। बस इसी के चलते न तो उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया पसंद हैं और न अरुण यादव। लेकिन 10 जनपथ के जानकारों की बातों पर यकीन किया जाए तो कांग्रेस आलाकमान मध्यप्रदेश में कांग्रेसी क्षत्रपों की अदावत के मर्ज को समझ गया है। अजय सिंह को 2013 की हार के बावजूद नेता प्रतिपक्ष की कमान देकर उसने दिग्विजय सिंह को शांत हो जाने का साफ संकेत दे दिया है। अजय सिंह रिश्ते में दिग्विजय सिंह के भांजा दामाद हैं। इस पद के दावेदारों में कमलनाथ समर्थक बाला बच्चन दौड़ में थे तो सिंधिया कैंप से महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और रामनिवास रावत की भी दावेदारी थी। लेकिन अजय सिंह की ताजपोशी से साफ है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव की कुर्सी खतरे में है। 2008 के चुनावों के डेढ़ साल पहले उनके पिता स्व. सुभाष यादव को जिस तरह हटाया गया था कमोबेश वैसी ही तलवार उनके बेटे अरुण यादव के सिर पर लटक रही है। इसकी वजह बिलकुल साफ है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य दोनों ही अपनी जगह बनाने के लिए यादव के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं और दूसरी बात यह है कि यादव की ऐसी छवि नहीं है कि जिससे वह शिवराज का मुकाबला कर सकें। बीच में यह कवायद भी चली थी कि यादव, सिंधिया और पचौरी की तिकड़ी शिवराज के मुकाबले खड़ी की जाए। लेकिन कर्महीनता के अहंकार की जकडऩ के चलते यह मुमकिन नहीं हो पाया। अब हाईकमान अजय सिंह के साथ पचौरी, सिंधिया और कमलनाथ की चौकड़ी को भाजपा के सामने उतारने के मूड में है। बस यह तय होना बाकी है कि 2018 के चुनाव में कमलनाथ और सिंधिया की भूमिका क्या होगी? प्रदेश में कांग्रेस की लड़ाई लडऩे के लिए कांग्रेस आलाकमान को कुबेर कमलनाथ की जरूरत है तो जनता को लुभाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे ताजगी भरे चेहरे की भी उतनी ही दरकार है। पचौरी चाणक्य की भूमिका में इनके बीच सेतु का काम कर सकते हैं तो अजय सिंह क्षत्रियों को एकजुट करने के साथ ही यह भी सुनिश्चित करेंगे कि दिग्विजय सिंह कोई नया पेच न फंसाएं। हाईकमान को यह भी तय करना होगा कि वो प्रदेश कांग्रेस के मौजूदा प्रभारी मोहन प्रकाश के भरोसे ही चले या फिर कोई और तेज-तर्रार प्रभारी खोजा जाए।
तमाम प्रतिकूलताओं के बीच कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण कोई जगा रहा है तो वे 2013 में जीते उसके युवा विधायक हैं। जीतू पटवारी से लेकर शैलेंद्र पटेल और तरुण भनोट से लेकर निलेश अवस्थी इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। फिर रामकृष्ण दोगने, संजीव उईके, हिना कावरे, जयवर्धन सिंह, संजय उईके, उमंग सिंघार, हनी सिंह बघेल जैसे युवा विधायक जमीन पर अच्छा संघर्ष कर रहे हैं। इसके विपरीत कांग्रेस के उम्रदराज हो रहे विधायक उतना होमवर्क नहीं करते हैं। बाला बच्चन और रामनिवास रावत जैसे पुराने नेता ही ऐसे हैं जो तैयारी के साथ सदन में भाजपा सरकार से दो-दो हाथ करते हैं। कुल मिलाकर देखें तो कांग्रेस यदि प्रदेश के क्षत्रपों के बीच बेहतर केमेस्ट्री बिठा पाती है तो भाजपा के लिए 2018 का चुनाव काफी कठिन साबित होने वाला है।

 

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