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नमो पर कितने भारी नाथ?

कमलनाथ के तीन महीने के काम और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के बीच मुकाबला, दांव पर दोनों की साख
भोपाल संसदीय सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में इन दिनों आसमानी गर्मी के साथ राजनैतिक गर्मी भी भारी है। तीन दशक से भाजपा के कब्जे वाली भोपाल सीट पर कांग्रेस ने अपने वरिष्ठ नेता, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मैदान में उतारकर भाजपा के सामने कड़ी चुनौती खड़ कर दी है। पहले तो भाजपा दिग्गी राजा के मैदान में उतरने से पसोपेश में थी, लेकिन उसने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर  को खड़ा करके मुकाबले में कुछ दम भरने की कोशिश की है। दिग्विजय बनाम प्रज्ञा होने से पूरे देश की नजर अब भोपाल पर टिक गई है। भोपाल सीट को 1999 में उमा भारती ने कांग्रेस के सुरेश पचौरी को हराकर भाजपा की झोली में डाली थी। यहां दिग्विजय सिंह और भाजपा दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर है। पूरी लड़ाई अब असल चुनावी मुद्दों से हटकर व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील हो गई है। राजनैतिक कद के हिसाब से देखा जाए तो दिग्विजय के मुकाबले प्रज्ञा नई हैं, लेकिन वोटों के ध्रुवीकरण के जाल से वे कैसे निकलते हैं, यह देखना है। अभी प्रचार में दिग्विजय आगे दिख रहे हैं, लेकिन यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा से फिजा बदलने की भी बात की जा रही है। भाजपा ने हमेशा से भोपाल सीट पर हिंदू कार्ड खेलने की रणनीति पर काम किया है, चाहे चुनाव लोकसभा का हो या फिर मेयर का। लेकिन 15 साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद चीजें बदली हैं। पार्टी को भाजपा के बागियों का फायदा होता दिख रहा है। हालांकि बिजली कटौती और गेहूं खरीद केंद्रों की समस्या कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही है। भाजपा ने पूरी लड़ाई मोदी बनाम विपक्षी दल कर दिया है। स्थानीय प्रत्याशी इस समय चर्चा का विषय नहीं रह गए हैं।

प्रदेश का सबसे ज्यादा खनिज संपदा वाला क्षेत्र बालाघाट आज भी रेल सुविधाओं के लिए तरस रहा है। ब्रॉडगेज लाइन होने के बावजूद देश के प्रमुख हिस्सों से जोड़ने वाली कोई ट्रेन आज तक यहां से शुरू नहीं हो पाई है। कभी अंग्रेजी कवेलू (रूफ टाइल) निर्माण के लिए देश में पहचान बनाने वाले बालाघाट में रोजगार भी बड़ा मुद्दा है। अनिल नामदेव कहते हैं, “बालाघाट क्षेत्र में तांबा, अभ्रक और मैगनीज जैसी बहुमूल्य खनिज संपदा की खुदाई के बाद भी यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है।” वारासिवनी में चाय बेचने वाले शुभम सिसोदिया एक बार मोदी को मौका देने की बात करते हैं। किसान भागसिंह पटेल की दो एकड़ खेती है। उन्होंने बैंक से कर्ज ले रखा है। उनका कहना है, “मेरा कर्ज माफ नहीं हुआ।”

बालाघाट संसदीय क्षेत्र में इस बार मुकाबला दिलचस्प है। कांग्रेस से पूर्व विधायक मधु भगत, भाजपा से पूर्व मंत्री ढालसिंह बिसेन के अलावा,  भाजपा के बागी सांसद और अब निर्दलीय प्रत्याशी  बोधसिंह भगत और बहुजन समाज पार्टी से कंकर मुंजारे के मैदान में उतरने से मुकाबला रोचक हो गया है। बालाघाट जिला कांग्रेस अध्यक्ष विश्वेसर भगत का कहना है, “बोधसिंह और कंकर मुंजारे दोनों ही भाजपा का वोट काट रहे हैं, इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा।” बालाघाट भाजपा के नगर अध्यक्ष सुरजीत सिंह ठाकुर का कहना है, “बोधसिंह के साथ पार्टी के कुछ कार्यकर्ता गए हैं और उनके चुनाव मैदान में रहने से मुकाबला कांटे का हो गया है।”

वैसे, भाजपा ने अब तक यहां से किसी सांसद को दोबारा टिकट नहीं दिया है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की मिली-जुली संस्कृति वाले बालाघाट में पांच लाख पवार समुदाय के वोट निर्णायक होंगे। भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशियों के अलावा निर्दलीय बोधसिंह भी पवार समुदाय से हैं। 14 लाख मतदाताओं वाली इस सीट पर ढाई लाख लोधी और दो लाख आदिवासी भी अहम होंगे। आदिवासियों का झुकाव कांग्रेस की तरफ है, लेकिन लोधी वोट भाजपा-बसपा में बंटने की संभावना है। भाजपा लोधी समाज के वोटरों को साधने के लिए केंद्रीय मंत्री उमा भारती का सहारा ले रही है। 

छिंदवाड़ा में कांग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ का जीतना तय माना जा रहा है। छिंदवाड़ा कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है। कमलनाथ यहां से लगातार चुने जाते रहे हैं। यहां के निवासी महेंद्र चांडक का कहना है कि भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले आदिवासी नेता नाथन शाह कवरेती को नकुलनाथ के मुकाबले में उतारा है। नकुलनाथ ने आउटलुक से कहा कि वे जीत के प्रति आश्वस्त हैं। कमलनाथ ने क्षेत्र में बहुत विकास कराया है, उसका फायदा नकुलनाथ को मिलेगा। वे इस इलाके की जनता के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में और काम करना चाहते हैं। उनकी इच्छा छिंदवाड़ा में दिल्ली एम्स के स्तर का हॉस्पिटल शुरू करने की है। ।  

इन चुनावों में भाजपा के आत्मविश्वास की एक बड़ी वजह हार के बावजूद विधानसभा चुनावों में उसका वोट प्रतिशत नहीं गिरना है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह जबलपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। तीन बार के सांसद राकेश सिंह अपने जीत के प्रति इतने आश्वस्त हैं कि चुनाव प्रचार थमने के दिन दोपहर 12 बजे तक कार्यकर्ताओं से मिलने बाहर  नहीं निकले, जबकि कार्यकर्ता और दूसरे लोग उनसे मिलने के लिए सुबह से इंतजार कर रहे थे। जबलपुर निवासी डॉ. अनुराग खरे कहते हैं, “राकेश सिंह का यहां कोई बड़ा काम नहीं है और न ही कोई खास प्रभाव, मोदी का नाम चला तो ही जीत पाएंगे।” राकेश सिंह का मुकाबला कांग्रेस के विवेक तन्खा से है। पिछली बार तन्खा को हराकर ही राकेश संसद पहुंचे थे। करीब 20 लाख वोटर वाले जबलपुर में लगभग तीन लाख ईसाई,  दो लाख मुस्लिम वोटर के साथ बड़ी संख्या में ब्राह्मण और ठाकुर के अलावा एससी वर्ग में खटीक समाज के लोग हैं। जाति समीकरण का गणित फिट बैठा तो कांग्रेस को लाभ हो सकता है। मध्य प्रदेश में शहडोल और मंडला एसटी रिजर्व सीट है। शहडोल में भाजपा की हिमाद्रि सिंह का मुकाबला कांग्रेस की प्रमिला सिंह से है।   

मंडला में भाजपा के फग्गन सिंह कुलस्ते का मुकाबला कांग्रेस के कमल मरावी से है। पांच बार के सांसद कुलस्ते के कारण ही भाजपा यह सीट जीतती आ रही है। पहले मंडला को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखकर माना जा रहा था कि राज्य में एसटी के लिए सुरक्षित छह लोकसभा सीटें कांग्रेस के अनुकूल रहेंगी। धार और रतलाम-झाबुआ सीटों पर जयस के उम्मीदवार खड़े होने से इन सीटों पर भाजपा को फायदा होता दिख रहा है। इसमें रतलाम-झाबुआ सीट अभी कांग्रेस के पास है। यहां से कांतिलाल भूरिया सांसद हैं। मध्य प्रदेश में इस बार मुख्यमंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, अजय सिंह राहुल, नरेंद्र सिंह तोमर, राकेश सिंह समेत कई बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।

इस बार मालवा और चंबल संभाग में कांग्रेस की स्थिति मजबूत दिखाई पड़ रही है। प्रत्याशियों को लेकर भाजपा इन इलाकों में मुश्किल में दिख रही है, खासकर मंदसौर और इंदौर जैसे पुराने गढ़ में उसे चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जहां तक बुंदेलखंड की बात है तो चार सीटों में कांग्रेस को बढ़त मिल पाएगी, उम्मीद कम है। विंध्य में भी भाजपा का पलड़ा भारी दिख रहा है।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 29 में से 27 सीटें जीती थीं। उपचुनाव में एक सीट उसके हाथ से चली गई थी।  बालाघाट जिले के सादक सिवनी के एक ग्रामीण का कहना है, “सत्ता में होने से इस बार लोकसभा में कांग्रेस को फायदा होगा।” कांग्रेस को फायदा होता तो दिख रहा है, पर बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस को कितनी सीटों का इजाफा होगा?

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