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कैसे हासिल हो खोया वजूद

देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने संकट से निजात पाने का कोई तरीका ढूंढ़ पाएगी या इतिहास के पन्नों में समा जाएगी
कहीं कोई उम्मीदः लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा के लिए कांग्रेस कार्यकारिणी बैठक में सोनिया और राहुल गांधी, इसी बैठक में राहुल ने इस्तीफे की पेशकश की

लगभग बारह करोड़ वोट और लोकसभा में विपक्ष की पांत में सबसे अधिक 52 सदस्य! 2019 के लोकसभा चुनावों के आंकड़े तो कांग्रेस के अस्तित्व को नहीं नकारते। न ही पिछले दो साल में हुए गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के नतीजों से लगता है कि उसका वोटबैंक इतना थोड़ा होता जा रहा है कि उसकी पूंजी ही लुटती दिखे। लेकिन लोकसभा चुनावों में हार की जिम्मेदारी लेकर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे से जैसे समूची पार्टी दिशाहारा और लकवाग्रस्त दिखती है, उससे तो उसके भविष्य पर गहरे संकट का ही अंदाजा लगता है। यह इस कदर है कि वह मजाक और मखौल उड़ाने का विषय बनती जा रही है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) के विधायकों को तोड़ने के आरोप पर लोकसभा में सदन के उप-नेता, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चुटकी ली, “इस्तीफे की बयार तो समूची कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक बह रही है।”

यह बात अलग है कि कर्नाटक में चल रहा सत्ता का निर्लज्ज खेल जगजाहिर है और दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस में तोड़-फोड़ की कोशिशें जारी हैं, लेकिन असली सवाल यही है कि क्या लगातार दूसरी बार आम चुनावों की हार ने कांग्रेस के वजूद का मकसद ही छीन लिया है और उसका शिराजा बिखरने लगा है? फिलहाल तो कांग्रेस में शायद यह सोचकर ही दहशत-सी फैली हुई है कि गांधी परिवार की बैसाखी अब छिन रही है। अमूमन हमेशा जोशोखरोश से भरे दिखने वाले दक्षिण के एक वरिष्ठ नेता एक टीवी डिबेट में यह हैरानी जताते दिखे कि “क्या गांधी परिवार सचमुच हट जाएगा!” हालांकि थोड़ा संभलकर उन्होंने कांग्रेस की आगे की राह पर कुछ अस्पष्ट-सा कहा। दक्षिण में जहां हाल के चुनावों में केरल और तमिलनाडु में कांग्रेस में नई जान लौटने के प्रमाण मिले हैं, अगर वहां के नेता संशय में पड़े हैं तो बाकी राज्यों के कांग्रेसियों के संकट का अंदाजा लगाया जा सकता है।

ऊहापोह और घबराहट

कांग्रेस की यह ऊहापोह तो चुनाव में हार की समीक्षा के लिए 25 मई को कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक से शुरू हो गई, जब राहुल गांधी ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा सौंप दिया था। लेकिन ऊहापोह घबराहट में बदल गई जब 3 जुलाई को संसद पहुंचे राहुल ने पत्रकारों से कहा, “मैं अब अध्यक्ष नहीं हूं।” इसके फौरन बाद उन्होंने अपना पूरा इस्तीफा पत्र ट्वीट कर दिया और ट्विटर हैंडल भी बदल कर कांग्रेस सदस्य और सांसद कर दिया। अभी तक कांग्रेसी शायद इस उम्मीद में थे अंततः राहुल मान जाएंगे। उन्हें मनाने का आखिरी प्रयास कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों अमरिंदर सिंह, कमलनाथ, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, वी. नारायण सामी ने एक साथ किया। मगर राहुल अपने फैसले से डिगे नहीं। कथित तौर पर उन्होंने कहा, “जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।”

मोतीलाल वोरा, वरिष्ठ राष्ट्रीय महासचिव, कांग्रेस

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में ही नए अध्यक्ष का फैसला होगा। राहुल जी को हम सब लोगों ने समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने इस्तीफा दे दिया। यह भी कह दिया कि नया अध्यक्ष गांधी परिवार से न हो, इसलिए साफ है कि नया अध्यक्ष गैर-गांधी होगा। लेकिन यह भी साफ है ‌कि कांग्रेस संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ेगी। अक्टूबर में होने वाले महाराष्ट्र समेत चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मजबूती से लड़ेगी।

इसके पहले पार्टी सूत्रों के मुताबिक यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी उन्हें मनाने की कोशिश की। लेकिन उनका यही जवाब था कि “फैसला लेने के बाद अब मैं हास्यास्पद नहीं बनना चाहता।”

यह भी अहम है कि इस समय पार्टी में पूरा गांधी परिवार सक्रिय है। इसलिए यह आशंका तो बेमानी है कि नेतृत्व से पूरी तरह गांधी परिवार का साया हट जाएगा। लेकिन असली संकट शायद यही है कि कांग्रेस में बमुश्किल ही कोई नेता ऐसा है जिसकी पूरे देश में अपील हो या जिसे लोग सुनना चाहते हैं। फिर अगर राहुल गांधी यह सोच रहे थे कि उनके इस्तीफे के बाद सभी नेता अपनी जवाबदेही समझेंगे, तो वैसा कुछ नहीं हो पाया। ज्योतिरादित्य सिंधिया, हरीश रावत, मिलिंद देवड़ा और कुछ राज्य इकाइयों के नेताओं के ही इस्तीफे आए, जिससे पार्टी के ऊपरी ढांचे पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए इस कयास के भी अभी तक कोई खास संकेत नहीं मिलते हैं कि कामराज-2 योजना कांग्रेस का इंतजार कर रही है। साठ के दशक में पार्टी में नई जान फूंकने के लिए मशहूर कामराज योजना के तहत वरिष्ठ नेताओं को सरकार से हटाकर पार्टी संगठन के काम में लगा दिया गया था। लेकिन अब अगर ऐसा होता भी है तो जमीनी हालात बहुत बदल गए हैं, जिसके संकेत 2019 में तीन हिंदी प्रदेशों मध्य प्रदेश, राजस्‍थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी सरकारों के बावजूद बेहद खराब प्रदर्शन में मिले।

शायद इसी वजह से इस्तीफा-पत्र में राहुल का वह दुख झलकता है कि “मैं अकेले ही लड़ा।” उनकी नाराजगी हार के बाद कार्यकारिणी की बैठक में इस रूप में भी जाहिर हुई थी कि कुछ बड़े नेता अपने बेटों का सियासी कॅरिअर ही बनाने के फेर में पड़े रहे। उसके बाद कम से कम राजस्‍थान में तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच तकरार भी देखने को मिली। उसी समय राहुल ने स्पष्ट कर दिया था कि चाहे महीने-दो महीने का समय ले लें लेकिन नया अध्यक्ष चुन लें।

राहुल ने इस्तीफे में संवैधानिक संस्‍थाओं के संकट की ओर भी ध्यान खींचा और यह भी लिखा कि कैसे देश और संविधान को बचाने के लिए वे संघर्षरत रहेंगे। यानी उन्होंने मैदान नहीं छोड़ा है।

खैर! अब वह मुकाम भी आ गया है कि कांग्रेस को अगर अपना वजूद कायम रखना है तो उसे कोई तरीका निकालना होगा, जिससे पार्टी में जान फूंकी जा सके। फिलहाल वरिष्ठ नेताओं की तरफ से जो बयान आ रहे हैं, उससे शायद ही कोई उम्मीद बंधती है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पार्टी में 'नया खून' प्रवाहित करने के हिमायती हैं, जो शायद इकलौते मुख्यमंत्री हैं जिनके राज्य में कांग्रेस कुछ बेहतर प्रदर्शन कर पाई है। हालांकि शहरी सीटों पर माकूल नतीजे न आने के कारण उनकी नवजोत सिंह सिद्धू से ठन भी गई, जो अपेक्षाकृत युवा हैं। बहरहाल, अमरिंदर के 'नया खून' के क्या मायने हैं या इस बारे में उनकी योजना क्या है, यह अभी अस्पष्ट है। इसी तरह कर्नाटक के बुजुर्ग नेता और पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली अध्यक्ष पद की जगह अनुभवी और युवा नेताओं का एक कॉलेजियम बनाने की वकालत कर रहे हैं, जिसमें राज्यों का समुचित प्रतिनिधित्व हो। लेकिन लगभग यही ढांचा तो कांग्रेस कार्यकारिणी का रहा है, जिसमें अब ऐसे नेताओं की ही भरमार है, जो महज राज्यसभा में ही शोभायमान रहते हैं।

वीरभद्र सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री, हिमाचल प्रदेश

पंडित नेहरू के समय से कांग्रेस में हूं। कांग्रेस के नेतृत्व से लेकर कार्यकर्ताओं ने कभी हार नहीं मानी। कांग्रेस के सामने आज जो संकट है, इससे भी बड़े संकट झेले गए हैं पर कांग्रेस वहीं की वहीं है। आज की हार, कल की जीत होगी। एकजुट होकर भविष्य की चुनौतियों से लड़ने की तैयारी में जुट जाना चाहिए। संगठन को मजबूत करने और कांग्रेस छोड़कर अन्य दलों में जा रहे कार्यकर्ताओं को रोकने के प्रयास तेज होने चाहिए। कांग्रेस का जो वोटबैंक बिखर गया है, उसे समेटने की रणनीति पर काम होना चाहिए। वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं के सान्निध्य में गतिशील युवा चेहरों को जिम्मेदारी सौंपी जाए।

इसके अलावा एक फॉर्मूला बुजुर्गवार कर्ण सिंह ने पेश किया है। इस फॉर्मूले के अनुसार किसी वरिष्ठ नेता (कथित तौर पर मनमोहन सिंह) के तहत चार या पांच कार्यकारी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बनाए जाएं, जो विभिन्न प्रदेशों और इलाकों में प्रभावी हों। फिर, नेतृत्व संभालने के लिए कई नेताओं के नाम भी उभरे हैं, जिनमें सुशील कुमार शिंदे, मनमोहन सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नाम चर्चाओं में हैं।

लेकिन इसमें कोई भी फॉर्मूला कांग्रेस को नए हालात में मुकाबले के लिए तैयार करने के काबिल नहीं दिखता। सवाल यह भी है कि गांधी परिवार ऐसे किसी फॉर्मूले पर तैयार होता है और पूरी तरह अपने को नेतृत्व से अलग रख पाता है क्या? ऐसे भी गांधी परिवार ही अभी वह चुंबक है, जो कांग्रेस को बांधे रखने में कायम रहा है। देश भर के लोगों में सोनिया, राहुल और प्रियंका ही कोई आकर्षण पैदा करते हैं। वैसे, कांग्रेस का बड़ा संकट यह भी है कि उसके केंद्रीय नेतृत्व में लगातार भरोसा घटता जा रहा है।

भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पूर्व मुख्यमंत्री, हरियाणा

मेरा ऐसा मानना है कि कांग्रेस को फिर से अपनी जड़ें मजबूत करने की जरूरत है। गांव-गांव में सदस्यता अभियान से पार्टी को मजबूत करते चलेंगे तो ऊपर तक मजबूती आएगी। जैसा पहले किया जाता था, उसी तर्ज पर गांंव-गांव में जाकर कांग्रेस पार्टी की सदस्यता बढ़ाकर जड़ें मजबूत की जाएं। पार्टी संगठन के चुनाव की प्रक्रिया भी ठीक नहीं है। हरियाणा की ही बात करें तो पिछले चार साल से यहां ब्लॉक स्तर से कांग्रेस का संगठन खड़ा नहीं हो पाया है। जहां तक बात अध्यक्ष की है, तो वह युवा हो या बुजुर्ग-अनुभवी नेता कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे चेहरे के हाथ कांग्रेस की कमान हो जो कांग्रेस के प्रति समर्पित हो और जिसकी देशभर में पहचान हो। लोगों की आस्था कांग्रेस में है इसलिए इन लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस को 12 करोड़ वोट मिले हैं। वह खत्म नहीं हुई है।

शायद यह भी वजह है कि पार्टी के नेताओं में ऊहापोह और घबराहट दिखती है। असल में लंबे समय से गांधी परिवार के साए में और सिर्फ सत्ता की राजनीति करने के कारण कांग्रेस का शायद वह मकसद खो गया है, जो पार्टी के प्रति आजादी के बाद से लोगों में भरोसा बहाल रखता था। वह मकसद था देश की धर्मनिरपेक्ष विरासत और समाजवादी तथा सामाजिक न्याय के प्रति रुझान। देश के एक बड़े राजनीति विज्ञानी आउटलुक से कहते हैं कि कांग्रेस को एक बड़े आंदोलन की दरकार है और उसे अपने कामकाज का तरीका पूरी तरह से बदलना होगा। चुनाव जिताने की क्षमता रखने वाले नेताओं का पार्टी में लगभग अकाल है। भले ही लोग कुछ भी कहें, भाजपा केवल एक पार्टी नहीं, बल्कि एक आंदोलन भी है। इसीलिए उसके खिलाफ खड़ा होने के लिए कांग्रेस जैसी पार्टी को भी एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की दरकार है। वह कैसे होगा, कौन करेगा, इसको लेकर अभी केवल इंतजार किया जा सकता है। इसकी विस्तार से चर्चाएं राजनीति विज्ञानी महेश रंगराजन और अर्थशास्‍त्री कमल नयन काबरा के अगले लेखों में की गई हैं।

अमरिंदर सिंह, मुख्यमंत्री, पंजाब

राहुल गांधी का इस्तीफे पर अडिग रहने का फैसला पार्टी के लिए निराशाजनक है। इसकी भरपाई दूसरे युवा नेता के गतिशील नेतृत्व से हो सकती है। यह युवा नेता ऐसा हो, जो लोगों के बीच जमीनी स्तर पर पकड़ भी रखता हो। युवा भारत को एक युवा नेता की जरूरत है, जो युवाओं को प्रेरित करे और पूरे भारत की पसंद हो और जिसकी जमीनी स्तर पर भी अच्छी पकड़ हो।

यही नहीं, कालक्रम में नेताओं की टकराहटों की वजह से पार्टी बिखरती भी गई है। इसके टुकड़े तो कई हैं लेकिन बड़े टुकड़ों में महाराष्ट्र में प्रभावी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और पश्चिम बंगाल में प्रभावी तृणमूल कांग्रेस के रूप में है। कुछ जानकारों की राय है कि इनके नेताओं शरद पवार और ममता बनर्जी में ज्यादा संभावना हो सकती है। अगर कांग्रेस का नया नेतृत्व इन टुकड़ों को जोड़कर कोई नया स्वरूप खड़ा कर पाए तो शायद नई इबारत की ओर बढ़ा जा सकता है। बेशक, यह इतना आसान नहीं है, लेकिन जैसे राकांपा और तृणमूल कांग्रेस को अपने क्षेत्रों में भाजपा की मोदी-शाह जोड़ी से चुनौतियां मिल रही हैं, उससे एक संभावना बनती है। अब देखना है कांग्रेस अपने संकट से निजात पाने का कोई तरीका ढूंढ़ पाती है या देश की सबसे पुरानी पार्टी इतिहास के पन्नों में समा जाती है।

 

 

 

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