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बाघ गणनाः संख्या बढ़ी मगर सवाल भी उठे

ताजा गणना में बाघ तो बढ़े पर कई सवाल और आशंकाएं भी, नौ राज्यों में विलुप्त होने के कगार पर, कहीं बेकार न हो जाए 45 साल की मेहनत
ताजा गणना पर सवाल

बाघों की संख्या में इजाफा वाकई धमाकेदार खबर है। सिर्फ भारत के लिए नहीं पूरी दुनिया के लिए। सो 29 जुलाई अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर चौथी टाइगर गणना रिपोर्ट जारी करने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्साहित होने की वजह भी थी। उन्होंने कहा “बागों में बहार है.. अब बाघों में बहार होगा”। नई पद्धति से की गई गणना में बाघों की संख्या में 33 फीसदी का इजाफा दिखता है।  टाइगर की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 हो गई है। एक तो पद्धति की गणना पर सवाल है दूसरे  कई बाग ऐसे है जहां पर बहार नही बल्कि गर्दिशें ज्यादा है। इन्हीं बढ़े हुए आकड़ों के नाम पर अब कई ऐसे चीजे सरकारी महकमों में पक रही हैं, जो अगर अमल में लाई जाती हैं तो पिछले 45 साल की मेहनत बेकार हो सकती है। आइए पहले उन इलाकों पर गौर करें जहां गर्दिशें पसरी हुई हैं। देश के तीन राज्य (नागालैंड, मिजोरम, उत्तर पश्चिम बंगाल क्षेत्र) ऐसे हैं टाइगर खत्म हो गए हैं। वहीं झारखंड और गोवा जैसे राज्य में इनकी संख्या केवल पांच और तीन है। यही नहीं बिहार, आंध्रप्रदेश-तेलंगाना, ओडीसा, अरूणाचल प्रदेश और सुंदरबन क्षेत्र में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। इसी तरह तीन टाइगर रिजर्व बक्सा, डंपा और पालामऊ में एक भी टाइगर नहीं पाया गया है। जबकि चार राज्यों में 62 फीसदी टाइगर मौजूद हैं।  टाइगर का ये असमान वितरण न केवल कई सवाल खड़े करता है बल्कि यह भी बताता है कि कैसे कई राज्यों में कुप्रबंधन नहीं होने की वजह से टाइगर विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गए हैं। यही नहीं देश के आधे से ज्यादा टाइगर रिजर्व में सड़क, रेलवे आदि इंफ्रास्ट्रक्चर गतिविधियों में बढ़ोतरी से भी टाइगर की सुरक्षा पर खतरा बढ़ा है।

भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से एक है जहां टाइगर पाए जाते हैं। इसीलिए मुगल बादशाह जहांगीर से लेकर ब्रिटिश राजा किंग जार्ज पंचम तक ने इनके शिकार के जरिए अपनी बहादुरी दिखाने की कोशिशें की है। ऐसा अनुमान है कि 19 वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में 50 हजार से एक लाख टाइगर पाए जाते थे। लेकिन बेइंतहा शिकार की वजह से 1972 आते-आते देश में 1827 टाइगर ही बचे थे। उसके बाद से उनके संरक्षण के लिए 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट शुरू किया गया। प्रोजेक्ट के तहत उस समय देश के नौ टाइगर रिजर्व संरक्षित किए गए। आज इनकी संख्या 50 तक पहुंच गई है। 2006 से देश में हर चौथे साल टाइगर की गणना की जाती है। लेकिन पहली गणना में कई डरावने आंकड़े सामने आए। क्योंकि 1984 में टाइगर की संख्या 4000 के करीब पहुंच चुकी थी जो गिरकर 2006 में 1411 पर आ गई। घटती संख्या को देखते हुए 2010 में दुनिया के 12 देशों (भारत, रूस, चीन, नेपाल, भूटान, थाइलैंड, लाओस, म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, वियतनाम) ने रूस के सेंट्स पिट्सबर्ग ने 2022 तक टाइगर की संख्या को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया। उल्लेखनीय बात यह है कि भारत ने इस लक्ष्य को चार साल पहले ही पूरा कर लिया है। 2018 में ही भारत में टाइगर की संख्या 2967 हो गई है।

लेकिन इस बार की गणना में एक अहम बदलाव कर दिया गया है। 2014 में गणना के समय 18 महीने या उससे ज्यादा की उम्र वाले टाइगर को ही गणना में शामिल किया गया था। लेकिन 2018 में गणना की उम्र 12 महीने कर दी गई। ऐसे में वाइल्डलाइप एक्सपर्ट मौजूदा संख्या पर सवाल उठा रहे हैं। वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट रघु चंदावत का कहना है “ जब तुलना करने का पैमाना बदल गया है तो तुलना कैसे की जा सकती है। असल में 18 महीने से पहले टाइगर की मौत की दर कहीं ज्यादा होती है। इसलिए 18 महीने रखा जाता है। 12 महीने का मानक रखने से निश्चित तौर पर टाइगर की संख्या में 150-200 का अंतर आता है। यानी 2014 के मानक के अनुसार टाइगर की संख्या 2700 के करीब होगी। लेकिन यह बात समझनी होगी कि 1973 से अभी तक हम 900 टाइगर ही बढ़ा पाएं हैं।” वहीं प्रोजेक्ट टाइगर शुरू करने में अहम भूमिका रखने वाले वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट वाल्मीकी थापर का कहना है “देखिए 12 महीने से पहले टाइगर की मौत की दर 40-50 फीसदी होती है जबकि 12-18 महीने के बीच 15-20 फीसदी की दर होती है। देखिए उससे बड़ी बात यह है कि देश में टाइगर पर एक यह चर्चा कुछ लोगों ने शुरू कर दी है कि अब टाइगर की ज्यादा संख्या बढ़ाने की जरूरत नहीं है। यह अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गई है।” इस बात से रघु भी इत्तेफाक रखते हैं, उनका कहना है कि ऐसी चर्चाएं शुरू होना बहुत खतरनाक है। इस मामले में आउटलुक ने ग्लोबल टाइगर फोरम के सेक्रेटरी जनरल राजेश गोपालन से बात की तो उनका कहना है “देश में टाइगर की संख्या 3000 के करीब पहुंच गई है। इसमें से 25 फीसदी से ज्यादा टाइगर संरक्षित क्षेत्र से बाहर रह रहे हैं। इसकी वजह से टाइगर और मानव का संघर्ष बढ़ा है। कई जगहों पर टाइगर ने अपने रहन-सहन का तरीका भी बदल दिया है। जैसे उत्तर प्रदेश के पीलीभीत क्षेत्र में कई ऐसे टाइगर हैं, जो गन्ने की खेत में ही रह रहे हैं। इसके अलावा विकास के कार्यों की भी जरूरत है। ऐसे में संरक्षित क्षेत्र में हम उस स्तर पर पहुंच गए हैं, जहां हम बहुत ज्यादा टाइगर नहीं बढ़ा सकते हैं। ऐसे में हमें बेहतर प्रबंधन पर सोचना होगा। जिससे टाइगर का बेहतर संरक्षण हो सके। ”

हालांकि गोपालन की बात से भारतीय वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिक डॉ.वीई.वी.जाला इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका कहना है “ऐसा बिल्कुल नही है कि भारत में टाइगर की संख्या अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गई है। अभी कई ऐसे संरक्षित क्षेत्र हैं जहां पर टाइगर की संख्या बढ़ाई जा सकती है। पूर्वी घाट के क्षेत्रों में बहुत आसानी से यह संख्या बढ़ाई जा सकती है। जाला का कहना असली चिंता यह है कि देश के कई टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या इस स्तर पर पहुंच गई है कि अगर बेहतर प्रबंधन नहीं किया गया तो वहां से टाइगर विलुप्त हो सकते हैं। असल में किसी भी क्षेत्र में गिरकर 25-30 टाइगर की संख्या पहुंचने का मतलब है वहां पर उनके खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है। ” रिपोर्ट के अनुसार इस खतरे के कगार पर नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडीसा, छत्तीसगढ़, गोवा जैसे राज्य पहुंच गए हैं। जाला के कहते हैं एक समय हिमाचल प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों में टाइगर पाए जाते थे लेकिन आज वहां पर वह विलुप्त हो चुके हैं। घटती संख्या पर वाल्मिकी कहते है “आज इवेंट मैनेजमेंट पर ज्यादा जोर है। सवाल तो यह पूछना चाहिए कि जिन राज्यों ने खराब प्रदर्शन किया है, उन्होंने ऐसा क्यों किया। लेकिन इस पर चर्चा नहीं हो रही है। असल में सरकार के स्तर पर जिस बेहतर प्रबंधन की जरूरत है, वह अभी नहीं दिख रही है। हम इसी में खुश है कि टाइगर की संख्या 2967 पहुंच गई। लेकिन हमें यह नहीं पता है कि आगे पांच साल और 10 साल की योजना क्या है। अगर इस पर ध्यान नहीं देंगे तो यह संख्या घट भी सकती है। वाइल्ड लाइफ बोर्ड जिसके अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री हैं, उसकी पिछले छह साल में एक भी बैठक नहीं हुई है। केवल स्टैण्डिंग कमेटी की बैठक हो रही है। जिसका केवल प्रोजेक्ट क्लीयरेंस पर जोर है। ”  बढते प्रोजेक्ट क्लीयरेंस क्या खतरा बन सकते हैं, इस पर “मैनेजमेंट इफेक्टिवनेस इवैल्युएशन ऑफ टाइगर रिजर्व रिपोर्ट 2018” के अनुसार बढ़ते इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट की वजह से देश के 50 टाइगर रिजर्व में से करीब आधे रिजर्व में जो सड़क, हाइवे और रेल नेटवर्क विस्तार का काम चल रहा है। वह टाइगर के लिए खतरा हैं। इस पर जाला कहते हैं यह बात सही है “कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर खतरा बढ़ा है, नेपाल-भूटान से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सड़क प्रोजेक्ट्स पर खास ध्यान देने की जरूरत हैं। इन जगहों पर खतरा बढ़ने की आशंका है।”

ऐसा नही है कि इस बात के खतरे का अंदाजा सरकार के स्तर पर नही है “खुद नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्टैण्डिंग कमेटी की 47 वीं बैठक में इस बात को उठाया गया है। उसके अनुसार सड़कों और नहरों के चौड़ीकरण, रेलवे लाइन प्रोजेक्ट की वजह से जानवरों की मौत में इजाफा हुआ है, इसकी वजह से जानवरों के लिए बेहतर रास्ते का प्रबंधन करना जरूरी है।” इस मामले में समुदाय के साथ कैसे बेहतर तालमेल कर टाइगर का संरक्षण किया जा सकता है, उसका एक सफल उदाहरण राजस्थान के रणथंभौर में टाइगर वॉच संस्था के कन्जर्वेशन बॉयोलॉजिस्ट धर्मेंद्र खांडल का रहा है। उनका कहना है कि टाइगर की संख्या बढ़ने की प्रमुख वजह उसके शिकार को रोकने और सरकार के स्तर पर बदली सोच का परिणाम है। सरकार के स्तर पर वैज्ञानिक गणना पर तो जोर है, लेकिन प्रबंधन में वैज्ञानिक सोच की कमी है। नेशनल टाइगर कन्जर्वेशन अथॉरिटी को प्रोफेशनल बनाने की जरूरत है। अभी जंगलों में कई ऐसे वनस्पतियां पहुंच गई हैं। जिससे उन्हें नुकसान पहुंच रहा है। केवल पर्यटन के भरोसे आप लोगों को जोड़ नहीं सकते हैं। मनरेगा सहित दूसरी सरकार की योजनाओं को इसके तहत लिंक करना चाहिए, जिससे समुदाय बेहतर प्रबंधन कर सकता है। इसी जरूरत को देखते हुए हमने पचास लोगों की टीम बनाई जिसे हम 3000 से लेकर 11000 रुपये तक प्रतिमाह को वेतन भी देते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि टाइगर का संरक्षण बढ़ा।

दुधवा ने पेश की मिसाल

जंगलों में टाइगर की संख्या बढ़ाने में निगरानी का अहम महत्व रहा है। इसी के मद्देनजर दुधवा नेशनल पार्क में कई अहम कदम उठाए गए। जिसका परिणाम यह रहा कि बाघों की सुरक्षा बढ़ी। नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) और वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया द्वारा वन एवं वन्यजीवों की निगरानी और पेट्रोलिंग के लिए एक एंड्रॉइड एप्प विकसित किया गया जिसे एम-स्ट्राइप्स नाम दिया गया। जून 2018 से जून 2019 के बीच पार्क के फील्ड डायरेक्टर रहे रमेश पांडे की एम-स्ट्राइप्स को अमल में लाने में अहम भूमिका रही। उनका कहना है 'मॉनिटरिंग सिस्टम फॉर टाइगर्स-इंटेंसिव प्रोटेक्शन एंड इकोलॉजिकल स्टेटस' एक ऐसा निगरानी तंत्र  है, सरल शब्दों में कहें तो यह स्मार्ट पेट्रोलिंग का एक ऐसा तरीका है जिसमे प्रत्येक वनकर्मी अपनी गश्त के बारे में और गश्त के दौरान जंगल में उसे जो भी जानवर या चिन्ह मिलते हैं की समस्त जानकारी एम-स्ट्राइप्स एप्प में दर्ज़ कर सकता है।  इस प्रकार प्रत्येक वनकर्मी की गश्त को शामिल करते हुए एम-स्ट्राइप्स सॉफ्टवेयर की मदद से टाइगर रिज़र्व क्षेत्र की डिटेल पेट्रोलिंग रिपोर्ट तैयार की जा सकती है, जिससे यह पता चलता है कि टाइगर रिज़र्व के किन-किन क्षेत्रों में कब-कब और कितनी गश्त हुयी, और गश्त के दौरान जंगल में क्या-क्या दिखा। एम-स्ट्राइप्स का डेटा यह बता देता है की किस वनकर्मी ने कैसी गश्त की है, जिससे मेहनती वनकर्मियों को चिन्हित कर उनका उत्साहवर्धन करना संभव हो पाता है। इसका फायदा यह हुआ कि दुधवा में मात्र एक साल के भीतर टाइगर रिज़र्व में बाघ, हाथी और भालू की साईटिंग बढ़ गयी। शाकाहारी जानवरों की गणना के परिणाम भी उत्साहजनक आये।  दुधवा के कोर और बफर दोनों क्षेत्रों में बारासिंघा और पाढ़ा की ब्रीडिंग देखी गयी और कई महत्वपूर्ण क्षेत्र में शाकाहारी जीवों की हर्ड साइज़ में बढ़ोत्तरी देखी गयी।

निष्कर्ष 

कुल मिलाकर साफ है कि हमें केवल टाइगर की बढ़ी संख्या को देखकर अभी खुश होने की जरूरत नही है। अब हम उस स्तर पर पहुंच गए हैं जहां पर बेहतर प्रबंधन की जरूरत है। इसके अलावा असमान वितरण को कम करने के लिए सघन अभियान चलाना चाहिए। साथ ही विकास और संरक्षण के स्तर पर संतुलन बनाने की जरूरत है। अगर ऐसा होता है तब निश्चित तौर पर हम कह सकेंगे “बाघों में बहार है”।

 

 

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