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पुरानी पार्टी का क्या है भविष्य?

बेहतर और अलग भारत के विजन पर पार्टी काम करे तो वह तमाम क्षेत्रीय और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बीच पुल का काम कर सकती है और अपनी जगह भी वापस पा सकेगी
लोकसभा चुनाव में हार पर मंथन

देश की सबसे पुरानी पार्टी, कांग्रेस के शीर्ष पद से राहुल गांधी का इस्तीफा एक अध्याय की समाप्ति है। उनकी मां सोनिया गांधी 1998 में सीताराम केसरी की जगह पार्टी अध्यक्ष बनी थीं। वे 19 साल तक इस पद पर रहीं। सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस ने दो आम चुनाव जीते, लेकिन 2014 की हार के बाद यह स्पष्ट हो गया कि लंबे समय से जारी पार्टी के कमजोर होने का सिलसिला रुका नहीं है। सवाल सिर्फ यह नहीं कि गलती कहां हुई, यह भी है कि आगे क्या होगा। पिछले दो चुनावों में हर पांच में से एक (20 फीसदी) वोटर ने कांग्रेस का साथ दिया। 2014 के चुनाव में पार्टी को 44 सीटें मिली थीं, इस बार 52 सीटें मिली हैं।

आजादी के बाद 72 वर्षों में 55 साल तक कांग्रेस ने ही देश पर शासन किया है। इसके दो प्रधानमंत्री- जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी- ऐसे रहे जो तीन-तीन बार चुनाव जीते। 1950 के बाद देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने का श्रेय कांग्रेस को ही जाता है। गांधीजी के समय में कांग्रेस जनांदोलन का रूप थी। 1937 में अंग्रेजों के शासन के दौरान 11 प्रांतों में से आठ में यह सत्ता में थी। किसानों और मध्यवर्ग के साथ-साथ विभिन्न जाति, समुदाय और भाषा के लोगों को जोड़ने की क्षमता के कारण कांग्रेस ऐसी पार्टी बन गई थी, जिसे हराना मुमकिन नहीं लगता था।

छह दशक से लगातार घटी कांग्रेस

भौगोलिक रूप से कांग्रेस का सिकुड़ना लंबे समय से जारी है। तमिलनाडु में कांग्रेस ने आखिरी बार 1962 में विधानसभा चुनाव जीता था। 1972 में पश्चिम बंगाल में भी उसे आखिरी बार जीत मिली थी। उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में 1985 में आखिरी बार कांग्रेस सरकार बनी थी। महाराष्ट्र में अपने दम पर उसकी सरकार 1990 में बनी थी।

 1960 के दशक के अंत में गैर-कांग्रेस मोर्चे का उभरना पार्टी के लिए बुरा साबित हुआ। खासकर जनसंघ और समाजवादियों के साथ आने से। लेकिन 1971-72 तक इंदिरा गांधी ने उनकी जमीन कमजोर कर दी। उनके ‘गरीबी हटाओ’ नारे ने वोटरों को काफी आकर्षित किया। प्रिवीपर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदमों से लोगों को उनके ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ नारे पर भरोसा होने लगा। बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली इंदिरा गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘दुर्गा’ कहा था। 1977 में बुरी तरह हार के बावजूद कांग्रेस जल्दी ही सत्ता में लौट आई। इस बार उसे ऐसी जीत मिली मानो गरीबों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर उसकी पकड़ कभी ढीली पड़ी ही नहीं थी।

1984 में सिख विरोधी दंगे के बाद तो कहा जा रहा था कि सिर्फ कांग्रेस ही भारत को एकजुट रख सकती है। लेकिन अयोध्या और शाहबानो जैसे समुदाय विशेष के मुद्दों के उभरने और सांप्रदायिक फिजा बढ़ने के बाद तो कांग्रेस अपने विरोधियों के हिसाब से चलने लगी। शायद यही वजह है कि 1984 के बाद कांग्रेस को कभी बहुमत नहीं मिला।

1991-96 के दौरान आर्थिक और विदेश नीति के मोर्चे पर बड़े बदलाव हुए, लेकिन उत्तर भारत में पार्टी की लोकप्रियता तेजी से घटी। उत्तर प्रदेश में इसने दलित नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी की सहयोगी के रूप में कुल 400 से अधिक सीटों में से 100 से भी कम सीटों पर चुनाव लड़ा। 2004 में इसके नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी तो एक बात साफ थी कि कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए लंबा सफर तय करना होगा।

2009 में गठबंधन की सरकार दोबारा बनी, लेकिन कांग्रेस को भाजपा विरोधी पार्टियों को अपने साथ जोड़ने में लगातार जद्दोजहद करना पड़ा। जब तक अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी थी, लोगों को नौकरियां मिल रही थीं और किसानों को फसल के अच्छे दाम मिल रहे थे, तब तक यह रणनीति काम आई। लेकिन विकास दर धीमी होने के साथ कांग्रेस की स्थिति भी कमजोर होने लगी। 2012 में प्रियंका गांधी तीन हफ्ते तक अमेठी और रायबरेली में रहीं। इसके बावजूद इन दोनों संसदीय क्षेत्रों की 10 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस सिर्फ दो जीतने में कामयाब रही।

नेताओं में जमीनी संघर्ष का अभाव

कांग्रेस को 1967 तक आजादी के संघर्ष का फायदा मिला। कस्बों-छोटे शहरों से लेकर जंगल और खेत तक इसके कार्यकर्ता और नेता सामाजिक कार्य और राजनीतिक संघर्ष करते नजर आते थे। पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने अपनी किताब द इनसाइडर में इन बातों का जिक्र किया है। आज इन्हीं बातों का अभाव दिखता है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के ज्यादातर सदस्य ऐसे हैं जो लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकते। डॉ. मनमोहन सिंह 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे, लेकिन वे राज्यसभा सदस्य थे। किसान, आदिवासी, दलित या ओबीसी वर्ग से पार्टी के पास राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता नहीं है। जिस पार्टी के पास 1980 के दशक तक हर स्तर पर बड़े नेताओं की भरमार थी, आज उसके पास इस कद का कोई नेता नहीं है।

इंदिरा गांधी ने 1969-71 के दौरान क्षेत्रीय नेताओं के खिलाफ लड़ा था। इन नेताओं का गुट सिंडिकेट कहलाता था। 1976 में गुवाहाटी में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई। उस बैठक में इंदिरा ने अपने बेटे संजय गांधी की परोक्ष रूप से तारीफ की थी। दुर्घटना में संजय की मौत हो जाने के बाद उनके बड़े भाई राजीव गांधी पहले सांसद, फिर पार्टी महासचिव और अंततः पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बने। इंदिरा गांधी की तरह परिवार की बाद की पीढ़ियों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था। उन्हें विशेषाधिकार विरासत में मिला था। 1980 के दशक में वैसे तो पार्टी काफी मजबूत स्थिति में थी, लेकिन जमीनी स्तर पर यह धीरे-धीरे कमजोर हो रही थी।

1985 में मुंबई में कांग्रेस के शताब्दी वर्ष समारोह में राजीव गांधी ने काफी सख्त भाषण दिया। उन्होंने सत्ता के दलालों पर सीधा हमला किया। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं बदला। मंदिर आंदोलन उन पर भारी साबित हुआ और मंडल आंदोलन को भी वे नियंत्रित नहीं कर सके। उनके बाद पार्टी प्रमुख बने नरसिंह राव और सोनिया गांधी की कोशिश क्षेत्रीय दलों और मंडल-दलित समूहों को साथ लेने की रही। जब तक यूपीए सफल थी, हिंदुत्व की उभरती चुनौती से निपटने में उसकी नाकामी छिपी हुई थी। वाजपेयी थोड़े संकोची थे, लेकिन नरेंद्र मोदी की चुनौती सीधी थी। उन्होंने सत्तारूढ़ गठबंधन के घोटालों और पॉलिसी पैरालिसिस को लेकर हमला बोल दिया।

कांग्रेस इस बात को समझने में नाकाम रही कि इंदिरा सिर्फ अपने उपनाम की वजह से मजबूत नहीं थीं, बल्कि उनका रिकॉर्ड एक राष्ट्रवादी और जुझारू नेता का था। आखिरी दिनों में वे 1977 की तरह अजेय तो नहीं थीं, लेकिन जैसा 1984 में दिखा, उन्हें खत्म नहीं किया जा सकता था। अपनी मौत के बाद भी उन्होंने देश को पार्टी के साथ खड़ा कर दिया था।

कांग्रेस की इमेज अब देश को एकजुट रखने वाली पार्टी की नहीं रह गई है। 2008 के ग्लोबल आर्थिक संकट के बाद बड़े और सख्त आर्थिक फैसलों की जरूरत थी। जनहित और रोजगार बढ़ाने वाले आर्थिक फैसलों से कांग्रेस को मदद मिल सकती थी। इसने ऐसा किया भी, लेकिन बहुत देर से और बहुत कम किया।

इस बीच नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने दुनिया की सबसे सफल चुनावी मशीन के जरिए पूरा राजनैतिक परिदृश्य बदल दिया है। अब सवाल यह नहीं कि राहुल के बाद कौन‍? राहुल दो साल से कम समय के लिए पार्टी के शीर्ष पद पर रहे। महासचिव के रूप में उनका कार्यकाल ज्यादा रहा। इस दौरान वह ईमानदार और कई मौकों पर आक्रामक भी दिखे। लेकिन उनकी टोन और ऊर्जा में निरंतरता नहीं थी।

कांग्रेस को पीछे छूटे लोगों को जोड़ना होगा

कांग्रेस इस समय दोराहे पर खड़ी है। लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या पार्टी में प्रतिभाशाली लोगों के लिए वास्तव में जगह है। आगे कांग्रेस के पक्ष में दो बातें हैं। पहली बात तो यह कि देश को मजबूत विपक्ष चाहिए, वरना लोकतंत्र की आत्मा खत्म हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि कोई भी क्षेत्रीय या जाति आधारित पार्टी या वामपंथी दल मजबूत एंकर बनने की स्थिति में नहीं है। ये खुद संकट के दौर से गुजर रहे हैं। मोदी और शाह के नेतृत्व वाली भाजपा के सामने उनकी भी स्थिति खराब है। कांग्रेस खुद को एंकर की भूमिका में ला सकती है। लेकिन इस मौके को भुनाने के लिए कांग्रेस को बेहतर और अलग भारत के विजन पर काम करना पड़ेगा।

कांग्रेस को अपने और देश के इतिहास से इसमें मदद भी मिल सकती है। समावेशी भारत में लोकतांत्रिक विजन की अलग जगह है। यहां पीछे छूट गए लोगों को विशेष स्थान मिलता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ‘सबका साथ’ की बात कहें, हमारी अर्थव्यवस्था ऐसी है कि इसमें कुछ लोग पीछे छूटेंगे ही। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर बड़ा कदम उठाया है। लेकिन पार्टी को पूरी ताकत लगानी पड़ेगी। इससे कमतर कोई भी कोशिश उसे नाकाम बना देगी। देश को पार्टी के अगले कदम का इंतजार है।

(लेखक अशोका यूनिवर्सिटी, सोनीपत, हरियाणा में इतिहास और एन्‍वायरमेंटल स्टडीज के प्रोफेसर हैं)

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