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बजट में तो कोई स्ट्रक्चर ही नहीं दिखता

मोदी सरकार 2.0 के पहले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर बनाने के सपने दिखाए। इसकी हकीकत भला सबसे अधिक बजट पेश करने वालों में शुमार, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम से बेहतर कौन बता सकता है? इस कथित तौर पर नई परंपरा के बजट के तमाम पहलुओं पर उनसे संपादक हरवीर सिंह और एसोसिएट एडिटर प्रशांत श्रीवास्तव ने बातचीत की। पूर्व वित्त मंत्री ने आर्थिक सुधारों से लेकर अर्थव्यवस्था की स्थिति और बजट के प्रावधानों और आवंटनों के बारे में विस्तार से बताया। प्रमुख अंश:
पी. चिदंबरम

बजट कई परंपराओं को तोड़ता नजर आया है। मसलन, ब्रीफकेस की जगह फोल्डर और बजट भाषण में विभिन्न मदों में आवंटन का जिक्र नहीं है, इसे आप किस तरह देखते हैं?

अगर सरकार की इच्छा है कि बजट पेश करते वक्त अभी तक की चल रही परंपरा का पालन नहीं किया जाएगा, तो मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। लेकिन जब परंपरा को छोड़कर बजट पेश करने की इच्छा थी, तो वित्त मंत्री को यह कहना चाहिए था कि इस बार बजट भाषण नहीं होगा। कई देशों में इस तरह की परंपरा है। मगर, मेरी चिंता दूसरी है। देखिए, बजट भाषण भारत के लोगों के लिए दिया जाता है, जिसका उद्देश्य यह होता है कि देश के लोगों को बताया जाए कि सरकार कैसे उनके हितों के लिए काम करेगी। लेकिन अगर आप बजट भाषण में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक, संकट से जूझते किसानों के बारे में, स्वास्थ्य, शिक्षा और यहां तक कि रक्षा क्षेत्र में बजट आवंटन के बारे में जिक्र नहीं करेंगी, तो फिर बजट भाषण की क्या जरूरत थी ?

क्या यह अंतरिम बजट का एक्सटेंशन है?

अंतरिम बजट में एक स्ट्रक्चर था, लेकिन इस बजट में ऐसा कुछ नहीं है। इसमें जो आंकड़े लिए गए हैं वो मोटे तौर पर अंतरिम बजट जैसे ही हैं। सीधा मतलब है कि बजट बनाने की प्रक्रिया में वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने कोई नयापन नहीं रखा है। अंतरिम बजट फरवरी में पेश किया गया था। अभी हम जुलाई में खड़े हैं। इस समय तक सरकार के पास पहले से ज्यादा आंकड़े मौजूद हैं। लेकिन इन चीजों का बजट भाषण और उसके दस्तावेजों में कोई असर नहीं दिखता है, यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।

अर्थव्यवस्था में मंदी है, ऐसे में निवेश और खपत बढ़ाने के लिए क्या कदम ल‌िए गए हैं?

आर्थिक समीक्षा के अनुसार देश में विकास दर को पटरी पर लाने के लिए निजी निवेश बढ़ाने की वकालत की गई है। उसके अनुसार ऐसा होने से आठ प्रतिशत की ग्रोथ रेट हासिल की जा सकती है। लेकिन मुझे बजट में इस दिशा में ऐसा कुछ नहीं मिला, जिससे निजी निवेश में तेजी आ सके। इस तरह खपत बढ़ाने को लेकर भी दुविधा दिखती है। एक तरफ आर्थिक समीक्षा खपत को ग्रोथ के चार इंजनों में से एक मानती है, वहीं दूसरी तरफ कहती है कि खपत को कम करिए और निवेश को बढ़ाइए। ऐसे में मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार खपत बढ़ाना चाहती है या कम करना चाहती है?

वित्त मंत्री ने गांव-गरीब-किसान की बात कही है, क्या उसके लिए किए गए प्रावधान ग्रामीण संकट को दूर कर सकेंगे ?

ग्रामीण क्षेत्र की 20-25 प्रतिशत गरीब आबादी कच्चे मकान में रहती है, उनके पास शौचालय नहीं है, बिजली नहीं है और लोग दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। यदि यह आबादी इन परिस्थितियों में रहती है, तो बजट में इस समस्या से निकलने का रोडमैप पेश करना चाहिए था। जब तक आप ऐसा नहीं बताएंगे तब तक कोई कैसे भरोसा करेगा?

सरकार ने 2024-25 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य तय किया है, क्या यह संभव है?

पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने में कुछ भी नया नहीं है। यदि जीडीपी की वास्तविक दर आठ प्रतिशत पर रहती है, तो ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था हर छह साल में अपने आप दोगुनी हो जाएगी। इस गणित को एक साहूकार या आठवीं कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी जानता है। इसी तरह वह पांच साल में पांच लाख करोड़ डॉलर से 10 लाख करोड़ डॉलर हो जाएगी। यह किसी वित्त मंत्री को बताने की जरूरत नहीं है। सवाल यह है, कैसे आठ प्रतिशत की ग्रोथ रेट हासिल की जाएगी? इसका जवाब वित्त मंत्री के पास नहीं है।

आर्थिक समीक्षा चालू वित्त वर्ष में जीडीपी ग्रोथ रेट सात प्रतिशत रहने की तो बजट आठ प्रतिशत की बात करता है, विरोधाभास क्यों है?

इससे यह साफ जाहिर होता है, आर्थिक विभाग जिसके जिम्मे नीतियों पर सोचने का काम है और वित्त मंत्री का कार्यालय जो बजट बनाने का काम कर रहा था, उनके बीच सामंजस्य नहीं है। यानी वह आपस में ही बात नहीं कर रहे हैं।

बेरोजगारी सबसे बड़ी चुनौती है, क्या बजट से रोजगार के अवसर पैदा होंगे?

आर्थिक समीक्षा में रोजगार की समस्या को बहुत सही तरीके से चिन्हित करते हुए कहा गया है कि पिछले 10 साल में जिन 15 प्रतिशत छोटी कंपनियों ने तेजी से ग्रोथ हासिल की है, उन्होंने 77 प्रतिशत नौकरियों के अवसर उत्पन्न किए हैं। इसीलिए समीक्षा में ऐसी कंपनियों को महत्व देने की बात की गई है। लेकिन बजट इस दिशा में कदम उठाने को लेकर चुप है। मेरा मानना है कि वित्त मंत्री को बेरोजगारी पर हो रहे सवालों से दूरी बनाए रखने के लिए कहा गया है।

अगले पांच साल में इन्फ्रास्ट्रक्चर में 100 लाख करोड़ और कृषि क्षेत्र में 25 लाख करोड़ रुपये निवेश का लक्ष्य रखा गया है, यह पैसा कहां से आएगा?

सरकार के पास इसके लिए पैसा नहीं है। उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर में पांच साल में 100 लाख करोड़ निवेश करने का वादा अप्रैल में घोषणा-पत्र में किया था। अभी जुलाई आ चुकी है। इस दिशा में अभी तक कुछ नहीं किया गया। वित्त मंत्री कहती हैं कि मैं चाहती हूं कि ऐसा हो। इसके लिए एक समिति बनाई जाएगी जो हमें बताएगी, कैसे इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इसी तरह कृषि क्षेत्र के लिए बातें की गई हैं। किसी वित्त मंत्री को केवल यह बात बताने के लिए बजट भाषण में पैराग्राफ जोड़ने की क्या जरूरत थी?  शायद उन पर ऐसा कहने का दबाव था।

400 करोड़ रुपये तक टर्नओवर वाली कंपनियों के टैक्स में कटौती की गई है, वहीं सुपर रिच पर सरचार्ज बढ़ाया है। इसे आप कैसे देखते हैं?

सरकार यह सब करने का अधिकार रखती है। लेकिन अहम बात यह है कि देश की जनता जानना चाहती है कि 250 करोड़ से 400 करोड़ की सीमा करने से कितनी कंपनियां इस दायरे में आएंगी और कितनी बाहर रहेंगी। इसी तरह दो करोड़ और पांच करोड़ रुपये सालाना कमाने वाले पर सरचार्ज बढ़ाने से कितने लोग इस दायरे में आएंगे। मैं आपको बताता हूं कि पांच करोड़ से ज्यादा वाली श्रेणी में कुछ हजार लोग ही आएंगे।

राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 प्रतिशत रखा गया है, क्या यह आपको संभव लगता है?

पिछले साल कर राजस्व में 1.6 लाख करोड़ रुपये की कमी आई थी, मार्च में सरकार ने बड़े स्तर पर खर्च में कटौती कर राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल करने का दावा किया। लेकिन हकीकत में वह लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए। इस बार 3.3 प्रतिशत का लक्ष्य रखा है, इसके लिए वित्त मंत्री ने राजस्व प्राप्ति का बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। मेरा मानना है कि बजट दस्तावेज में लक्ष्य भरोसेमंद नहीं है। इसी तरह विनिवेश का लक्ष्य तब पूरा होगा जब वास्तव में विनिवेश हो। अगर पिछले साल की तरह एक सार्वजनिक उपक्रम दूसरे सार्वजनिक उपक्रम में हिस्सेदारी की खरीदार करेगा तो वह वास्तविक रूप से विनिवेश नहीं कहलाएगा।

विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने का अहम फैसला लिया गया है, क्या यह सही कदम है?

देखिए, विदेशी मुद्रा में कर्ज लेना सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं है। लेकिन एक्सचेंज रेट गिरने के अपने जोखिम होते हैं। देखना यह है कि सरकार किस ब्याज दर पर कर्ज लेती है। साथ ही उसे हेजिंग कॉस्ट भी देनी होगी। मुझे लगता है कि दोनों को मिलाकर घरेलू बाजार के स्तर पर ही कर्ज की लागत आएगी।

मेक इन इंडिया’  पर जोर दिया गया है, साथ ही उम्मीद की गई है कि बड़ी कंपनियां निवेश करेंगी, क्या ऐसा संभव हो सकेगा?

बड़ी कंपनियां तब आएंगी, जब देश में उनके लिए निवेश का माहौल बनेगा। इस समय अर्थव्यवस्था में कई ऐसे अनजाने फैक्टर हैं जिसको लेकर निवेशकों में संदेह है। कंपनियां निवेश करें इसे मैं भी पसंद करूंगा। लेकिन यह बात भी समझना जरूरी है कि केवल भारतीय अर्थव्यवस्था बेहतर करने से ही निवेश आ जाएगा, ऐसा नहीं है। मौजूदा परििस्थतियों में वह निवेश करने से पहले दो बार सोचेंगे।

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