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नतीजों का फलसफा

एनडीए की आश्चर्यजनक जीत और विपक्ष की चुनौती धराशायी होने के मायने
जीत की खुशीः चुनाव नतीजे के बाद भाजपा मुख्यालय में नरेंद्र मोदी और अमित शाह

“यह जीत सेकुलरिस्टों के खिलाफ है।”

 

“अब जाति की राजनीति खत्म हुई। बस दो ही जातियां बच गई हैं, एक, गरीब और दूसरे, गरीबी हटाने वाले।”

-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नतीजों के बाद अपने संबोधनों में

 

“वरिष्ठ नेताओं कमलनाथ, अशोक गहलोत, चिदंबरम वगैरह ने पार्टी के बदले अपने बेटों के भविष्य को तरजीह दी।”

-राहुल गांधी, कथित तौर पर कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में

 

 

आम चुनाव 2019 के विस्मयकारी नतीजों के रहस्य क्या इन बयानों में कहीं छुपे हैं? दरअसल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की 2019 लोकसभा चुनावों में धुआंधार जीत को सामान्य तर्क और पारंपरिक पैमाने से समझ पाना आसान नहीं है, जिसमें भाजपा की झोली में 303 सीटें और एनडीए के पाले में 353 सीटें आ गिरीं। इसके रहस्य का एक सूत्र नरेंद्र मोदी के उस बयान में भी तलाशा जा सकता है ‌कि “पहली बार देश में एक प्रो-इन्‍कंबेंसी मौन लहर बह रही है।” हालांकि इसके दो सूत्र तो साफ हैं। एक, पुलवामा और बालाकोट के बाद उन्मादी राष्ट्रवाद की फिजा और सहयोगी दलों के आगे झुककर भी गठजोड़ करने की भाजपा की रणनीति।

फिर भी, यह रहस्य लंबे समय तक बड़े से बड़े राजनीति शा‌स्‍त्रियों के लिए उलझन का कारण बना रह सकता है, क्योंकि इसमें वाकई आजादी के करीब 70 साल बाद देश की फितरत में बड़े बदलाव के अक्स दिख सकते हैं। यह इस मायने में ऐतिहासिक है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की 2014 से भी धमाकेदार वापसी। 1984 के बाद किसी मौजूदा सरकार की इतनी बड़ी जीत पहली है। यकीनन इसमें ऐसे कई आश्चर्यजनक पहलू हैं, जिसे राष्ट्रीय और क्षेत्रवार नतीजों के गणित से भी जाना जा सकता है।

इसके राष्ट्रीय परिदृश्य को देखें तो इस तथाकथित 'मौन लहर' से विंध्य के पार आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु ही बच पाए, जहां कथित सेकुलर और क्षेत्रीय भावनाओं को यह बेध नहीं पाया। हालांकि दक्षिण में भी तेलंगाना में इसकी हल्की-सी छुअन दिखी तो कर्नाटक में धमाकेदार असर दिखा। इसके अलावा इसके असर को पूरब में सिर्फ ओडिशा कुछ काटने में कामयाब हुआ, जहां नवीन पटनायक न सिर्फ पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड कायम करने में सफल रहे, बल्कि कुल 21 संसदीय सीटों में से आठ पर ही भाजपा को रोक दिया। हालांकि राज्य में विपक्ष की जगह अब कांग्रेस के बदले भाजपा ने ले ली है।

इस लहर से उत्तर में सिर्फ पंजाब (कुल 13 में से एनडीए सिर्फ चार सीटें) और कश्मीर घाटी को छोड़ दें तो समूचे पश्चिम, उत्तर और पूरब में इसका ऐसा जोरदार असर दिखा कि सबका सूपड़ा साफ हो गया। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, भाजपा और मोदी-अमित शाह की जोड़ी को पस्त करने का हांका लगा रहे तमाम क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों के दांत खट्टे हो गए।   

इन नतीजों में सिर्फ चुनौती देने वाले ही नहीं बह गए, बल्कि पिछले पांच साल में मोदी सरकार की आर्थिक-सामाजिक हर मोर्चे पर भीषण नाकामियां भी औंधे मुंह मिट्टी में समा गईं। 2019 के शुरू में ही किसानों की दुर्दशा, बेरोजगारी की 45 साल में सबसे ऊंची दर, अर्थव्यवस्‍था की बदहाली की बातें ऐसा झंझावात पैदा कर रही थीं कि मोदी सरकार बगलें झांकती नजर आ रही थी। उसने बेरोजगारी के आंकड़े तक जारी नहीं होने दिया। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के ऐसे आंकड़े जारी किए, जिस पर वह सफाई देने में दिक्कत महसूस कर रही थी और दुनिया भर में पहली दफा भारत के आंकड़ों पर गहरा संदेह जाहिर किया जाने लगा। इसके पहले भाजपा तीन प्रमुख हिंदी प्रदेशों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्‍थान में सत्ता कांग्रेस के हाथों गंवा चुकी थी।

सहयोगियों का साथः नतीजों के पहले एनडीए नेताओं के साथ नरेंद्र मोदी

हालात ऐसे थे कि 2014 के बाद पांच बजट पेश करने का जनादेश पाई मोदी सरकार मर्यादा को ताक पर रखकर छठा बजट (अंतरिम) ले आई और पिछली तारीख से दो हेक्टेयर जोत तक के किसान परिवारों को सालाना 6,000 रुपये देने का ऐलान किया। ऊंची जातियों को खुश करने के लिए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को 10 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक ले आया गया। इसके बाद ही कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 44 जवान मारे गए और जवाब में पाकिस्तान में बालाकोट एयर स्ट्राइक हुआ। इसी के इर्द-गिर्द मर्दाना या दबंग राष्ट्रवाद का उन्मादी अफसाना गढ़कर सारे जमीनी मुद्दों को हवा में उड़ाने की कोशिश हुई। विपक्ष मोदी सरकार की नाकामियों, संवैधानिक संस्‍थाओं की बर्बादी, नोटबंदी और जीएसटी से आर्थिक बदहाली और कुछ हद तक राफेल विमान सौदे में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अभियान कें‌द्रित कर रहा था। लेकिन वह शुरुआती ऐलान के विपरीत एकजुट मोर्चा नहीं कायम कर पाया। जहां उसने मोर्चेबंदी की भी तो वह बेमानी साबित हुई। विपक्ष की मोर्चेबंदी की तकरीबन पांच चुनौतियां मोदी-शाह की अगुआई में एनडीए के सामने थीं।

कांग्रेस की चुनौती

बड़े दावे के साथ कांग्रेस हिंदी प्रदेशों मध्य प्रदेश, राजस्‍थान और छत्तीसगढ़ के अलावा पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में अकेले दम पर तो बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक में सहयोगियों के साथ चुनौती देने का दम भर रही थी। अभी पांच महीने पहले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में पंद्रह साल बाद और राजस्‍थान में अपनी बारी के तहत कांग्रेस सत्ता में लौटी थी। इसलिए पार्टी को पूरा भरोसा था कि केंद्र के प्रति लोगों में नाराजगी उसे काफी सीटें दिला देगी लेकिन हुआ ठीक उलटा। राजस्‍थान में सभी 25 सीटें वह गंवा बैठी तो मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ सिर्फ अपने बेटे नकुल के लिए छिंदवाड़ा की सीट ही बचा पाए। कुछ जानकारों के हिसाब से भोपाल में दिग्विजय सिंह के खिलाफ मालेगांव आतंकी धमाके की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को उतारकर भाजपा ने हवा पलट दी। इसके असर से न सिर्फ भाजपा के गढ़ मालवा में मंदसौर किसान गोलीकांड से बह रही नाराजगी की हवा का रुख मुड़ गया, बल्कि गुना में ज्योतिरादित्य सिंधिया का गढ़ भी ढह गया। छत्तीसगढ़ में भी हाल के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह पिटी भाजपा लोकसभा की कुल 11 में से नौ सीटें जीत गई।

कर्नाटक और महाराष्ट्र में तो सारे सकारात्मक कारकों के बावजूद न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि जद (एस) और राकांपा की जमीन भी खिसक गई। कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा तक अपनी सीट नहीं बचा पाए। वहां कांग्रेस और जद (एस) के बीच कलह भी इसकी वजह है, लेकिन ज्यादातर सीटों पर भाजपा की जीत का अंतर इतना भारी है कि सिर्फ कलह को ही वजह नहीं बताया जा सकता। महाराष्ट्र में भी कुछेक सीटों पर ही प्रकाश आंबेडकर के तीसरे मोर्चे वंचित बहुजन अघाड़ी समाज को मिले वोटों को कांग्रेस-राकांपा उम्मीदवारों की हार का दोषी बताया जा सकता है। ज्यादातर सीटों पर तो जीत का फासला बड़ा है। कांग्रेस को ऐसी ही निराशा बिहार, झारखंड में अपने सहयोगियों के साथ झेलनी पड़ीं, जहां लगभग विपक्ष की जमीन हवा हो गई।

गठबंधन का मोर्चा

हिंदी प्रदेशों में मोदी लहर के खिलाफ सबसे मजबूत मोर्चेबंदी उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के रूप में मौजूद थी। यह गठबंधन सामाजिक समीकरणों और केंद्र तथा राज्य में आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ दोहरी नाराजगी के बूते काफी मजबूत लग रहा था। यहां भाजपा (60) और अपना दल (2) की जीती तकरीबन दो-तिहाई सीटों पर जीत का अंतर भी थोड़ा है। करीब दस सीटों पर गठबंधन से बाहर रह गई कांग्रेस को मिले वोट भी जीत-हार तय करने में प्रभावी हुए। इसलिए यह कयास भी है कि कांग्रेस के उम्मीदवारों ने भाजपा के बदले गठबंधन को नुकसान पहुंचाया। हालांकि मायावती कहती हैं, “भाजपा ने यह जीत ईवीएम में बड़े पैमाने पर लक्ष्य तय करके धांधली से हासिल की है। कुछ सीटों पर ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं की गई, ताकि संदेह न हो। वही सीटें हमें मिलीं।”  बसपा के 10 उम्मीदवार जीत गए और सपा को सिर्फ पांच सीटें मिलीं। फिर आखिरी समय में रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस को वोट देने की मायावती की अपील के बावजूद अमेठी में राहुल गांधी की हार हो गई। इससे ये आशंकाएं भी हैं कि खासकर पूरब और मध्य उत्तर प्रदेश में बसपा के वोट सपा या कांग्रेस को ट्रांसफर नहीं हो पाए हैं।

फिर, यहां ऊंची जातियों के अलावा अति पिछड़ी और गैर-जाटव अनुसूचित जातियों के वोट भी मुस्तैदी के साथ भाजपा की ओर जाने के कयास हैं। भाजपा ने मोटे तौर पर पिछड़ों में यादवों और अनुसूचित जातियों में जाटवों के अलावा बाकी जातियों को जोड़ने और छोटे-छोटे समूहों के साथ गठजोड़ करने का जो लंबे समय से प्रयास किया, वह भी उसकी कामयाबी की एक वजह बना। यही कहानी बिहार और झारखंड में भी दोहराई गई। कुछ फर्क शौचालय, मकान और किसान सम्मान निधि ने भी पैदा किया। इसके उलट इन राज्यों में गठबंधन सिर्फ अपने समीकरणों पर ही आश्रित रहा। यह कहानी भाजपा के पास खर्च करने की अकूत संभावना और विपक्ष के पास फंड की कमी के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती। हिंदी प्रदेशों में शायद कोई मौन लहर काम कर रही थी।

बंगाल की आश्चर्यजनक बानगी

इन नतीजों का सबसे चौंकाने वाला पहलू बंगाल में भाजपा की महत्वपूर्ण पैठ है। बहुत लोगों के लिए यह भरोसा करना मुश्किल है कि भाजपा वहां 18 सीटें जीत गई। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें ही मिलीं। लगभग समूचे उत्तर और पश्चिम-दक्षिण बंगाल में भाजपा की जमीन तैयार हो गई। हिंदू महासभा का जन्म जरूर बंगाल में हुआ था और आजादी के वक्त सबसे पहले दंगे भी उसी इलाके में हुए लेकिन आजादी के बाद बंगाल में जनसंघ या भाजपा के प्रति रत्ती भर भी आकर्षण हाल तक नहीं रहा है। लेकिन इस बार बड़े पैमाने पर वाम कार्यकर्ताओं के भाजपा की ओर रुख करने के संकेत मिल रहे हैं। बंगाल में भाजपा की पैठ एक मायने में आजादी के आंदोलन के वक्त स्‍थापित राष्ट्रवाद की उदार धारा के कमजोर होने का भी द्योतक हो सकती है।

राज्यों और विपक्ष की चुनौती धराशायी होने के साथ भाजपा और कांग्रेस पर अलग-अलग कहानियां अगले पन्नों पर विस्तार से बताई गई हैं। इसमें दो राय नहीं कि देश एक अलग धुरी में पहुंच गया है। यह धुरी कैसे नजारे दिखाएगी, वह अगले पांच साल में देखने को मिलेंगे। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में कहा कि हमें अल्पसंख्यकों के डर को मिटाना है। लेकिन मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्‍थान, बिहार में हाल की घटनाएं उलट संकेत दे रही हैं। उम्मीद कीजिए कि बहुसंख्यकवाद का यह उन्माद काबू में रहे!

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